अम्बर पर जो हम थूकें, तरक्की गीत गायेंगे
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
बड़े करुणानिधि बनते थे तुम, भगवान बनते थे
हमारा मन, हमारी आत्मा थे, प्राण बनते थे
तुम्हें माना तो हमको था यकीं उन संस्कारों पर
जहाँ बेटा, पिता की आन पर घर त्याग सकता है
जहाँ भाई खडाऊँ ही पे अपने ताज को धर दे
कोई उर्मिल, भला क्या आज सदियों जाग सकता है?
बहुत हैं खोखले आदर्श, हम होली जलायेंगे
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
बहुत हल्ला हुआ अब बस करो, तोड़ो तुम्हारा है
बहुत तोड़े हैं बाबर नें सिकंदर नें कि अब तुम हो
तुम्हारे बाप-दादाओं के कोई बाप-दादा थे
सवाली हूँ, मुझे सरकार से कागज बना कर दो
सियारों का कोई जमघट अगर संसद में कुछ बोले
उसे सच मानते हो तो, निरे अंधे अकलगुम हो
जिनकी हाँ में हाँ सच है, वो क्या सच बोल पायेंगे?
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
कलम को बेच कर इस देश का इतिहास लिक्खा है
शरम, इन वामपंथी लेखकों को फिर नहीं आती
हमारा हर पुरातन और कला साहित्य गर्दिश है
विदेशी सोच वाले लाल झंड़े की ये साजिश है
जो लेनिन लिख सके वो आज तुलसी और कबीरा है
वही विद्वन, वही है पद्म, वो भारत का हीरा है
वही हैं बुद्धिजीवी जो सलाम-ए-लाल गायेंगे
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
बडे इंजीनियर बनते थे तुम भी राम, लानत है
तुम्हारा पुल हजारों साल ज़िन्दा रह गया अचरज
असंभव इस लिये कि पुल तो अब भी लाख बनते हैं
बरस दस चल गये तो चल गये फिर गल गये सारे
इसी ठेके में रोजी रोज पाता ही नहीं रामू
मगर कंट्रेक्टर, नेता, मिनिस्टर बन गये सारे
अगर सालों चलेंगे पुल तो कुत्ते घाँस खायेंगे?
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
*** राजीव रंजन प्रसाद
22.09.2007
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47 कविताप्रेमियों का कहना है :
बड़े करुणानिधि बनते थे तुम, भगवान बनते थे
हमारा मन, हमारी आत्मा थे, प्राण बनते थे
तुम्हें माना तो हमको था यकीं उन संस्कारों पर
जहाँ बेटा, पिता की आन पर घर त्याग सकता है
जहाँ भाई खडाऊँ ही पे अपने ताज को धर दे
कोई उर्मिल, भला क्या आज सदियों जाग सकता है?
बहुत हैं खोखले आदर्श, हम होली जलायेंगे
acdhchhaa likhaa hai aapane
राजीव जी
आपने तो कमाल ही कर दिया । आप हमेशा सामयिक विषय पर लिखते हैं । जो अधिक प्रभावित करता है ।
किन्तु एक कमी जो मुझे लगती है वो यह है कि आप दिल और दिमाग़ में दिमाग की बाज़ी मार लेते हैं । आपकी
कविता मस्तिष्क को तो झकझोर देती है किन्तु दिल को कम छू पाती है । मेरा अनुरोध है कि इसमें भावना का
भी थोड़ा प्रवेश कराएँ । आशा है मेरी प्रतिक्रिया को आप सकारात्मक रूप से स्वीकार करेंगें ।
समय की पुकार के अनुसार लिखने के लिए बधाई ।
बहुत मुश्किल विषय चुना है आपने, मगर बखूबी निभाया भी है, पर राजीव जी एक बात कहूँगा यहाँ आप सीधे सीधे कटघरे में खड़ा कर ताने देते हुए प्रतीत हो रहे हैं, मुझे लगता है ये आपकी कविता में repitation सा पैदा करने लगा है, यह कहीँ न कहीँ कविता के प्रवाह को भी रोक देता है, राजीव जी आप आज के कवि हैं, आज भी भाषा (कविता की) पैने वार करने की है मगर हथियार कोई देख नही पाये, मेरी बात को अन्यथा मत लीजियेगा एक कवि के रूप में बहुत सी संभावनाएं देखता हूँ मैं आपमें, इसलिए स्नेह्व्श कह जाता हूँ
शोभा जी, सजीव जी,
आपकी बाते सत्य हैं और सहर्ष स्वीकार्य भी कि समयामयिकता "मोनोटोनस" होती है। कटाक्ष का शोभा जी दिल से कहीं भी संबंध नहीं होता और यदि मेरे कटाक्ष आपके ही शब्दों में "मस्तिष्क को तो झकझोर" देते हैं तो इसकी मुझे हृदय से प्रसन्नता है। मैं रुमानी कवितायें भी लिखता हूँ बल्कि समसामयिक विषयों से कहीं अधिक मैंनें वह सब कुछ लिखा है जो मेरे निजी मनोभाव हैं, कोमल अनुभव हैं...दिल से जुडे तार हैं।
रामसेतु एक आंदोलन का विषय है। मैं अपने तर्क को किसी साम्प्रदायिकता से नहीं जोडता। मेरे लिये राम के पुल के होने न होने से अधिक अपनी संस्कृति पर हो रहे हमले महत्ता रखते हैं, मुझे उद्वेलित और आंदोलित करते हैं। मैं शक्कर में लपेट कर पत्थर मारने में यकीन नहीं रखता। मेरी कविता कटघरे में खडा करती है और यह भी सच है सजीव जी कि सामने से वार करने में शब्दों की दिलेरी है।
यह स्पष्टीकरण मैं इस लिये दे रहा हूँ चूंकि इस कविता को प्रस्तुत करने का उद्देश्य मेरे अपने कृतित्व की कमियों से उपर है। इस कविता के माध्यम से मैं भी उस आंदोलन का हिस्सा हूँ जो रामसेतु के पीठ पीछे हमारी संस्कृति पर है।
आप दोनों के स्नेह का सम्मान करते हुए मैं मूल विषय पर आपके विचारों को भी आमंत्रित करता हूँ। आईये मिल कर "हम करें राष्ट्र आराधन..."
