..मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ॥
कुछ शब्द हाँफते चले आ रहे हैं
..हाँफते शब्द मेरे ही हैं शायद॥
ऐसा क्यों होता है कि,
मैं आंखें मूंदता हूँ जब भी॥
अतीत गड़ता है आंखों में...
जैसे आईने के पेड़ उगते हों
मेरी आंखों में, सपनों की जगह...
मेरे शब्दों ने चुपके से एक टुकडा उठाया है आईने का.....
और उनकी हथेली लहूलुहान हो गयी है...
मेरे शब्द भाग रहे हैं॥
उनके तलवे छिल रहे हैं !!
पूरी ज़मीन पर टुकड़े-टुकड़े हो कर गिरे हैं अतीत के हिस्से...
शब्द हाँफते हैं
क्यूंकि उन्हें डर है
ये हिस्सों में बँटा अतीत
लहूलुहान न कर डाले वर्तमान को....
शब्द हाँफते हैं
क्यूंकि उन्हें पता है.......
लहूलुहान वर्तमान का भविष्य कैसा होगा....
निखिल आनंद गिरि
+919868062333
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
..मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ॥
कुछ शब्द हाँफते चले आ रहे हैं
..हाँफते शब्द मेरे ही हैं शायद॥
मार्मिक 'मैं'...
प्रभावित करने वाली कविता।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, स्पर्श करने वाली कविता
बहुत खूब निखिल ...
मेरे शब्दों ने चुपके से एक टुकडा उठाया है आईने का.....
और उनकी हथेली लहूलुहान हो गयी है...
बात है इस रचना में ...सुंदर अभिव्यक्ति
निखिल अच्छी रचना है ! बहुत अच्छे !!
कुछ बात है कि कविता पढ़ते रहे तुम्हारी
यूं ही नही comments बरसे पोस्ट पे तुम्हारी."
शब्द हाँफते हैं
क्यूंकि उन्हें पता है.......
लहूलुहान वर्तमान का भविष्य कैसा होगा....
अच्छा लिखा है निखिल ।
सुंदर रचना है निखील जी,
बधाई.
अवनीश तिवारी
निखिल जी,
सुंदर रचना ....
मार्मिक अभिव्यक्ति
बधाई.
निखिल जी,
अच्छी रचना के लिए बधाई।
अतीत गड़ता है आंखों में...
जैसे आईने के पेड़ उगते हों
मेरी आंखों में, सपनों की जगह...
सुन्दर प्रयोग है।
निखिल जी,
सुन्दर लिखा है.. शायद आपने अतीत को ही शब्द कहा है..
"जैसे आईने के पेड़ उगते हों"
मेरे विचार से उपरोक्त पंक्ति में आईने की जगह यदि कांच शब्द प्रयुक्त होता तो अधिक उपयुक्त रहता..
बधाई
अतीत गड़ता है आंखों में...
जैसे आईने के पेड़ उगते हों
मेरी आंखों में, सपनों की जगह...
मेरे शब्दों ने चुपके से एक टुकडा उठाया है आईने का.....
और उनकी हथेली लहूलुहान हो गयी है...
टुकड़े-टुकड़े हो कर गिरे हैं अतीत के हिस्से...
लहूलुहान न कर डाले वर्तमान को....
शब्द हाँफते हैं
क्यूंकि उन्हें पता है.......
लहूलुहान वर्तमान का भविष्य कैसा होगा....
क्या कहूँ निखिल जी,
मैं अवाक-सा पडा हूँ आपकी रचना पढकर । हर भाव को आपने बड़ी हीं खूबसूरती से गढा है। हृदय बाग-बाग हो गया।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
निखिल जी,
कुछ शब्द हाँफते चले आ रहे हैं
..हाँफते शब्द मेरे ही हैं शायद॥
मेरे शब्दों ने चुपके से एक टुकडा उठाया है आईने का.....
और उनकी हथेली लहूलुहान हो गयी है...
मेरे शब्द भाग रहे हैं॥
उनके तलवे छिल रहे हैं !!
पूरी ज़मीन पर टुकड़े-टुकड़े हो कर गिरे हैं अतीत के हिस्से...
शब्द हाँफते हैं
क्यूंकि उन्हें पता है.......
लहूलुहान वर्तमान का भविष्य कैसा होगा....
बेहतरीन रचना, बहुत बधाई|
*** राजीव रंजन प्रसाद
कौन हांफता है? शब्द, हाथ या फिर 'मैं'!
बहुत खूब।
शब्द अतीत से भाग नहीं सकते निखिल जी उन्हें मज़बूत बनना होगा.
हर ज़मीर वाले के साथ ऐसा ही होता है। आप भूत, वर्तमान और भविष्य की समीक्षा करने लगे हैं, आगे आफ हिन्दी जगत को सच्चा साहित्य देंगे।
""मेरे शब्दों ने चुपके से एक टुकडा उठाया है आईने का.....
और उनकी हथेली लहूलुहान हो गयी है...
........बहुत अच्छी लगी...
मेरे शब्द भाग रहे हैं॥
उनके तलवे छिल रहे हैं !!
पूरी ज़मीन पर टुकड़े-टुकड़े हो कर गिरे हैं अतीत के हिस्से...
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आपने एक शब्द..""शब्द"" को लेके "मैं" के अन्तिम भाग को और भी खुब्शूरत बना दिया है...
बधाई!!!
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