हे मानव
अपने अंह से मुग्ध
अपनी विराटता का आंकलन
कब तक
वह भी बिना
किसी उचित माप-दण्ड के
मानव से मानव की तुलना
नीचे देख... प्रसन्नता
उपर देख... ग्लानि
किस कारण
कितनी सार्थक
अर्थ, सत्ता, अधिकार
जो भी
आज संग्रहित है
क्या समान धरातल पर
खडे हो कर
स्पर्धात्मक परिस्थियों
में अर्जित हैं
क्या यही सही कद है
यदि मापना है स्वयं को
तो जान ले
एक सुक्ष्म रजकण
भर है अस्तित्व तेरा
कोई पर्वत शिखर
कोई पाताल खड्ड
स्वय़ को सबसे ऊंचा
सबसे गहरा माने
तो यह उसकी भूल है
आदि अनंत से परे
ब्रह्मांड में कोटि कोटि
आकाश-गंगाओं के मध्य
सहस्त्रो सूर्यों (तारों)
ग्रहों, उपग्रहों
की तुलना में पृथ्वी
स्वंय एक बिन्दू मात्र है
यदि इस पर स्थापित
कोई पर्वत स्वंय को
वृहद समझे
आकाश की विशालता को नकारे
तब उसे क्या कहें
यही माप-दण्ड है
स्वयं के कद नापने का
जो ये जान गया
वही सब से ऊंचा
वही सब से गहरा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
11 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी,
वह भी बिना
किसी उचित माप-दण्ड के
मानव से मानव की तुलना
नीचे देख... प्रसन्नता
उपर देख... ग्लानि
कोई पर्वत स्वंय को
वृहद समझे
आकाश की विशालता को नकारे
तब उसे क्या कहें
यही माप-दण्ड है
स्वयं को बडा समझने की प्रवृति का दर्शन आपने सार्थकता से समझाया है।आपकी अंतिम पंक्तियों से पूर्णत: सहमत हूँ कि :
जो ये जान गया
वही सब से ऊंचा
वही सब से गहरा
*** राजीव रंजन प्रसाद
बाबा!! प्रवचन देना शुरू कर दें.
" मानव
अपने अंह से मुग्ध
अपनी विराटता का आंकलन
कब तक
वह भी बिना
किसी उचित माप-दण्ड के"
"यदि मापना है स्वयं को
तो जान ले
एक सुक्ष्म रजकण
भर है अस्तित्व तेरा"
मोहिन्दर जी एक बार फिर गम्भीर, सारगर्भित और परिपक्व रचना के लिये बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
मोहिन्दरजी,
कोई पर्वत स्वंय को
वृहद समझे
आकाश की विशालता को नकारे
तब उसे क्या कहें
सही! आजकल "स्वयं को बड़ा समझना" इंसान का स्वभाव बन चुका है, आपने एक सार्थक प्रयास किया है, बधाई स्वीकार करें!!!
यही माप-दण्ड है
स्वयं के कद नापने का
जो ये जान गया
वही सब से ऊंचा
वही सब से गहरा
बड़ी हीं गूढ बात की है आपने मोहिन्दर जी। जो इंसान अहंकार में चूर होता है, वह अपनी हीं आत्मा से हारा हुआ होता है। इसलिए वो बड़ा नहीं हो सकता। जो इंसान इस सच को जान गया , वही सबसे बड़ा है।
जिंदगी का सार बताने के लिए धन्यवाद और बधाई।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
वाह मोहिंदर जी ...बहुत गहरी बात लिख दी आपने
यही माप-दण्ड है
स्वयं के कद नापने का
जो ये जान गया
वही सब से ऊंचा
वही सब से गहरा
अहंकार तो मनुष्य को ले डूबता है ..पर अफ़सोस आज कल यही सब जगह है
मोहिंदर जी !
बहुत गहरी बात ....
मानव
अपने अंह से मुग्ध
अपनी विराटता का आंकलन
कब तक
वह भी बिना
किसी उचित माप-दण्ड के
यदि मापना है स्वयं को
तो जान ले
एक सुक्ष्म रजकण
भर है अस्तित्व तेरा
वाह ......
गम्भीर,
सार्थक रचना...
बधाई
कोई पर्वत शिखर
कोई पाताल खड्ड
स्वय़ को सबसे ऊंचा
सबसे गहरा माने
तो यह उसकी भूल है
आदि अनंत से परे
ब्रह्मांड में कोटि कोटि
आकाश-गंगाओं के मध्य
सहस्त्रो सूर्यों (तारों)
ग्रहों, उपग्रहों
की तुलना में पृथ्वी
स्वंय एक बिन्दू मात्र है
यदि इस पर स्थापित
कोई पर्वत स्वंय को
वृहद समझे
आकाश की विशालता को नकारे
तब उसे क्या कहें
यही माप-दण्ड है
स्वयं के कद नापने का
जो ये जान गया
वही सब से ऊंचा
वही सब से गहरा
मोहिन्दर जी, अतिसुन्दर रचना!!ऐसी सार्गर्भित रचना के लिए साधुवाद।
नीचे देख... प्रसन्नता
उपर देख... ग्लानि
किस कारण
वाह मोहिंदर इस बार आपने कमाल का विषय उठाया है और इतना सुंदर बखान किया है की बस अनंद आ गया
यदि मापना है स्वयं को
तो जान ले
एक सुक्ष्म रजकण
भर है अस्तित्व तेरा
कोई पर्वत शिखर
कोई पाताल खड्ड
स्वय़ को सबसे ऊंचा
सबसे गहरा माने
तो यह उसकी भूल है
आदि अनंत से परे
ब्रह्मांड में कोटि कोटि
आकाश-गंगाओं के मध्य
सहस्त्रो सूर्यों (तारों)
ग्रहों, उपग्रहों
की तुलना में पृथ्वी
स्वंय एक बिन्दू मात्र है
बहुत सुंदर बहुत सुंदर
मोहिन्दर जी,
बहुत बड़ी बात कहती हुई सुन्दर कविता है। एक दर्शन है कविता में।
बधाई।
मोहिन्दर जी,
ओशो ने अपने काव्य-प्रवचनों में इस तरह की बहुत-सी सुंदर पंक्तियाँ सुनाई हैं। आप कुछ और लिखें, आप तो कवि हैं।
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