६वें पायदान के कवि आनंद गुप्ता ने एक बार पहले भी यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग लिया था और टॉप १० में स्थान भी बनाया था। आज अपनी कविता 'संघर्ष को सहज स्वीकार करो' से पुनः आपका दिल जीतने आये हैं।

संपर्क-
ए-303, गौरव अधिकारी अपार्टमेंट,
सी-58/06,
सेक्टर 62
नोयडा (उत्तर प्रदेश)-201301
पुरस्कृत कविता- संघर्ष को सहज स्वीकार करो
ना कभी अपने धीर का प्रतिकार करो
हो निडर संघर्ष को, सहज स्वीकार करो
पथ कंटक बड़ा, सैकड़ों हैं झँझावात
करने को स्वागत खड़े, जाने कितने ही आघात
पर लक्ष्य से ना अडिग हो, निडर डटे रहो
हिम्मत हो अगर तो, है काँटों की क्या बिसात
पंख लगा लो उमंग का, उत्साह का संचार करो
हो निडर संघर्ष को, सहज स्वीकार करो
रहे लगन, संकल्प पक्का, हौसला खोने ना पाए
ना देखो उस ओर तुम, हैं जहाँ मायूसियों के साए
बना के साधना इस जीवन को, मानव हित में
करो सूर्योदय जहाँ ग़म के, बादल हैं छाये
बना हृदय अपना विशाल, आशा का विस्तार करो
हो निडर संघर्ष को, सहज स्वीकार करो.
हो सृष्टि के सबसे प्रखर प्राणी, तुम इंसान हो
पहचानो तो स्वयं को, क्षमताओं की ख़ान हो
उठाओ आनंद प्रकृति के आतिथ्य का, ना भूलो
कि तुम इस संसार में, आए बन के मेहमान हो
हो हो के हताश, ना इस जीवन को बेकार करो
हो निडर संघर्ष को, सहज स्वीकार करो.
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰२, ६॰५
औसत अंक- ६॰८५
स्थान- दूसरा
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰७५, ७॰०५, ५॰७, ६॰८५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰५८७५
स्थान- चौदहवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-उपदेशात्मकता और बासीपन
मौलिकता: ४/१ कथ्य: ३/२ शिल्प: ३/२
कुल- ५
स्थान- सातवाँ
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
रचना प्रेरणा प्रदान करती है और संघर्ष को सहज स्वीकारने की बात करती है। रचना में लयात्मकता ऐसी है जैसे विद्यालयों में समूह गीत होते हैं, विचार भी उसी शैली में पिरोये गये हैं।
कला पक्ष: ६/१०
भाव पक्ष: ६/१०
कुल योग: १२/२०
पुरस्कार- प्रो॰ अरविन्द चतुर्वेदी की काव्य-पुस्तक 'नक़ाबों के शहर में' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपकी रचना पद्ठने के बाद कवि बचान की रचना - " कोशिश कराने वाले की हार नही होती ", याद आ गयी |
इस रचना के लिए बधाई |
अवनीश तिवारी
आपकी रचना पढ़ने के बाद कवि बच्चन की रचना - " कोशिश कराने वाले की हार नही होती ", याद आ गयी |
इस रचना के लिए बधाई |
अवनीश तिवारी
आनंद जी !
