हमें छठवें स्थान के कवि अजय काशिव का परिचय प्राप्त हो गया है। लेकिन इस बार भी चित्र उन्होंने नहीं भेजा।
अजय काशिव का जन्म मध्य प्रदेश के जिला हरदा के ग्राम सामरधा में 10 जून 1987 को हुआ| पिताजी स्वर्गीय श्री सतीशचंद्र काशिव जी को हिन्दी- काव्य से बड़ा प्रेम था| जब भी वे कवि सम्मेलनों में जाते तो अजय भी उनके साथ हो लेते| इस तरह काव्य जगत से शुरू से ही अजय परिचित रहे| इनके अंदर उपस्थित एक अच्छा श्रोता कवि में उस समय बदल गया जब इन्होंने विद्यालयीन शिक्षा समाप्त कर कॉलेज में कदम रखा | हिंद-युग्म के यूनिकवि विपुल शुक्ला से इनका परिचय हुआ और उनसे प्रभावित होकर इन्होनें काव्य - सृजन आरंभ कर दिया| अजय अभी इंदौर की आई पी एस एकेडेमी में रसायन अभियांत्रिकी के द्वितीय वर्ष के छात्र हैं |
पुरस्कृत कविता- कब्रिस्तान की मौत
मेरे अतीत के गिरते पत्थर
इंसान चुरा रहे हैं
चारदीवारी ढह रही है !
मैं बूढ़ा कब्रिस्तान,
शहर के बाहर पड़ा हँस रहा हूँ
पर घास के नर्म तकिये पर
लेटे मुर्दे बैचैन हैं
उनकी छाती पर कांक्रीट का पहाड़ तन जाएगा !
बरगद का जिन्न बता रहा था
मुझ पर शॉपिंग माल बन जाएगा |
रेशमी कफ़न डाल कर, चबूतरा बनाकर
तो कहीं लावारिस क्षत-विक्षत शव गाड़ कर
अमीरी-ग़रीबी की पैदा की गई खाई
पर इंसानों की कोई भी कोशिश,
यहाँ काम ना आई!
सब मुर्दे साथ में कैसे सो रहे हैं?
यह उन्हें खल रहा है
देखो बूढ़ा बरगद रो रहा है
वो काट दिया जाएगा !
चमगादड़ें ज़ोरों से चीख रही हैं,
इनकी भाषा कौन समझ पाएगा?
बूढ़ा जिन्न मेरा साथी था
अब अकेला हो जाएगा !
मुर्दों की हसरतों से भरा
वो अँधा कुआँ सिसक रहा है
अब पूर दिया जाएगा!
सारे मुर्दे धरती में घुट जाएँगे !
मुर्दों सा मुर्दों का बूढ़ा चौकीदार
सब जानता है
चूल्हे पर रोटी पकाता हुआ सोचता है,
विकास की आग में मैं भी जल जाऊंगा,
मेरा अस्तित्व खो जाएगा !
पर वो नहीं जानता...
मुझमें मुर्दों को दफ़नाते हैं
मुझे कहाँ दफ़नाया जाएगा ?
एक बड़े कब्रिस्तान में
वो सबसे बड़ा कब्रिस्तान !
जहाँ ज़िंदा इंसान जीते जी,
ख़ुद
रोज़ दफ़न हो जाते हैं
महज़ जीने के लिए !
सब रो रहे हैं,
मैं हँस रहा हूँ!
अपने अस्तित्व को दुनिया के अंत तक बचाऊंगा
बस कुछ ही दिनों की बात है,
उस बड़े कब्रिस्तान में मिल जाऊंगा...
अमर हो जाऊंगा !
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमैंट में मिले अंक- ८॰५, ६, ५
औसत अंक- ६॰५
स्थान- नौवाँ
द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-६॰५, ६॰५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰५
स्थान- तीसरा
तृतीय चरण के जज की टिप्पणी-.
मौलिकता: ४/२॰५ कथ्य: ३/१ शिल्प: ३/२॰५
कुल- ६
स्थान- चौथा
अंतिम जज की टिप्पणी-
कवि ने बहुत से सवाल खड़े किये है, विकास तथा विनाश की प्रचलित अवधारणा में विकास पर ऊँगली उठाई है। कथ्य की पुरातनता और भाषा में कलात्मकता की कमी खलती है।
कला पक्ष: ५॰५/१०
भाव पक्ष: ६॰५/१०
कुल योग: १२/२०
पुरस्कार- ऋषिकेश खोडके 'रूह' की काव्य-पुस्तक 'शब्दयज्ञ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुर्दों सा मुर्दों का बूढ़ा चौकीदार
सब जानता है
चूल्हे पर रोटी पकाता हुआ सोचता है,
विकास की आग में मैं भी जल जाऊंगा,
मेरा अस्तित्व खो जाएगा !