*** राजीव रंजन प्रसाद
राजीव जी,
आप सामयिक विषयों पर लेखनी चलाते हैं ये अच्छी बात है लेकिन शोभा जी की बात से मैं सहमत हुँ कि बज़ाय सिर्फ़ दिमाग के दिल को भी आपके काव्य में स्थान मिलना चाहिए।
बहुत हैं खोखले आदर्श, हम होली जलायेंगे
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
अगर सालों चलेंगे पुल तो कुत्ते घाँस खायेंगे?
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
बहुत सुन्दर!! आपकी लेखनी की धार बहुत पैनी है, बधाई।
sahi kahaa aapne kaash hum khud ke aadarshon aur culture se bhagna apna baddappan na samjhte
राजीव जी, अपनी बात बहुत पुष्टता के साथ कहने में आप सफल हुए हैं ।
राजीव जी, पहले मूल विषय पर बात करते हैं।
मैं इस बात पर आपसे सहमत हूँ कि रामायण एक धर्मग्रंथ ही नहीं है, बल्कि उसने हिन्दू धर्म की सैंकड़ों पीढ़ियों को संस्कार का पाठ भी पढ़ाया है। रामायण सच हो या न हो, उसके पात्र जिस तरह से भारतीय संस्कृति के रोम-रोम में मिले हुए हैं, उन सबको झुठलाने का अर्थ यह है कि हम अपने आदर्शों को भी झुठला रहे हैं। लेकिन मेरी यह बात उनके लिए ही सत्य है, जिन्हें आदर्शों का पालन करने के लिए जीवित आदर्शों की जरूरत है।
यदि रामायण मात्र साहित्यिक कृति ही रह जाता है, तो भी मेरे विचार से तो वे आदर्श अनुकरणीय ही रहते हैं।
लेकिन शायद किसी और आदमी के लिए राम का कभी होना और साथ ही भगवान होना अधिक महत्त्वपूर्ण है, बजाय आदर्शों के।
तो राजीव जी, यदि आप उन लोगों के पक्ष में अपनी जंग छेड़ रहे हैं, जिनके लिए संस्कार, आदर्श, शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण कहानी की सत्यता है तो मैं आपके पक्ष से थोड़ा दूर हट जाता हूँ।
सत्य की खोज जीवन का सर्वोच्च सत्य है।
इस खोज में अनेक बार पुरानी धारणाएँ, मान्यताएँ झुठलानी पड़ती हैं। जब कहा गया कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है तो सारी दुनिया में बवाल हो गया। क्योंकि सदियों से दुनिया के बहुत विश्वास इसी बात से जुड़े हुए थे कि धरती ही सौर मंडल का केन्द्र है।
मैं यह नहीं कह रहा कि रामायण काल्पनिक है। लेकिन अब यह हमें चुनना है कि हमारे लिए सत्य अधिक महत्त्वपूर्ण है या मनमोहक कल्पना।
यदि सत्य की खोज में रामायण के सबूत मिल जाते हैं तो यह खुशी की बात है।
मैंने भी रामायण और महाभारत के समय के बारे में जानने के लिए कुछ महीने पहले थोड़ा बहुत पढ़ा था और उस से यही मिला कि अलग अलग व्याख्याएं और वैज्ञानिक उनका समय अलग अलग बता रहे थे। उस समय को(अधिकांश लोगों द्वारा बताए गए समय को मैंने सही मान लिया) यदि मानव सभ्यता के विकास से मिला कर देखें, जिसके पर्याप्त सबूत हैं, तो एक ही बार में सौ प्रश्न आकर खड़े हो जाते हैं।
आपकी कविता बहुत अच्छी लगी राजीव जी।
बहुत तीखा कटाक्ष।
अतुलनीय कविता।
गौरव सोलंकी जी,
बहुत आभारी हूँ कि आपने कथ्य पर महत्वपूर्ण प्रश्न खडे किये। राम सत्य हैं अथवा नहीं यह स्थापित करना मेरी कविता नहीं चाहती। आप सही कह रहे हैं कि "आदर्शों का पालन करने के लिए जीवित आदर्शों की जरूरत है"
अब आपकी कही सारगर्भित बात पर आना चाहूँगा।
