1
पीर के बखान पर मिले
सारे तमगे,सारी जीतें
संजों रखीं हैं
ड्राइंगरूम में
पर ये सब
कुछ भी नही..
उस एक हार के सामने!
2
उसकी यादों के आँसू
पल रहे है
इन आँखों में
किसी नाजायज़ बच्चे की तरह!
छिपाता फिरता हूँ सबसे
वो बदनाम होगी!
3
बारह महीनों की बरसात
झेलता है
पर खड़ा है..
यादों का खंडहर!
नक़ली मुस्कुराहटो की काई ने
ढांप लिया है अब
जर्जर दीवारों को !
4
कल मैं रोया तो चाँद ख़ूब हँसा
ख़ूब चिढ़ाया मुझे..
उसे पता चल गया था
चेहरे पर ना सही,
दिल पर बहुत से दाग हैं!
5
ज़र्रा-ज़र्रा कर दिया दिल
बेरहम ने
और फेंक दिया
चौराहे पर
यूँ तो लोग कचरा भी
कचरा पेटी में डाला करते हैं!
6
कल फिर से पैर पड़ा
केले के छिल्के पर..
पर इस बार
मैं नहीं फिसला!
शायद उसे भी,
फेंक दिया होगा किसी ने
उतारकर..
मेरी ही तरह!
7
बहुत पहले
उनकी किसी किताब में
मिला था मुझे
एक गुलाब
दबा सा,मुरझाया सा!
मैं पागल..
फिर भी नहीं समझ पाया
उसकी फ़ितरत!
8
कल शायद
उसके अश्कों में तेज़ाब था
जहाँ भी गिरे
छाले पड़ गये!
माँ पूछ रही थी
बेटा..
ये जले के निशान कैसे हैं?
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
कमाल विपुल साहब, कमाल. न जाने क्या सोच कर मुस्कुरा रहा था आप की क्षणिकाएँ पढ़ते पढ़ते. हालांकि बाज़ दफ़ा मुस्कराहट गायब भी हो जाती थी. बहरहाल, कमाल.
विपुल भाई!
क्या कहुँ आपकी तारीफ़ में, आज पता चला मेरे पास बहुत कम शब्द हैं।
वाह! क्या बात है,आपकी कलम कहीं मिल जाती तो चुरा लेता।
विपुल जी,
आपकी पिछली रचना पर हुई नकारात्मक टिप्पणी को आपने अच्छे अर्थो में लिया यही कारण है कि इतनी अच्छी क्षणिकायें पढ़ने को मिल रही है।
बहुत ही अच्छी रचना है।
कल मैं रोया तो चाँद ख़ूब हँसा
ख़ूब चिढ़ाया मुझे..
उसे पता चल गया था
चेहरे पर ना सही,
दिल पर बहुत से दाग हैं!
बहुत बढ़िया
विपुल जी मुझे आपकी सभी क्षणिकाएँ बहुत पसंद आई क्यों की
१) सभी बहुत आसानी से समझी जा सकटी है
२) बहुत सरल शब्दों का प्रयोग किया है
३) परिकल्पना हर क्षणिका मै नयी और खूबसूरत है
४) आपकी भी हर क्षणिका मै उदासी है.. पर पढ़ कर यू लगा की कवी को हर भाव को शब्दों मै ढालना चाहिए
५) व्याकरण का भी ध्यान रख है मसलन ! , का उचित प्रयोग किया है
६) ये पंकित्य बहुत अच्छी लगी
"बारह महीनों की बरसात
झेलता है
पर खड़ा है..
यादों का खंडहर!
नक़ली मुस्कुराहटो की काई ने
ढांप लिया है अब
जर्जर दीवारों को !"
कृपया इस बेहतरीन काम को जारी रखें
बधाई
सादर
शैलेश
विपुल जी आप की क्षणिकाएँ पढीं.अच्छी लगीं-क्या अच्छा होता आप अगर इन्हें शीर्षक भी देते-
कोई बात नहीं मैं नम्बर से इन के बारे में अपनी राय लिख रही हूँ-
१-अच्छी लगी.
कवि के दुःख को आपने किसी भी उपलब्धि से बड़ा बता दिया है-लेकिन ऐसा क्यों हुआ??
२-अच्छी तुलना की है-
और शायद यही एक सच्चा प्रेमी करता है.
३-इस क्षणिका में आपने बहुत बढिया कल्पना की है-पसंद आयी-
४- चाँद को अपने दिल के दागों का गवाह बना डाला आपने यहाँ--बहुत खूब! -
५-एक टूटे दिल की दास्ताँ कम शब्दों में- अच्छा प्रयास है--लेकिन साधारण सी लगी-
६-अच्छी रचना है--बहुत निराशा और उदासी है आप की रचना में .
७-बहुत खूब कहा आपने और बहुत कहा----वाह ! वाह!
८-यह मुझे सब से अच्छी लगी-कितनी विवशता रही होगी कवि मन में जब ऐसा सवाल पूछा गया होगा ?बहुत सुंदर-
बधाई -
धन्यवाद---
अल्पना वर्मा
विपुल
बहुत ही प्रभावी लिखा है .