पर वो नहीं जानता...
मुझमें मुर्दों को दफ़नाते हैं
मुझे कहाँ दफ़नाया जाएगा ?
एक बड़े कब्रिस्तान में
वो सबसे बड़ा कब्रिस्तान !
जहाँ ज़िंदा इंसान जीते जी,
ख़ुद
रोज़ दफ़न हो जाते हैं
महज़ जीने के लिए !
"ऐसी कवीता पहली बार पढी है समझ कुछ देर से आई , पर अच्छी लगी . अच्छी रचना के लिए बधाई "
Regards
पर वो नहीं जानता...
मुझमें मुर्दों को दफ़नाते हैं
मुझे कहाँ दफ़नाया जाएगा ?
एक बड़े कब्रिस्तान में
वो सबसे बड़ा कब्रिस्तान !
जहाँ ज़िंदा इंसान जीते जी,
ख़ुद
रोज़ दफ़न हो जाते हैं
महज़ जीने के लिए !
--- सुंदर सोच है
अवनीश तिवारी
आधुनिकता के नाम पर होने वाले विकास का नकारात्मक पहलू .यह कोई नया विषय नहीं रहा.परन्तु कवि ने कविता में इस समस्या को एक नए नजरीये से देखा है.
सरल शब्दों का सहारा ले कर कविता चल रही है जिस से आसानी समझ आ जाती है.
'मुर्दों सा मुर्दों का बूढ़ा चौकीदार ' या फ़िर 'पर घास के नर्म तकिये पर
लेटे मुर्दे बैचैन हैं' ऐसी ही कई पंक्तियाँ आप में समृद्ध कविताई दर्शा रही हैं.
लिखते रहिये...शुभकामनाएं.
गहरी सोच को दर्शाती एक अच्छी रचना
सब मुर्दे साथ में कैसे सो रहे हैं?
यह उन्हें खल रहा है
देखो बूढ़ा बरगद रो रहा है
वो काट दिया जाएगा !
चमगादड़ें ज़ोरों से चीख रही हैं,
इनकी भाषा कौन समझ पाएगा?
बूढ़ा जिन्न मेरा साथी था
अब अकेला हो जाएगा !
मुर्दों की हसरतों से भरा
वो अँधा कुआँ सिसक रहा है
अब पूर दिया जाएगा!
सारे मुर्दे धरती में घुट जाएँगे !
बहुत सुन्दर.. बधाई स्वीकारें
इतनी मथि हुई सोच का कविता के माध्यम से उभर कर आना सुखद है, आप बधाई के पात्र हैं.
आलोक सिंह "साहिल"
इस छोटी उम्र में इतने बेहतर कंटेंट को क्राफ़्ट में ढाला है आपने। आप में भविष्य का जिम्मेदार कवि दिख रहा है। आप लिखते रहें।
आज आपकी कविता पर नज़र पड़ी....बेहतरीन कविता थी....शब्द-शिल्प की एकाध कमियाँ छोड़ दें तो आपकी कविता शीर्ष पर होनी चाहिए थी....कंटेंट भी उम्दा....
आप लिखते रहे..
निखिल
अजय जी, क्या कहूँ!
मुझे आपकी रचना बहुत-बहुत पसंद आई। आप इसी तरह लिखते रहें और शीघ्र हीं शीर्ष पर पहुँचेंगे , मुझे यह विश्वास है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
अजय तुम्हारी कविता पढने के बाद मुझे लगा की, मुझे तुम्हे सुनना चाहिए था.मैंने बहुत बड़ी गलती की जो उस दिन तुम्हे नही सुना.सुनने के बाद शायद मई वो पुरस्कार नही अपनाती जो मुझे मेरी कविता क लिए मिला था.निश्चित रूप से उस पुरस्कार क हक़दार सिर्फ़ तुम ही हो आज तुम्हारी कविता पढने क बाद मई अपने आप को दोषी मान रही हूँ. तुम मेरी मदद कर सकते हो मई तुम्हे वो पुरस्कार देना चाहती हूँ क्यूंकि उसके हक़दार सिर्फ़ तुम हो और तुम्हे उसे लेना होगा और इसी तरह अच्छा लिखना होगा क्यूंकि जितनी शिद्दत से तुमने लिखा है चोट सीधे आत्मा पे लगती है.तुम्हारी कविता विकास और विनाश की बर्बरता को बताती है.
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