कितने ही समझोते हो गए, झूठ मूठ विश्वासों पर
शिमला और ताशकंद के, कन्द कागजी साखों पर
क्या ? तबज्जो मिली आजतक सहमती के सवालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
कर्ज लिया अरबों का हमने, घर में अन्न उगाने को,
उपज बढ़ाकर खुशहाली की, लहर गाँव तक लाने को
एक निबाला मिल पाया क्या, अन्न उगाने वालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
हम हैं आगे, या अभागे, वास्तव में क्या हैं हम ?
क्या हमें मालूम है इसका, किस तरफ जा रहे कदम ?
क्या! रौशनी मिली आजतक, उन गुमनाम उजालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
चंदन चौखट चढ़ीं चौक में, संगमरमर की दीवारें
सात संतरी संग संग ले, घूम रहे लंबी कारें
एक ईंट भर मिल पायी है, क्या ? गावों के नालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
भ्रस्ठ भेडिये घूम रहे हैं, इसी सफेदी के नीचे
अस्मत लुटते देख रहे, सिरमोर खडे आखें मींचे
सजा आज तक मिल पायी क्या? इन वहशी बिडालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
हाथ जोड़कर भीख माँगते, चुनावी हज तक होते हैं,
वादे और इरादे इनके, बस कागज़ तक होते हैं
खाल ओढ़कर घूम रहे जो, परखो आज स्यालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
चंदन चौखट चढ़ीं चौक में, संगमरमर की दीवारें
सात संतरी संग संग ले, घूम रहे लंबी कारें
एक ईंट भर मिल पायी है, क्या ? गावों के नालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
"हमेशा की तरह एक अच्छी सोच एक अच्छा विषये और एक अच्छी रचना . आज के समाज और माहोल पर व्यंग करती सुंदर कवीता".
Enjoyed reading it,
Regards
अच्छी है कविता .... व्यंग अच्छा उभर के आया है इस में ....
हाथ जोड़कर भीख माँगते, चुनावी हज तक होते हैं,
वादे और इरादे इनके, बस कागज़ तक होते हैं
पर देश में कई जगह बहुत ही बदलाव आया है ..और होगा आगे भी..... बस जागरुक होने की जरुरत है सबको और सही प्रर्तिनिधि चुनने की जरुरत है ..!!
......
खाल ओढ़कर घूम रहे जो, परखो आज स्यालों को
.....
बहुत अच्छे राघव जी
ऐसे ही तथाकथित पाखंडियों को धो डालो यथार्थ में भी .... संभवतः बहुत दिनों के बाद तुम्हारे इस तेवर से साक्षात्कार किया तो आनंद आया. पहले तो लगा कि शायद राजीव जी की कविता एक दिन बिलंब से पढ़ रहा हूँ
शुभकामना
कविता के हर पद में एक प्रश्न है जिसका जवाब जानते हुए भी शायद कोई दे नहीं पायेगा.
* विषय कई बार पढ़ा हुआ मगर यह कविता एक दम संतुलित और मजबूत साथ में सीधी -सच्ची है. अच्छी मंचीय कविता.
भ्रस्ठ भेडिये घूम रहे हैं, इसी सफेदी के नीचे
अस्मत लुटते देख रहे, सिरमोर खडे आखें मींचे
सजा आज तक मिल पायी क्या? इन वहशी बिडालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को ।
राघव जी गजब की आग है आपकी कविता में, सादर बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
हाथ जोड़कर भीख माँगते, चुनावी हज तक होते हैं,
वादे और इरादे इनके, बस कागज़ तक होते हैं
खाल ओढ़कर घूम रहे जो, परखो आज स्यालों को
और कहूँ अब आगे क्या मैं, इन सत्ता के दलालों को
raghav ji sateek tippani hai, bahut badhia
भूपेन्द्र जी,
आपकी कविता से नवीनता हमेशा ही गायब रहती है। पुरानी शैली में बातें नई और कालजयी होनी चाहिएँ।
राघव जी,
आपकी कविता एक सच बयां करती है। ऎसी रचनाओं और रचनाकारों की नितांत आवश्यकता है इस देश को।
बधाई स्वीकार करें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
राघव जी,
सत्य के अत्यन्त करीब है आपकी रचना..
कुछ थी कमजोरी अपनी
कुछ उनकी ताकत ज्यादा थी
झूंड बिखर गया उन भेडों का
हर हाल एकता जिनकी वादा थी
बधाई
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