उसकी यादों के आँसू
पल रहे है
इन आँखों में
किसी नाजायज़ बच्चे की तरह!
छिपाता फिरता हूँ सबसे
वो बदनाम होगी!
इस विधा में पारंगत लगते हो . बधाई .
विपुल जी बहुत ही आला दर्जे की सराहनीय क्षणिकाएँ
मजा आ गया
अलोक सिंह "साहिल"
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद |
शोभा जी मैने पहली बार क्षणिकायें लिखी हैं तो पारंगत होने का तो सवाल ही नहीं!हाँ इसके पहले एक बार त्रिवेणियों मे प्रयास ज़रूर किया था
पर अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा था|इस बार डरते-डरते क्षणिकायें भेजीं और आप लोगों से जो प्रोत्साहन मिला.. बड़ा अच्छा लगा|
अल्पना जी,आपका कहना सही है कि मैने शीर्षक क्यों नही डाला? इसके पीछे मेरी यह सोच थी कि ऊपर शीर्षक लिख देने से हम उस एक शब्द के आस-पास ही घूमते रहते हैं और हो सकता है कि कई छुपे हुए पहलुओ पर ध्यान ना दे पाएँ|ऐसा सोच कर मैने शीर्षक नहीं डाला.. ख़ैर.. आपके स्नेह के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..|
बहुत सुंदर लिखा है आपने विपुल ..सब अच्छी लगी पर यह बहुत पसंद आई ..
कल मैं रोया तो चाँद ख़ूब हँसा
ख़ूब चिढ़ाया मुझे..
उसे पता चल गया था
चेहरे पर ना सही,
दिल पर बहुत से दाग हैं!
बारह महीनों की बरसात
झेलता है
पर खड़ा है..
यादों का खंडहर!
नक़ली मुस्कुराहटो की काई ने
ढांप लिया है अब
जर्जर दीवारों को !
बाकी तो सब ऊपर बहुत अच्छे से कही जा चुकी है :)बहुत बहुत बधाई आपको
विपुल भाई निरन्तर अच्छी कविताये मिल रही है आपके कलम से..और क्षणिकाएँ में तो आपने कमल ही कर दिया है...
सब सुन्दर है
पीर के बखान पर मिले
सारे तमगे,सारी जीतें
संजों रखीं हैं
ड्राइंगरूम में
पर ये सब
कुछ भी नही..
उस एक हार के सामने!
इस ने कमल ही कर दिया है....स्नेह सहित
विपुल जी,
इस खूबसूरत रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई .........
आपकी हर एक क्षणिका ने मात्र कुछ ही पंक्तियों में बहुत कुछ कह दीया.......
बहुत बहुत शुभकामनाएं ..........
नेहा........
नहीं विपुल भाई और मेहनत कीजिये वर्ना तमाम क्षणिकाओं के बीच में आपकी क्षणिकाएं खो जाएंगी.
नए विषय देखिये शायद बात बने..
विपुल जी,
सभी क्षणिकायें पसन्द आई...आती भी क्यों न..दिल से सीधी निकली हैं..
वधाई
विपुल हर क्षणिका कमाल की है, तुम्हारा अंदाज़ सब में बखूबी झलकता है , तुम्हारी वापसी तो धमाकेदार रही, ऐसी प्रेमेन्द्र जी से उम्मीद है अब
मैं अवनीश जी से सहमत हूँ। आपकी क्षणिकाएँ हिन्द-युग्म की क्षणिकाओं के मध्य गुम हो सकती हैं, क्योंकि सभी क्षणिकाएँ अच्छी तो हैं, लेकिन इनके विषय अनूठे नहीं हैं। जिस प्रकार आप अपनी अन्य कविताओं में सामान्य कवियों की तरह न लिखकर बुधिया के माध्यम से सामाजिक विडम्बनाओं को उठाते हैं, उसी तरह क्षणिकाओं को भी गम्भीर बनाइए।
मैं भी अवनीश जी और शैलेश जी से सहमत हूँ। आपकी क्षणिकाएँ दिल को छू लेने वाली हैं, लेकिन विषय में नयापन नहीं है। कोई भी क्षणिका चौंकाती नहीं है, जबकि यही तत्व क्षणिका की जान होता है।
vipul,
mujhe tumhari kshanikaein behad pasand aayin .abhi ghar par hoon isliye jyada tippani nahi kar sakta. aakar baat karoonga.
-vishwa deepak 'tanha'
विपुलजी सभी लाजबाब है.......
एक सूक्ष्म अंगार में इतनी आग,
कभी-कभी मुझे आशचर्य में डाल देती है
एक छोटा-सा झरोखा मानो महल कि सारी कहानी कह रहा हो......
भाई कमाल है....... बहुत-२ बधाईयाँ _ नितिन
गजब विपुल कमाल का लिखा है लगता है बहुत चोट खाए हुए हो तुम भी क्युनके जीवन भर की कचोट देती है क्षदिकाए.
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