मेलबोर्न (आस्ट्रेलिया) निवासी हरिहर झा हिन्द-युग्म की यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता के सक्रियतम प्रवासी प्रतिभागी हैं। नवम्बर माह में भी इन्होंने प्रतियोगिता में भाग लिया था और १२वाँ स्थान भी बनाया। बहुत कम ही ऐसे मौके रहे हैं जब इनकी कविता हिन्द-युग्म पर न प्रकाशित हुई हो, हिन्द-युग्म इन्हें पाकर खुद को धन्य समझता है।
पुरस्कृत कविता- विक्षिप्त
न मिली थीं माँ की थपकियाँ
और अब खो दी
प्रेमिका की स्मित मुस्कान
तो चल पड़ा वह
आकांक्षा लिये विश्वविजय की
पत्थर सी जड़ आंखों में
एक सपना दबाये
जिसमें मंद झकोंरों से गुजरी किरण-किरण
चंचल नयनों में प्रतिबिम्बित होती
उस मतवाली का
चेहरा उठाये
अधरों की ओट से अधर जोड़ने की प्यास
चुहुल करते ली थी उसने अंगड़ाई
रंगीन छेड़छाड़ और बिखरते मोती
प्रेम का स्पन्दन
पर हृदय को मसोस कर
दबा गया कोमल भाव
अकेलेपन का सताया
जब रिश्तों ने
झूठा नाटक रचाया
तो अलग थलग होकर
बिछाये थे जो अरमान
कुचल डाले उसने
अब तो चमक रही युगल मीनारें गगनचुंबी
जो फैला रही खून से सनी हुई बाहें
डूबा वह शतरंज की क्रीड़ा में
मोहरा बना
जुनून से भरा उसका माथा पकड़ा उंगलियों ने
फूट पड़ा एक दर्दनाक प्रतिशोध
जब बारूद बनी दमित कुंठा
विषमय बनी यौन पिपासा
ज्वाला चिंघाड़ी अन्तर्मन की गहराइयों से
अमंगल ही तो हुआ
हुआ धमाका
गाज गिरी जो मिट्टी को मथकर
राक्षस का उद्गम
लो एक और आतंकवादी पैदा हुआ ।
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰४, ५॰५
औसत अंक- ५॰९५
स्थान- बाइसवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰७५, ६॰८, ६॰४, ५॰९५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰७२५
स्थान- दसवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-विषय की गम्भीरता को उसके आंतरिक अर्थों में पकड़ने में कमी रह गई है। प्रारम्भिक स्तर का का विश्लेषण।
मौलिकता: ४/१॰५ कथ्य: ३/०॰४ शिल्प: ३/२
कुल- ३॰९
स्थान- बारहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
9 कविताप्रेमियों का कहना है :
एक आतंकवादी के बनने के मूल जड़ को पकडा है आपने |
यही आतंकवाद का मूल हल भी है |
सुंदर बधाई
अवनीश तिवारी
''न मिली थीं माँ की थपकियाँ--अब खो दी
प्रेमिका की स्मित मुस्कान----दबा गया कोमल भाव--
--अकेलेपन का सताया--
डूबा वह शतरंज की क्रीड़ा में
मोहरा बना ---फूट पड़ा एक दर्दनाक प्रतिशोध
-गाज गिरी जो मिट्टी को मथकर
राक्षस का उद्गम''
यह कुछ पंक्तियाँ आप की कविता में बहुत ही सशक्त हैं और सारी कविता को अपने कन्धों पर लेकर चल रही हैं-बहुत खूबसूरती से आप ने भावों को कविता का रूप दे दिया है-कैसे भीतर का आक्रोश एक नकारात्मक रूप ले सकता है यह बताने की अच्छी कोशिश की है.किसी भी गंभीर विषय पर लिखना आसान नहीं होता,लेकिन आप ने बहुत हद तक सफल कोशिश की है.
हरिहर जी, मैंने आप की पुरानी कवितायेँभी आज ही हिंद युग्म पर पढीं ,यह आप की अब तक की प्रकाशित रचनाओं में सबसे बेहतर लगी. बधाई स्वीकारिये-
डूबा वह शतरंज की क्रीड़ा में
मोहरा बना
जुनून से भरा उसका माथा पकड़ा उंगलियों ने
फूट पड़ा एक दर्दनाक प्रतिशोध
जब बारूद बनी दमित कुंठा
बहुत सही भाव हैं आपकी इस रचना में हरिहर जी ...
हरिहर जी सोचने को विवश करती आपकी रचना........
हरिहर जी,मुझे आपकी रचना बेहद जंची, आतंकवाद जैसे विषय पर यूं तो बहुत कुछ लिखा सुना जा चुका है पर आपके प्रस्तुति ने मन मोह लिया.
मुझे आज पता चला की आप मेलबोर्न मी हैं,मैं तो चकित रह गया की वहां रह कर भी आपने भारतीय तहजीब को बरकरार रक्खा.
बहुत बहुत शुभकामनाएं.
आलोक सिंह "साहिल"
न मिली थीं माँ की थपकियाँ
और अब खो दी
प्रेमिका की स्मित मुस्कान
तो चल पड़ा वह
आकांक्षा लिये विश्वविजय की
हरिहर जी, आपकी भावों की समझ काबिलेतारीफ़ है।
हरिहर जी आपकी यह कविता कई बार पढी, ११ सितम्बर से एक हताश मन को जोड़कर जो विक्षिप्त स्थिथि बनैयी है आपने वो आपके संवेदनशीलता को बखूबी दर्शाता है
जुनून से भरा उसका माथा पकड़ा उंगलियों ने
फूट पड़ा एक दर्दनाक प्रतिशोध
जब बारूद बनी दमित कुंठा
विषमय बनी यौन पिपासा
ज्वाला चिंघाड़ी अन्तर्मन की गहराइयों से
अमंगल ही तो हुआ
हुआ धमाका
गाज गिरी जो मिट्टी को मथकर
राक्षस का उद्गम
लो एक और आतंकवादी पैदा हुआ ।
"असीम वेदना और पीड़ा सेभरी ये कवीता काबिले तारीफ है "
regards
आप संवेदनशील कवि हैं। बेहतर लेखन
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)