सुबह ट्रक ने टक्कर मार दी
सिर पर गहरी चोट लगी है,
किसी समाज़ सेवी ने दया की
अम्मा अस्पताल में पड़ी है !
डाक्टर बोला,
ए लड़की..
तेरी माँ को ब्रेन हेमरेज हो गया है
अब हमेशा ही बिस्तर पर रहेगी,
अस्पताल ही घर बन गया है |
हर दिन हज़ार का ख़र्चा है
जुगाड़ कर पाएगी?
वरना ले जा इसे,
कल की मरने वाली
आज मर जाएगी!
माँ मर जाएगी..!
मुझे खिलाकर,
ख़ुद भूखे पेट सोने वाली
हमेशा को सो जाएगी?
माँ ही तो है जो बताती है
भूख लगे तो
पेट पर
गीला कपड़ा बाँध कर सो जाते हैं!
फटे हुए कपड़ों से,
कैसे पूरा तन छिपाते हैं!
माँ मर जाएगी..?
अम्मा ने हमेशा खिलाया,
पर आज
उसकी ज़िंदगी नहीं ख़रीद पाऊँगी
काली हूँ और बदसूरत भी
ख़ुद को बेचूंगी,
तो भी हज़ार नही पाऊँगी !
बुधिया..
खड़ी है मेडिकल स्टोर के बाहर
आस में..
कहीं भगवान को ज़ुकाम हो जाए,
वो दवा लेने आएँ
तो कुछ पैसे मुझे भी दे जाएँ!
नहीं!
वो क्यों देगा पैसे?
उसी ने तो यह सब करवाया है!
लगता है उसकी माँ नही है,
माँ का प्यार..
उसने नहीं पाया है !
तूने कभी कुछ नही दिया
ना बाप का नाम,
ना इज़्ज़त ना सम्मान,
ना अम्मा की एक मुस्कान,
ना ही सुख की कोई शाम!
तुझसे रहम की उम्मीद नहीं,
बस एक ज़ुल्म और कर दे!
फिर कभी कुछ ना माँगूँगी
बस एक बार झोली भर दे |
अभागी हूँ
जो ऐसी भीख मांगती हूँ,
दिल पर पत्थर रख के
यह मन्नत मानती हूँ!
सच..
तू पत्थर नहीं है
यह मान जाऊंगी
मुझे जितने जल्दी अनाथ करेगा
तेरे मंदिर में,
उतने नारियल चढ़ाऊंगी !
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
budhia ka swar is baar kuch sahma sahma laga, ho sakta hai budhia bhi samay ke saath saath badal rahi ho
वेदनामयी कविता....
लेकिन एक कमी- कहीं कहीं कविता बहुत अधिक गद्यात्मक हो जाती है।
बुधिया का दर्द फ़िर दिखा इस रचना में ...और इसका अंत दिल को छू को गया !!
बहुत बहुत शुभकामना के साथ
रंजू
पिछली बुधिया से थोड़ी ढीली पड़ी है ॥ पर फ़िर भी बहुत प्रभावी है ।
"मुझे जितने (जितनी) जल्दी अनाथ करेगा
तेरे मंदिर में,
उतने नारियल चढ़ाऊंगी !"
यह मर्म पूरी कविता में दिखता तो क्या बात थी !!
मुझे जितने (जितनी) जल्दी अनाथ करेगा
तेरे मंदिर में,
उतने नारियल चढ़ाऊंगी !"
अंत ......दिल को छू को गया ...
कविता उत्तरार्ध की ओर प्रभावी होती गयी है, शुरुआत में थोड़ी कमजोर है।
मुझे जितने जल्दी अनाथ करेगा
तेरे मंदिर में,
उतने नारियल चढ़ाऊंगी !
मार्मिक प्रस्तुति।
विपुल जी,
सुन्दर लिखा है आपने.. इस दर्द को झेलने वालों की कमी नहीं इस संसार में...
भगवान को ज़ुकाम वाली बात अच्छी लगी.
बुधिया..
खड़ी है मेडिकल स्टोर के बाहर
आस में..
कहीं भगवान को ज़ुकाम हो जाए,
वो दवा लेने आएँ
तो कुछ पैसे मुझे भी दे जाएँ!
बहुत बढिया प्रयास कर रहे हो , विपुल तुम। एक हीं विषय पर इतने तरीके से लिखना आसान नहीं होता। लेकिन तुम कभी भी इसे कमजोर नहीं होने देते। इसके लिए तुम बधाई के पात्र हो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
विपुल जी
आपका चरित्र "बुधिया" आपकी पहचान बनता जा रहा है और उसे ले कर जितनी मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचनायें आपने लिखी हैं वे सभी प्रसंशनीय है| इस कविता में बहुत कुछ एसा है जो कि आपके भीतर के संवेदनशील कवि को प्रस्तुत करता है, किंतु कुछ स्थानों पर प्रवाह नें प्रभाव कम भी कियी है|संपूर्णता में बहुत सशक्त प्रस्तुति|
*** राजीव रंजन प्रसाद
बुधिया..
खड़ी है मेडिकल स्टोर के बाहर
आस में..
कहीं भगवान को ज़ुकाम हो जाए,
वो दवा लेने आएँ
तो कुछ पैसे मुझे भी दे जाएँ!
वाह! मन से आह निकलती है।
विपुल जी,
आपका शिल्प बहुत कमज़ोर है। शिल्प कविता का बाह्य सौन्दर्य है। कभी-कभी तुक का आपको इतना मोह होता है कि भाव को कमज़ोर बना देते हैं (पहली ४ पंक्तियाँ)।
और उससे बाद कविता कहानी हो जाती है॰॰॰॰॰॰ मैं इसे बहुत अधिक बढ़िया कविता नहीं कहूँगा।
विपुल जी!!
बुधिया के मर्म को आपने बहुत ही अच्छे से प्रस्तूत किया है...
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कहीं भगवान को ज़ुकाम हो जाए,
वो दवा लेने आएँ
तो कुछ पैसे मुझे भी दे जाएँ!
नहीं!
वो क्यों देगा पैसे?
उसी ने तो यह सब करवाया है!
लगता है उसकी माँ नही है,
माँ का प्यार..
उसने नहीं पाया है !
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-------बहुत बधिया लिखा है....
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