"यदि आप उन लोगों के पक्ष में अपनी जंग छेड़ रहे हैं, जिनके लिए संस्कार, आदर्श, शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण कहानी की सत्यता है तो मैं आपके पक्ष से थोड़ा दूर हट जाता हूँ" यह जंग कहानी की सत्यता के लिये कदाचित नहीं है। उनके खिलाफ अवश्य है जो आदर्शों को भी विचारधारा के लेबल के बिना स्वीकार नहीं करते। सही उदाहरण दिया आपने कि जो दुनिया कल चपटी हो गयी आज गोल है तो कल....इसी लिये मैनें कहा है:
"बहुत हल्ला हुआ अब बस करो, तोड़ो तुम्हारा है
बहुत तोड़े हैं बाबर नें सिकंदर नें कि अब तुम हो"
प्रश्न यह है कि क्या पूर्वाग्रह ग्रसित हो कर सत्य तक पहुँचा जा सकता है? कदाचित नहीं। वामपंथी इतिहासकारों पर कटाक्ष करने के पीछे मेरा इतिहास को के कर अपना अध्ययन है। और सौ बार कहा गया असत्य सच हो जाता है। यही कारण है कि 1857 की लडाई गदर बन जाती है, शिवाजी के लिये अनर्गल प्रलाप होते हैं याकि राम....।
कविता का विश्वास, आस्था या कि आदर्श से भी उतना वास्ता नहीं जितना कि व्यवस्था को कटघरे में खडा करने से है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
राजीव जी,
’पधारो .... देश!..’ के बाद की आपकी ये सबसे सटीक रचना है। समसामयिकता के विषयों पर आपकी लेखनी का चमत्कार नमनीय है।
पूरी रचना मैने कई बार पढ़ी । कुछ सवाल भी उठ खड़े हुए मन मे- विषय को भी लेकर और उसके प्रस्तुतीकरण को भी लेकर। बवाल से बचने के लिए मै दूसरे पक्ष पर ही बात करना पसंद करूँगा। (वैसे गौरव ने तो छेड़ ही दिया है,पर मेरी टिप्पणीकार बन्धुओं से करबद्ध प्रार्थना है कि उसे और आगे ना बढ़ायें... व्यर्थ मे इस रचना की जगह अन्य पहलुओं पर सबका ध्यान भटक जाएगा।)
अगर कविता कि पूरे चार भाग मे बाँटे,तो पहला वाला इस रचना की सशक्तता को कमतर करता है।
शायद कमजोड़ कड़ी है ये! बाद के भाग बड़े ही जबरदस्त बन पड़े हैं,पर शरीर का कोई भी मजबूत अंग किसी दूसरे कमजोर अंग की भरपाई नही कर देता। और आप इससे सहमत होंगे कि एक odd man out सम्पूर्णता नही पाने देता।
गेयता को लेकर भी आपका मोह कुछ खला। अगर ये मोह भंग कर लेते आप,तो रचना की सटीकता और बढ़ सकती थी। स्वनाम्धन्य करूणानिधि जी के कुछ लाँक्षनों का उपयोग रचना मे चार चाँद लगा देता।.... सोचने पर भी अच्छा सा लगता है शराबी और मांसाहारी मर्यादा-पुरूषोत्तम!
वैसे आपकी रचनाओं का तो मै बहुत बड़ा fan हूँ ही,
सस्नेह,
श्रवण
राजीव जी, समसामयिक विषय पर लिखना निश्चित ही सराहनीय है । अच्छा लिखा ,प्रभावित करता है।
राजीवजी,
बहुत-बहुत बधाई!!!
सामयिक विषयों पर आपकी कलम कमाल ही करती है, आपने एक कवि का कर्तव्य बखूबी निभाया है। शब्दों को झकझोर देने वाले स्वरूप में पिरोकर राम के नाम पर हो रही राजनीति पर अच्छा कटाक्ष किया है।
पुनश्च: बधाई!!!
व्यथित, आक्रोशित मन की बढ़िया अभिव्यक्ति!!
तुम्हारे बाप-दादाओं के कोई बाप-दादा थे
सवाली हूँ, मुझे सरकार से कागज बना कर दो
सियारों का कोई जमघट अगर संसद में कुछ बोले
उसे सच मानते हो तो, निरे अंधे अकलगुम हो
जो लेनिन लिख सके वो आज तुलसी और कबीरा है
वही विद्वन, वही है पद्म, वो भारत का हीरा है
इसी ठेके में रोजी रोज पाता ही नहीं रामू
मगर कंट्रेक्टर, नेता, मिनिस्टर बन गये सारे
अगर सालों चलेंगे पुल तो कुत्ते घाँस खायेंगे?
