यूनिकवि प्रतियोगिता की १३वीं रचना के रूप में हम लेकर आये हैं विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' की कविता 'हम शब्दों के बुनकर हैं' । विवेक रंजन श्रीवास्तव जी पिछले २ महीनों से हिन्द-युग्म के सक्रिय पाठक भी हैं।
कविता- हम शब्दों के बुनकर हैं
कवयिता- विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र', जबलपुर
देवी हो तुम अक्षर की माँ ,
हम शब्दों के बुनकर हैं !
भाव प्रसून गूँथ भाषा में ,
गीत लाये हम चुनकर हैं !!
भाव भंगिमा और तालियाँ,
दर्शक कवि के दर्पण हैं !
सृजन सफल जब हों आल्हादित
श्रोता रचना सुनकर हैं !!
हम पहचाने नीर क्षीर को ,
सबको इतनी बुद्धि दो !
विनत कामना करते हैं माँ ,
भाव शब्द से गुरुतर हो !!
बहुत प्रगति कर डाली हमने
आजादी के बरसों में !
और बढ़े आबादी पर माँ ,
धरती भी तो बृहतर हो !!
हम सब सीधे सादे वोटर ,
वो आश्वासन के बाजीगर !
पायें सब के सब मंत्रीपद,
पर कोई तो "वर्कर" हो !!
राग द्वेष छल बढ़ता जाता
धर्म दिखावा बनता जाता !
रथ पर चढ़ जो घूम रहे हैं ,
कोई तो पैगम्बर हो !!
घर में घुस आतंकी बैठे ,
खुद घर वाले सहमे सहमे !
चुन चुन कर के उनको मारे
ऐसा कोई रहबर हो !!
शिलान्यास तो बहुत हो रहे
प्रस्तर पट सब पड़े अधूरे ,
आवंटन को दिशा मिले अब
काम कोई तो जमकर हो!!
कागज कलम और कविता से
मन वीणा स्पंदित कर के !
युग की दिशा बदलकर रख दे
कवि ऐसा जादूगर हो !!
अँत करो माँ अंधकार का
जन गण के मन में प्रकाश दो !
नव युग के इस नव विहान में
बच्चा बच्चा "दिनकर" हो !!
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ९॰२५, ७, ६॰९
औसत अंक- ७॰७१६७
द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-६, ७॰७१६७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰८५८३५
तृतीय चरण के जज की टिप्पणी-.
मौलिकता: ४/०॰१ कथ्य: ३/॰७ शिल्प: ३/२॰५
कुल- ३॰३
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
sach hum sab shabdho ke bunkar hi tho hai,sundar shabdho se rachi sundar kavita,mann ko ulhasit kar diya.
अरे का कहै के बा... तोहार कविताई ने त नीचे से ऊपर ले झनझनाइ देहलसि भैया...झन्न से।
वाह भई वाह, क्या खूब कही....आमीन !!
कागज कलम और कविता से
मन वीणा स्पंदित कर के !
युग की दिशा बदलकर रख दे
कवि ऐसा जादूगर हो !!
अँत करो माँ अंधकार का
जन गण के मन में प्रकाश दो !
नव युग के इस नव विहान में
बच्चा बच्चा "दिनकर" हो !!
"very nicepoetry"
regards
कागज कलम और कविता से
मन वीणा स्पंदित कर के !
युग की दिशा बदलकर रख दे
कवि ऐसा जादूगर हो !!
बहुत सही।
बहुत सुंदर |
-- अवनीश तिवारी
पुरानी शैली में आज के समय पर व्यंग्य बढ़िया है। आपको कथ्यों को थोड़ा और भार अपनी कविता पर लादना होगा।
"कागज कलम और कविता से
मन वीणा स्पंदित कर के !
युग की दिशा बदलकर रख दे
कवि ऐसा जादूगर हो !!"
हम सब "तथास्तु" कहते हैं .
इस सुन्दर रचना पर बधाई !
कागज कलम और कविता से
मन वीणा स्पंदित कर के !
युग की दिशा बदलकर रख दे
कवि ऐसा जादूगर हो !!
