प्रतियोगिता की कविताओं को प्रकाशित करने के क्रम में हम अपने चरण बढ़ा रहे है टॉप २० की ओर। ११वें स्थान की कविता 'सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा' के रचनाकार दिव्य प्रकाश दूबे यदा-कदा हमारी प्रतियोगिता में भाग लेते रहते हैं। सिम्बॉयोसिस, पुणे से एम॰बी॰ए॰ की पढ़ाई कर रहे दिव्य प्रकाश दूबे मूलतः ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश) से हैं और हिन्दी से खास लगाव रखते हैं।
पुरस्कृत कविता- सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
राह रोके हिमशिखर जो पिघल गंगा जल बनेगा
कामनाओं का मरुस्थल , तृप्ति का नंदन बनेगा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
स्वेद की हर बूँद मोती बनाने दो ज़रा
धन्य विप्लव गूँथ कर जयहार तेरा
दीपमालाएँ बनें अब बिजलियाँ ,
मरुत उच्वासों विजय भेरी बजाएं,
भृत्य हो व्यवधान , नित नये गीत गायें
क्या कहाँ आकाश है ,पाताल क्या ?
छोर दोनों के मिलाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
शर पराक्रम और हो संकल्प प्रत्यंचा तुम्हारी
लक्ष्य करते होड़ हों पहले लगे बाजी हमारी,
सारथी सूरज बने और यश ध्वजा,
चाँद तारों को उठाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
बीज नन्हा बट बने फूले फले
दस दिशाएँ चूम मिल नभ के गले
श्रान्त विह्वल पथिक को इसके तले ,
स्वेद माथे का सुखाने दो ज़रा
आज देखे जग मेरी ये कृति अनूठी
गर्व के मेले लगाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
थामने दो ज्वार को पतवार अब
डूब सब मझधार जाने दो ज़रा
लेखनी विधि हाथ से लेकार स्वयँ
रेख माथे पे बनाने दो ज़रा
आज विधि से छीनकर उसके लिए
अमरत्व का वरदान लाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
महक हरसिंगार जाने दो ज़रा
आज मन त्योहार जाने दो ज़रा
होलिका की गोद कल्मष,भावना चुप,न्याय परवश
भक्ति अनहद नाद सी,अविचलित प्रहलाद सी
नियती को धधकते अंगार लाने दो ज़रा।।
वह्नि बन श्रंगार जाने दो ज़रा।।
विगत कुछ भारी रहा है,क्षोभ दुःख तारी रहा है
यातना की कैद से बाहर निकल अब नियती को खिलखिलाने दो ज़रा।।
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰२, ७॰५
औसत अंक- ७॰३५
स्थान- प्रथम
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰५, ७॰५, ८, ७॰३५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰८३७५
स्थान- प्रथम
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-कविता में विगत ही भारी है। समकालीनता का अभाव।
मौलिकता: ४/० कथ्य: ३/२ शिल्प: ३/२
कुल- ४
स्थान- ग्यारहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिव्य प्रकाश जी !
अपने काव्य को ... और भी,
आदित्य सा तपने दो जरा
बहुत बहुत शुभकामना
लेखनी विधि हाथ से लेकार स्वयँ
रेख माथे पे बनाने दो ज़रा
आज विधि से छीनकर उसके लिए
अमरत्व का वरदान लाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
अच्छी है कोशिश आपकी ..!!
विगत कुछ भारी रहा है,क्षोभ दुःख तारी रहा है
यातना की कैद से बाहर निकल अब नियती को खिलखिलाने दो ज़रा।।
-- स्वतंत्रता की कामना करने वाली यह रचना सुंदर है |
बधाई
अवनीश तिवारी
भूले बिसरे शब्दों का अच्छा प्रयोग किया है आपने
साधुवाद
भूले बिसरे शब्दों का अच्छा प्रयोग किया है आपने
साधुवाद
थामने दो ज्वार को पतवार अब
डूब सब मझधार जाने दो ज़रा
लेखनी विधि हाथ से लेकार स्वयँ
रेख माथे पे बनाने दो ज़रा
दिव्य प्रकाश जी, अच्छी रचना है,जैसाकि श्रीकांत जी और रंजू जी ने कहा की thodi और मेहनत की जरुरत थी तो आप उसका ख्याल करेंगे.
शुभकामनाओं समेत
आलोक सिंह "साहिल"
आप सभी का हौसला बढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ,मैं आगे कोशिश करता रहूंगा "कुछ और तपाने की" अपनी लेखनी को !!
हिन्दी की एक और अच्छी रचना पढने को मिली.
कवि के संदेश को पूरी तरह से पाठकों तक पहुँचाने में सफल दिख रही है.
कहीं कहीं हिन्दी के कठिन शब्दों का प्रयोग हुआ है.
मेरे जैसे पढने वालों का २-३ नए शब्दों से परिचय होगा.
'थामने दो ज्वार को पतवार अब
डूब सब मझधार जाने दो ज़रा
लेखनी विधि हाथ से लेकार स्वयँ
रेख माथे पे बनाने दो ज़रा
आज विधि से छीनकर उसके लिए
अमरात्व का वरदान लाने दो ज़रा''
यह पद बहुत पसंद आया.
और
''आकाश -- पाताल---दोनों छोर को मिलने दो ज़रा ''--पंक्ति में अनूठी कल्पना दिखायी दी-
बधाई दिव्य प्रकाश जी !
मेरे विचार में अगर इस गीत थोड़ा व्यवस्थित कर दें तो यह एक बहुत ही अच्छा समूह गान बन सकता है.
धन्यवाद.
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
स्वेद की हर बूँद मोती बनाने दो ज़रा
अच्छा प्रयास.........
जय हो!
क्या बात है बिलकुल पारम्परिक फ़ार्म में हैं। लगता है कविताओं का स्वर्णिम युग लौटाकार ही दम लेंगे। लगे रहे दिव्य भाई।
दुबेजी को बहुत बहुत बधाई।।
हिन्दी मे आपकी अच्छी पकड मालूम होती है,
ऐसी ही पकड मैने कानपुर मे व्यापार-कर विभाग में कार्यरत महानुभाव की देखी थी, आप ने मुझे उनकी याद दिलादी।
"बीज नन्हा बट बने फूले फले
दस दिशाएँ चूम मिल नभ के गले
श्रान्त विह्वल पथिक को इसके तले ,
स्वेद माथे का सुखाने दो ज़रा
आज देखे जग मेरी ये कृति अनूठी,,,,,,,,"
ये पंक्तिया आपके मन की सुन्दर भावना बडी सुगमता से परिलक्षित करती है।
मेरी शुभकामनाऐ आपके साथ हैं, इसी प्रकार अच्छी कवितायें लिखते रहें।।
विलक्षण शब्द-शैली का प्रयोग उत्कृष्ट बन पड़ा है।
राह रोके हिमशिखर जो पिघल गंगा जल बनेगा
कामनाओं का मरुस्थल , तृप्ति का नंदन बनेगा..
बधाई।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)