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
राजीव जी,
आपकी इस रचना में कई तरह के आक्रोश एवं व्यंग्य परिलक्षित होते हैं। अपनी सभ्यता और संस्कार की रक्षा में खड़ा एक मानव, राजनीति की चक्की में पिसता एक आम इंसान और अपने पूर्वजों को आराध्य मानता एक पुत्र , हर एक चित्र आपने बखूबी गढा है। यह केवल हिन्दुत्व की बात नहीं है, यह केवल धर्म की भी बात नहीं है। इसलिए धर्म को पकड़कर इस विषय को टिप्पणियों के माध्यम से विवादास्पद ना बनाएँ , ऎसा मेरा सबसे आग्रह है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
राजीव जी शायद आप ही सिर्फ़ इन विषयों पर लिख सकते हैं
आपका आक्रोश इन पंक्तियों में झलक रहा है ..इसको पढना अच्छा लगा
क्यों कि यह इस समय के अनुसार है जब सब तरफ़ इसी बात की चर्चा है
बधाई आपको एक और सशक्त रचना के लिए !!
राजीव जी,
साधुवाद
कटाक्ष तो तीखा ही हो तभी मजा आता है :-) फिर वह चाहे दिल पर असर करे या दिमाग पर
एक मिनट के लिये ही यदि कोई कविता असर कर जाये तो यह कविता की सफलता है
मैं श्रवन जी और तनहा जी की इस बात का समर्थन करता हूँ, कि कृपया विवादास्पद न बनायें कविता को
युग्म पर पहले भी एक बार ऐसा हो चुका है,कि एक कविता पर इतनी लम्बी और अनर्गल चर्चा हुयी कि उस कविता की तो हत्या ही हो गयी
निष्कर्षहीन चर्चा अनर्गल ही होती है, बचा जाये तो बेहतर है|कविता पर बात हो न कि इतिहास पर तो शायद उचित होगा, अन्यथा सभी के अपने-अपने पूर्वाग्रह ही सामने आयेंगे,कोई इतिहासकार नहीं है यहाँ , खैर "करुणानिधि" कुछ सुना-सुना सा लगता है :)
साधुवाद
तीखा कटाक्ष, सटीक व्यंग्य
अपना आक्रोश आप कविता के माध्यम से बहुत सशक्त तरीके से रख पाये हैं,
समसामयिक विषयों पर आप का लेखन सच में अतुलनीय है, मैंने तो नहीं पढा अब तक
"अम्बर पर जो हम थूकें, तरक्की गीत गायेंगे
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥"
"बड़े करुणानिधि बनते थे तुम, भगवान बनते थे
हमारा मन, हमारी आत्मा थे, प्राण बनते थे"
कभी किसी ने सोचा भी न होगा कि राम की भी प्रासंगिकता पर इस प्रकार सवाल उठेंगे,
"बहुत हल्ला हुआ अब बस करो, तोड़ो तुम्हारा है"
"तुम्हारे बाप-दादाओं के कोई बाप-दादा थे
सवाली हूँ, मुझे सरकार से कागज बना कर दो"
"वही हैं बुद्धिजीवी जो सलाम-ए-लाल गायेंगे"
कविता के अंत मे बहुत ही सटीक व्यंग्य है, बहुत प्रभावशाली
"बडे इंजीनियर बनते थे तुम भी राम, लानत है
तुम्हारा पुल हजारों साल ज़िन्दा रह गया अचरज
असंभव इस लिये कि पुल तो अब भी लाख बनते हैं
बरस दस चल गये तो चल गये फिर गल गये सारे
इसी ठेके में रोजी रोज पाता ही नहीं रामू
मगर कंट्रेक्टर, नेता, मिनिस्टर बन गये सारे"
"अगर सालों चलेंगे पुल तो कुत्ते घाँस खायेंगे?
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥"
बहुत तेज धार है आपकी लेखनी में, अद्भुत से आगे का कोई शब्द बताइयेगा :-)
सस्नेह
गौरव शुक्ल
rajiv ji .....kya kanhu...man hi jit liya aapne.......
koti koti badhai.....
कलम को बेच कर इस देश का इतिहास लिक्खा है
शरम, इन वामपंथी लेखकों को फिर नहीं आती
हमारा हर पुरातन और कला साहित्य गर्दिश है
विदेशी सोच वाले लाल झंड़े की ये साजिश है
जो लेनिन लिख सके वो आज तुलसी और कबीरा है
वही विद्वन, वही है पद्म, वो भारत का हीरा है
bilkul sach hai yah........
prashansa ko shabd hi nahi hai mere pas.......