अँत करो माँ अंधकार का
जन गण के मन में प्रकाश दो !
नव युग के इस नव विहान में
बच्चा बच्चा "दिनकर" हो !!
भा गयी आपकी कविता.. बहुत बढिया जी..
सुन्दर ..
विवेक विनम्र जी, आपकी कविता की कड़ियाँ एक एक अलग अलग भाव भरती सी हैं । कविता पढ़ने में और भाव की दृष्टि से भी अच्छी है । पर कुछ कमियाँ भी दिख रही हैं, जैसे, कविता की तीन पहली कड़ियाँ ही शीर्षक से मेल खाती हैं, बाकी कड़ियाँ अलग अलग विषयों में विचरण करने लगती है । शायद कविता लिखते समय भाव प्रधान हो गया इसलिए भावना से जो भी निकला वह लिख दिया । पहली तीन कड़ियाँ काव्य रचना और प्रतिभा से सम्बन्धित हैं और बाद की कड़ियाँ वर्तमान समस्याओं से । शीर्षक से मेल पहली तीन ही खाती हैं ।
सृजन सफल जब हों आल्हादित
श्रोता रचना सुनकर हैं !!
इन पंक्तियों में एक तो आल्हादित की जगह आह्लादित होना चाहिए था । और दूसरी बात कि इन पंक्तियों का वाक्य विन्यास नहीं समझ में आया । अन्त वाला ‘हैं’ किससे अन्वित है ? ऐसा भी हो सकता था
"सृजन सफल हो जब आह्लादित
श्रोता रचना सुनकर हों !!"
वैसे कवि की रचना से छेड़छाड़ करने का हक़ मुझे नहीं है, फिर भी मैने कहना उचित समझा ।
एक और बात ! अन्तिम दूसरी पंक्ति का ‘विहान’ शब्द मुझे नहीं समझ में आया । क्या इसकी जगह दूसरा शब्द रखना चाहते थे या यदि यही शब्द है तो इसका अर्थ क्या है ।
कागज कलम और कविता से
मन वीणा स्पंदित कर के !
युग की दिशा बदलकर रख दे
कवि ऐसा जादूगर हो !!
अँत (अंत) करो माँ अंधकार का
जन गण के मन में प्रकाश दो !
नव युग के इस नव विहान में
बच्चा बच्चा "दिनकर" हो !!
आपकी कविता की ये कड़ियाँ विषय से विचलित कविता को पुनः विषय पर ले आती हैं । यहाँ पर सचमुच वही बात दिखाई पड़ती है जो आपने माँ से पहले माँगा है- भाव शब्द से गुरुतर हों । ये शब्द उतने जोशीले नहीं लगते पर भाव अवश्य ही क्रान्तिकारी है । सचमुच माँ ने आपकी कितनी जल्दी सुन ली । वही कविता लिखते समय ही उस माँग की स्वीकृति दिखने लगती है ।
हम पहचाने नीर क्षीर को ,
सबको इतनी बुद्धि दो !
और-
नव युग के इस नव विहान में
बच्चा बच्चा "दिनकर" हो !!
बहुत ही सुंदर कामना की है आपने विवेक जी.
कविता सरल और व्यवस्थित लगी.प्रवाह और प्रभाव दोनों दिखाई दिये.
शुभकामनाओं सहित-
विनम्र जी बहुत सुंदर रचना.
बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
यूँ तो मूलतः मै अकवि ही हूं, कभी कुछ प्रयास शब्दों को गीत रूप में बुनने का भी कर लेता हूँ ,पत्र पत्रिकाओ में खूब छपा ,पाठकों से प्रतिक्रियायें भी मिली किंतु एक साथ इतनी सारी और इतनी सारगर्भित टिप्पणियाँ ..... ब्लाग की ताकत हम सब की सामूहिक शक्ति है , इस सारस्वत शक्ति को नमन करता हूँ . आप ने पढ़ा ,आप सब की समीक्षा के शब्दों ने मुझे ऊर्जा दी है , आभार. विवेक रंजन श्रीवास्तव
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