पथ कंटक बड़ा, सैकड़ों हैं झँझावात
करने को स्वागत खड़े, जाने कितने ही आघात
पर लक्ष्य से ना अडिग हो, निडर डटे रहो
हिम्मत हो अगर तो, है काँटों की क्या बिसात
मीरानपुर कटरा के पास ही अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की मिट्टी से आई यह सुगंध संदेश सी रचना मेरे कटरा और तिलहर के दिनों की याद भी ले आई है
बहुत ही सुंदर भाव और ओज से परिपूर्ण कविता यह सिलसिला आगे भी चलता रहे यही शुभकामना
हो सृष्टि के सबसे प्रखर प्राणी, तुम इंसान हो
पहचानो तो स्वयं को, क्षमताओं की ख़ान हो
उठाओ आनंद प्रकृति के आतिथ्य का, ना भूलो
कि तुम इस संसार में, आए बन के मेहमान हो
बहुत ही आशावान और सुन्दर रचना।
पथ कंटक बड़ा, सैकड़ों हैं झँझावात
करने को स्वागत खड़े, जाने कितने ही आघात
पर लक्ष्य से ना अडिग हो, निडर डटे रहो
हिम्मत हो अगर तो, है काँटों की क्या बिसात
पंख लगा लो उमंग का, उत्साह का संचार करो
हो निडर संघर्ष को, सहज स्वीकार करो
बहुत अच्छा लिखा है आपने .... बधाई
उपदेश किसी को पसन्द नहीं आते क्योंकि सबको पता है कि जीतने के लिए क्या करना होता है...बस उसे करना ही तो मुश्किल है।
आप या तो नया रस्ता बताएँ या नए तरीके से बताएँ।
हो सृष्टि के सबसे प्रखर प्राणी, तुम इंसान हो
पहचानो तो स्वयं को, क्षमताओं की ख़ान हो
उठाओ आनंद प्रकृति के आतिथ्य का, ना भूलो
कि तुम इस संसार में, आए बन के मेहमान हो
आनंद जी,प्रतियोगिता में स्थान बनने के लिए बधाई.
सोलंकी जी बहुत अच्छे कवि हैं,अगर इन्हें कुछ खटका टू निश्चय ही कुछ खटकने वाली बात ही होगी.आप उनसे सम्पर्क कर अपने कला मे सुधार पा सकते हैं.
खैर, मुझे कविता पसंद आई,एक युवा से ऐसी उम्मीद की जा सकती है.
ढेरों बधाईयाँ
अलोक सिंह "साहिल"
हो सृष्टि के सबसे प्रखर प्राणी, तुम इंसान हो
पहचानो तो स्वयं को, क्षमताओं की ख़ान हो
उठाओ आनंद प्रकृति के आतिथ्य का, ना भूलो
कि तुम इस संसार में, आए बन के मेहमान हो
ये पंक्तियाँ अच्छी लगीं .
इस विषय पर ढेरों कवितायें पढ़ चुके हैं शायद इसलिए ज्यादा कुछ कहने को नहीं मिल रहा.
सोलंकी जी की बात कुछ हद तक सही है लेकिन मेरा मानना है इस युवा कवि ने अपने अंदाज़ में कविता पेश की है.उन्हें बस थोड़ा मार्गदर्शन चाहिये.
आनंद जी , पढ़ते रहीये -लिखते रहीये-पढ़वाते रहीये-यहाँ आप को बहुत सिखने को मिलेगा.शुभकामना
धन्यवाद -अल्पना वर्मा
आनंद गुप्ता जी
१) आप अपनी कविता से बहुत अच्छा सन्देश देते है सरल शब्दों मै ..
२)ये पंक्तिया बहुत अच्छी लगी
"रहे लगन, संकल्प पक्का, हौसला खोने ना पाए
ना देखो उस ओर तुम, हैं जहाँ मायूसियों के साए
बना के साधना इस जीवन को, मानव हित में
करो सूर्योदय जहाँ ग़म के, बादल हैं छाये"
३)आपकी भाषा उपदेशात्मक है.. पर मुझे यू महसूस हुआ.. ये भाषा... मैथली शरण गुप्त की कविताओ पर ज्यादा सही बैठती है, क्यों की उस समय पाठक इसे सही रूप मै लेते थी..और अब पाठक कई बार उपदेशों को
सही नहीं समझते अतः अपनी वही बातों को कहने के लिए शैली मै अगर थोडा बदलाव हो तो बहुत खूबसूरत रहेगा.
बधाई
सादर
शैलेश
आपकी यह कविता विद्यालयों में प्रार्थना के समय पढ़ी जाने वाली लगी। शिल्प भी कसा हुआ नहीं है। आप सामयिक लिखने की कोशिश करें।
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