आज हमारे सामने बहुत भयंकर समस्या आन पडी है। कल तक जिस राम राज्य की बात हम लोग करते थे आज उसी राम का पुल हमारे बीच विवाद का केन्द्र बन गया है। बडा ही र्दुभाग्य है कि रामसेतु ही नहीं राम की प्रासंगिकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। यह मूढमति वामपंथी ना जाने अभी कौन सा रंग दिखायेगें। भाजपा की तो बाम ही क्या करें उन्हे बस जयश्रीराम कहना आता है या फिर जिन्ना की मजार पर माथा टेकना उससे ज्यादा कुछ नहीं। उधर करूणानिधि के संग संग टी आर बालू भी जख्मों को कुरेद रहें हैं। राम को किवदंती कहने वाली यह तथाकथित गाधींवादी सरकार गाधीं को भी गाली दे रही है जो मरते वक्त भी हे राम कह गए। एसे में अगर भलाई चाहतें हैं तो राजीव जी की वात मान कर रामायण को ही इतिहास के पन्नो से मिटा देना चाहिए।
मेरा उद्देश्य कभी भी व्यर्थ का विवाद खड़ा करना या धर्म एवं इतिहास पर चर्चा करना नहीं था। राजीव जी ने एक टिप्पणी में कहा कि वे इस विषय पर सबके विचार चाहते हैं, इसीलिए मैंने वह बात उठाई।
धन्यवाद।
राजीव जी
आप हमेशा सामयिक विषय पर
कमाल का लिखते हैं ।
निश्चित ही सराहनीय है ।
बधाई ।
पहली बात-आसमान की तरफ़ एक पत्थर फेंकने की कोशिश की आपने, बिरला ही करता है।
दूसरी बात- लाग-लपेट का प्रश्न क्या? जो कहना है, सरे आम और सरे-राह कहना है।चिकोटी भरना तो बच्चों का खेल होगा।
राजीव जी! निश्चय ही आप खेलने के लिये यहां नहीं हैं।
तीसरी बात--अनुग्रह है कि धर्म से जोड़ कर रचना न पढी जाय, रचना का उद्देश्य भी यह नहीं दीखता।अगर ऐसा हुआ तो राजनीतिक मदारिओं के पौ बारह हो जाएंगे।
यही तो वो करना चाहते हैं ।
चौथी बात--क़लम वायु है ,जल है,समीर या गगन है तो पावक भी हैओठों पर पप्पी भी है तो वक़्त ज़रूरत दोधारी तलवार भी हो सकती है।दिल पर या दिमाग पर --असर छोड़ कर जानी चाहिये।
और आज की अंतिम बात--पहला बोल 'मम-मम'के साथ अमूमन 'राम-राम'भी सिखाया जाता है शिशु को ,जाने कब से?राम का अस्तित्व खोजूं या अपना ----राम जाने?
अंगारों पर चलने के लिये तत्पर रहें ,राजीव जी!
क़लम हाथ मे है ,कोई ख़ाला के घर तो जा नहीं रहे हैं।
निःशब्द
प्रवीण पंडित
कलम को बेच कर इस देश का इतिहास लिक्खा हैशरम, इन वामपंथी लेखकों को फिर नहीं आतीहमारा हर पुरातन और कला साहित्य गर्दिश हैविदेशी सोच वाले लाल झंड़े की ये साजिश हैजो लेनिन लिख सके वो आज तुलसी और कबीरा हैवही विद्वन, वही है पद्म, वो भारत का हीरा है
राजीव जी,
बहुत दिनों से इस कविता का इंतज़ार था....ये सिर्फ आपकी कविता नही, हम सबकी अनकही है....सजीव जी, शोभा जीं को कहना चाहूँगा कि कविता ना तो एकरस हुई है ना ही दिल को छू पाने में असमर्थ....अरे भाई, घर में मातम हो तो आप स्वर में मिश्री ढूंढेंगे? राजीव जीं भी हमारी-आपकी तरह आम इन्सान हैं, आज के इन्सान हैं...आपको इस विषय पे क्या कैसी रचना चाहिए थी....
खैर, गौरव जीं "सत्य की खोज जीवन का सर्वोच्च सत्य है। " आपकी इसी बात से आपको कहना चाहूँगा कि अपनी आस्था जब चोटिल हो तो आप आदमी से इस बात कि उम्मीद नही कर सकते कि वो सबको खुश करता हुआ लिखे...अरे भाई, आपने कैसे कह दिया कि राजीव जीं उन लोगों को समर्थन दे रहे हैं जिनके लिए कहानी कि सत्यता ही सब कुछ है.....आप भी वैसी ही बात कर रहे हैं जैसी "वो" लोग करते हैं जिनके लिए अपनी आस्था की माँ-बहन करना और दूसरों की मान्यताओं को ठप्पा लगाना सबसे बड़ा धर्म लगता है....
अरे भाई, फर्क समझिए....अगर राम के होने पर कोई सवाल उठा है और हम ये सोच कर चुप रहे कि इस देश में राम पर कुछ भी कहना आपको "साम्प्रादायिक " बना सकता है, तो हम दोगले हैं...और कुछ नहीं....आप बात कहने के तरीके का फर्क तो देखिए.....आस्था और "राजनीति" में फर्क है...
चलिए मान लिया कि हमारे बाप-दादाओं ने बडे ही "अवैज्ञानिक" ढंग से राम नाम के काल्पनिक आदमी कि कहानियां गढी हैं...ये भी मान लिया कि "राम सेतु" या राम के ना होने के संबंध में आने वाले सभी "फैसले" महान और सर्वथा "वैज्ञानिक " हैं...उनमे किसी तरह कि राजनितिक साजिश नहीं है......तब तो कई और बातें भी माननी होंगी.... कि कभी हिंदु धर्म पनपा ही नहीं...ना ही कोई पैगम्बर ही धरती पर आया....काबा कुछ उन्मादियों कि दिमागी उपज है....इसा क्रूस पर चढ़ कर वापस कैसे जीं सकता है....वगैरह-वगैरह....
