अथाह जलधि
देख रही हूँ --
‘गीली रेत’
प्रत्यक्ष साक्षी है
उस तूफान का
जो अभी-अभी
होकर गुज़रा है
उसका कण-कण
स्नेहासिक्त हो गया है
उन्माद भरी
सैंकड़ों स्मृतियाँ
उसे घेरे हैं
और वह बही जा रही है
अभी तक --
उन्हीं लहरों में
पगली है--
लहरों को बाँधना
चाहती है
समुद्र को समेटना
चाहती है
नहीं जानती
ये सब क्षण भंगुर है
इसे कभी रोक
नहीं पाएगी
मोहान्ध होगी
और खुद ही
दुःख पाएगी
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
शोभा जी !
‘गीली रेत’
......
उसका कण-कण
स्नेहासिक्त हो गया है
.... स्मृतियाँ
उसे घेरे हैं
और वह बही जा रही है
......
पगली है--
लहरों को बाँधना
चाहती है
....
नहीं जानती
ये सब क्षण भंगुर है
इसे कभी रोक
नहीं पाएगी
मोहान्ध होगी
और खुद ही
दुःख पाएगी
आपकी रचनाओं की अपनी शैली और अद्भुत भाव साधारण से साधारण विषय में से अद्भुत प्रतिबिम्ब खोज लेना ही आपकी विशेषता है
ये सब क्षण भंगुर है
इसे कभी रोक
नहीं पाएगी
मोहान्ध होगी
और खुद ही
दुःख पाएगी
सुंदर भाव हैं आपकी इस रचना के शोभा जी ., बाँधने के दुःख ही मिलेगा यह सब जानते हैं ,पर फ़िर भी इस का मोह कब छोड़ पाते हैं ..बहुत सुंदर लगी आपकी यह कविता और इस से जुड़े भाव !!
ये सब क्षण भंगुर है
इसे कभी रोक
नहीं पाएगी
मोहान्ध होगी
और खुद ही
दुःख पाएगी
-- बहुत गहरा भाव बनाया है |
सुंदर
बधाई
अवनीश तिवारी
शोभा जी, कमाल की रचना करती हैं, इतने सरल शब्दों से भी अजीब सा तेज पैदा कर देती हैं,
आपकी खूबसूरत काव्य सफर का एक और अनूठा पडाव
बहुत बहुत बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
शोभा जी,
आप की कविता में शब्दों का चयन और उसका गठन कवि के भावों का बखूबी चित्रित कर रहा है.
'समुद्र को समेटना
चाहती है
नहीं जानती
ये सब क्षण भंगुर है'
ऐसा लगता है इन पंक्तियों में पूरी कविता ही सिमट आयी है.
साथ दिया गया चित्र भी कविता के साथ न्याय कर रहा है.
सरल और सुंदर रचना के लिए बधाई.
बहुत खूब शोभा जी.......... जीवन की क्षणभंगुरता को कितने प्रभावी ढंग से व्यक्त किया।
प्रकृति के मानवीकरण की शृंखला बननी शुरू हो गई है हिन्द-युग्म पर। पहले मोहिन्दर जी, फ़िर शिवानी जी और अब आप।
स्थापित दर्शनों का पुनरुक्तिकरण भी दृष्टतव्य है।
शोभा जी,
यथार्थबोध कराती हुई रचना के लिए बधाई।
बहुत अच्छी रचना है शोभा जी, हर पंक्ति श्लिष्ठ और सटीक...
*** राजीव रंजन प्रसाद
शोभा जी देरी के लिए माफ़ी चाहूँगा रचना तो पहले ही पढ़ और सराह चुका था ,,,हा हा हा
लहरों के खेल में रेत तो होना ही है। बहुत अच्छा कैनवास।
शोभा जी,
बेचारी रेत तो यह भी नहीं जानती कि उसे सागर स्वंय से अलग करने के लिये ही तो किनारे पर पटक देता है.. वह तो खुद भी जुडाव में विश्वास नहीं रखती... बिखराव ही उसका स्वभाव है... हवा में उडना और पानी में बहना या हथेली से फ़िसलना उसे अधिक भाता है... फ़िर वह सागर को कैसे बांधेगी... (मेरी फ़िलोसफ़ी)
आपकी कविता बहुत सुन्दर भाव भरी है..
उसका कण-कण
स्नेहासिक्त हो गया है
उन्माद भरी
सैंकड़ों स्मृतियाँ
उसे घेरे हैं
और वह बही जा रही है
अभी तक --
उन्हीं लहरों में
पगली है--
लहरों को बाँधना
चाहती है
सुन्दर चित्रण
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