मेरा उद्देश्य धर्म पर सवाल खडे करने का नहीं है...बस इतना कहना है कि सदियों से चली आ रही मान्यताएं सिर्फ इस लिए कागज़ से मिटा दी जाएँ कि कुछ लोग अपनी राजनीतिक दादागिरी का परिचय्त दे सकें तो फिर राजीव जी का आक्रोश उससे कहीँ ज्यादा कीमती है....
आप तो कागज पर लिख लें, वो जलमार्ग जिसे सरकार "राष्ट्रहित" में बनाना चाहती है, शायद कभी ना बने...जिनकी मंशा साफ होती, वो भावनाओं कि आड़ में इतना "ज़रूरी" काम पहले करते, ना कि जनता से माफ़ी माँगते....हम आज तक कश्मीर का मसला भी सुलझा ही रहे हैं...
ये कोरी राजनीति थी...अगर आपको "हिंदूवादी " दलों का विरोध कर अपने जागरूक होने का सबूत मिलता है, तो उस विरोध के स्वर में बाक़ी दलों को भी जोड़ लें...वो ज्यादा बडे दोगले है...चाहे वामपंथी हो या कॉंग्रेस ......हमाम में सब नंगे हैं....
राजीव जीं ने बहस कि ज़मीन तैयार की...धन्यवाद..........
निखिल
आप लोग सार्थक बहस से दूर क्यों भागते हैं, गौरव ने वही कहा जो उसने महसूस किया, हालंकि व्यक्तिगत रूप से मैं भी उससे सहमत नही हूँ, रही बात कविता की तो राजीव जी युग्म के बहतरीन कवियों में से एक हैं, कविता में कड़वाहट से मुझे कोई परहेज नही, और जब मुद्दा इतना संवेदनशील हो तब तो कदापि नही, मैंने सिर्फ़ इतना कहा है या कहिये की मैं इतना चाहता हूँ की राजीव जी " निठारी के मासूम भूतों " के हँग ओवर से बचें सही है वार सामने से ही करना चाहिए पर हर कविता में आप सीधे सीधे आक्षेप ही करेंगे तो एक पुनार्वर्तन सा महसूस होता है , इसका अर्थ ये बिल्कुल नही है मुझे आपकी कविता पसंद नही आयी, आप जो लिखते हैं, वो हमेशा ही प्रिये है, यह बात आप जानते हैं, कृपया इसे अन्यथा मत लीजियेगा मैं आप में आने वाले समय के एक बड़े कवि का तमाम लक्षण देखता हूँ, जो अपनी लेखनी से समय की धरा को मोड़ सकता है, बेहतरी का स्कोप तो बेहतरीन में भी होता है ... है न ?
शुभकामनाओं के साथ- आपका बहुत बड़ा प्रशंसक
राजीव जी,
कविता सुन्दर व सटीक है इसमें कोई दो राय नहीं है. हर कलम सच कहने का साहस नहीं कर पाती.
कभी कभी ऐसा होता है हम किसी वस्तु को सिर्फ़ एक कोण से देखते हैं और अपना मत देते हैं .. जरूरी नहीं वो सही हो और सही शब्दों में हो या फ़िर दूसरे को सही लगे.. चाहे वो सही ही हो.
राम को व धर्म को राजनैतिक दलों ने अपने स्वार्थ व वोटों की खातिर घसीटा.
अगर राम जन्म भूमि है, राम मन्दिर है तो राम के होने कि वास्त्विकता से इन्कार नहीं किया जा सकता.
अब जब राम सेतू को तोडने की बात है तब भी राजनैतिक दल वोटों की खातिर ही इस मुद्दे को उछाल रहे हैं...
श्री राम ने जिस समय ये सेतू बनाया उस का उदेश्य था जो पूरा हुआ. कई वर्षों से वह जलगर्भ में था...आज उस का कोई प्रयोग नहीं हो रहा बल्कि वो एक बाधा के समान है जिसकी वजह से जहाजों को २४० किलोमीटर अधिक चक्र लगाना पडता है.. समय की मांग के अनुसार यदि उसे हटाया जाता है.. जैसे समय की मांग के अनुसार बनाया गया था तो क्या अनुचित है ?
पत्थर को भगवान और इन्सान से पत्थर की तरह व्यवहार करने वालों की श्रेणी मे स्वयं को कतार बद्ध
करना उचित नहीं.
रामायण क्या कोई भी वस्तु जिसका तनिक भी अस्तित्व है आसानी से इतिहास के पन्नो से नहीं मिटायी जा सकती.
मुझे लगा आप का आक्रोश श्री राम, सेतू तोडने वालों, राजनैतिक दलों और पत्रकारों सभी के प्रति है.
सजीव जी व शोभा जी ने जो कहा मुझे अनुचित नहीं लगा शायद आप को भी नहीं परन्तु अन्य साथियों की राय से लगा कि उन्हें बुरा लगा.
कडवे को मीठे में लपेटा हो तो निगलने में आसानी रहती है... शायद यही आशय था सजीव जी और शोभा जी का....और मेरा भी यही है.
निखिल जी,
आपकी टिप्पणी पढ़कर तोगड़िया जी की याद आ गई। :)
बस उनकी भाषा थोड़ी और तल्ख़ होती है।
आप कहते हैं-
आप भी वैसी ही बात कर रहे हैं जैसी "वो" लोग करते हैं जिनके लिए अपनी आस्था की माँ-बहन करना और दूसरों की मान्यताओं को ठप्पा लगाना सबसे बड़ा धर्म लगता है....
पहली बात- राजीव जी ने जिस राम की बात की, वह संस्कृति थी, न कि धर्म और आप जिस राम की बात कर रहे हैं, वह शुद्ध धर्म है।
हिन्दू धर्म का पनपना एक अलग बात है और राम का होना अलग बात। वो तो हिन्दू धर्म या किसी भी धर्म के तथाकथित उद्धारकों ने सब mix कर दिया है। आप कहते हैं कि राम नहीं है तो हिन्दू धर्म नहीं पनपा, पैगम्बर नहीं हुए, ईसा सूली पर नहीं चढ़े...आदि आदि।
मैं आपसे सहमत हूँ।
आप यह क्यों नहीं मान सकते कि mythology अलग है, संस्कृति अलग है और सच हर जगह mythology से बहुत दूर है।
जो ASI या GSI वाले कह रहे हैं कि राम मन्दिर के सबूत तो हैं, लेकिन राम का आज तक कोई सबूत नहीं मिला, उनके ख़ानदान में भी किसी की राम या हिन्दू धर्म से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। उन्होंने बस वही कहा, जो खोजबीन में सामने आया। कभी रामायण या महाभारत के बारे में जानने के लिए उनकी calculated dates के बारे में पढ़िएगा, फिर सिन्धु घाटी सभ्यता आदि(जिनके पर्याप्त अवशेष हैं) की तिथियाँ देखिएगा। आप यदि मुझे कुछ भी सबूत दिखा सकें तो मैं पूरा विश्वास दिलाता हूं कि राम के होने को मान लूंगा।
राम के आदर्शों की मैं बहुत इज़्जत करता हूं, लेकिन साथ ही मैं यह कहना चाहता हूं कि उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि राम हो भी। कम से कम मेरे लिए तो वह उतना ही महत्त्वपूर्ण रहेंगे, चाहे कल्पना हों या सत्य।
और मैं कोई वामपंथी या काँग्रेसी नहीं हूं और सरकार की मंशा भी नहीं जानता, लेकिन इतना तय है कि जनता की आस्था का फायदा उठाने के लिए बहुत दिनों बाद फिर से राम का उपयोग किया जा रहा है, कुछ दलों को नींद से जागकर राम याद आ गए हैं।
अब उस अभागे देश की बात करते हैं, जिसमें आप और मैं रहते हैं। क्या आप जानते हैं कि यदि गरीबी रेखा को बिल्कुल सही मापदंडों के अनुसार पुनर्परिभाषित किया जाए तो इस देश के 75% लोग उसके नीचे होंगे।
अब यदि 30 किलोमीटर लम्बे पुल का 300 मीटर हिस्सा तोड़कर करोड़ों रुपए बचते हैं तो यदि ईश्वर है भी, तो क्या वह नाख़ुश हो जाएगा?
क्या आस्था केवल यही है कि सवाल न उठाने दिए जाएँ, सत्य की खोज और वैज्ञानिकता का मज़ाक उड़ाया जाए?
क्या आस्था कभी यह याद नहीं दिलाती कि धर्म से ऊपर उठकर इस गरीब, अभागे देश के बारे में सोचा जाए? भूखे, नंगे बच्चों को 2 वक़्त का खाना खिलाने न कभी कोई राम आया था, न आएगा। वो हमें ही करना है। अब तय कर लीजिए कि क्या बेहतर विकल्प है?
हिन्द-युग्म के सभी पाठकों और रचनाकार मित्रों को नमस्कार!
सबसे पहले बात कविता की, काव्य-शिल्प की. काव्य के दृष्टिकोण से रचना समर्थ होते हुये भी कुछ बिन्दुओं पर कमज़ोर पड़ती है. भाई श्रवण सिंह, सजीव जी और शोभा जी की बात भी ध्यान देने योग्य है.
तत्पश्चात बात आती है विचारों या भावों की. इसे मैं कुछ विस्तार से कहूँगा क्योंकि अब तक आयी टिप्पणियों से लगता है कि कई पाठक कविता को किसी और ही नज़रिये से देख रहे हैं. कुछ लोग इस कारण ’युग्म’ को भी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से न देखने लगें, इसलिये इसे स्पष्ट करना और भी आवश्यक हो गया है. वैसे अब तक जो प्रतिक्रियायें आईं हैं, उनमें युग्म के कुछ सदस्यों के अलग-अलग विचारॊं से यह तो काफी हद तक स्पष्ट हो ही चुका है कि युग्म एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति वाला सामूहिक मंच है जिस पर हर विचार का स्वागत होता है. पहले प्रकाशित हुयी कुछ कविताओं में जहाँ वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में धर्म और भगवान को भी कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कुछ कवि-मित्रों ने किया, वहीं आज इस कविता के माध्यम से राजीव जी ने महज़ धर्म और संस्कृति के विरोध को प्रगतिवाद का मूल मानने वालों लोगों पर भी प्रहार किया है. अत: यह निश्चित है कि ’युग्म’ के सदस्यों के कुछ सदस्यों के व्यक्तिगत विचार कुछ भी हों, सामूहिक रूप में यह पूरी तरह धर्म और तथाकथित ’वाद’ से पूरी तरह मुक्त है.
यद्यपि रामायण की सत्यता में मुझे भी कोई विशेष यकीन नहीं है और राम के भगवान होने को भी मैं नहीं मानता; तथापि इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि इस कथा ने सदियों तक भारतीय जन-मानस के साथ-साथ कई विदेशियों को भी अपनी तरफ आकृष्ट किया है और अनगिनत लोगों ने इससे उत्कृष्ट जीवन-मूल्य लेकर अपने जीवन में उतारे हैं। आज भी यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इसमें कई बातें ऐसी हैं जिन्हें यदि हम अपने जीवन में उतार सकें तो हमारी कई समस्याओं का निदान हो जायेगा। और अपने अस्तित्व में आने के इतने समय बाद यदि इसकी कुछ बातें अप्रासंगिक हो भी गईं हैं तो यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं हो सकती जिसके कारण इसके अस्तित्व को ही खारिज़ कर दिया जाये। राजीव जी की कविता भी मेरे विचार से राम या रामायण की वकालत नहीं करती, अपितु उस मानसिकता का विरोध करती है जो किसी भी बात का विरोध महज़ अपने निज़ी स्वार्थों या स्वयं को तथाकथित रूप से प्रगतिशील साबित करने के लिये करती है।
कविता के पहले पद में कवि रामायण में वर्णित उच्च आदर्शों का ज़िक्र करता है जिन्हें तथाकथित प्रगतिवाद के नाम पर भुला दिया गया है। दूसरे पद में चंद लोगों के बहकावे में आकर गलत को सही और सही को गलत मान लेने वालों पर गहरा व्यंग्य करता है।
सियारों का कोई जमघट अगर संसद में कुछ बोले
उसे सच मानते हो तो, निरे अंधे अकलगुम हो
रचना के तीसरे पद में उन लोगों की खबर ली गई है जो सिर्फ दूसरों के अंधानुकरण को ही विद्वता का प्रतीक मानते हैं। इसी प्रकार चौथे और आखिरी पद में कविता राम को एक सामान्य मनुष्य मानते हुये और उनके कार्यों का उसी नज़रिये से वर्णन करते हुये आधुनिक ठेकेदारों और इंज़ीनियरों के माध्यम से घूसखोरी पर करारा प्रहार किया गया है.
रही बात राम-सेतु को तोड़ने या न तोड़ने की, तो मैं गौरव सोलंकी तथा मोहिन्दर जी से सहमत हूँ कि यदि इससे देश और समाज का भला होता है तो हमें इसके लिये ज़्यादा फिक्र करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये. परंतु अपने निज़ी हितों के चलते कुछ लोग इस मुद्दे को बेवज़ह हवा दे रहें हैं. निश्चय ही हमें इस मामले को राजनीतिक लाभ का हथियार तो बनने से रोकना ही होगा.
ना जाने क्यॊं सब लोग एक दूसरे की बात कम काटते हुए मुख्य बात को भूल ही गए। सबसे पहले मैं उन लोगों से स्प्ष्ट रूप से कहना चाहूगां जो युग्म पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगा रहें हैं कि वे अपनी सीमा में रहें तथा सत्य का बोध करें। दूसरा राजीव जी की कविता एक कटाक्ष है।
गौरव जी की बात तो समझ से ही परे है। अरे भाई चीनी ही नहीं तो मिठास कैसी ठीक वैसे ही राम ही नहीं तो उसके आर्दश कैसे। फिी यह राम या वो राम कुछ नहीं राम तो केवल एक ही थे वही दशरथ पुत्र।
एक और बात, हजारों मील की सडक बद्रीनाथ तक बना दी कि वही कि वही ं भगवान रहते हैं तो यहां जरा नहर तिरछी बन जाए तो क्या। घुमा फिरा कर बात ना करें.............
ज़ालिम भाई,
आपको भी मेरी बात बहुत अतार्किक लगी है शायद। एक सलाह देता हूँ। कभी उड़ीसा जाइए। वहाँ भूख से बिलखते गाँवों का शोर सुनिए, फिर सोचिए कि भारत क्या है और आपको कौनसा रूप पसन्द है- अतीत में खोकर भूखे मरना या विकास के प्रयास करना।
मैंने देश की हालत की पहले भी बात की थी। कुछ और करता हूं। गरीबी रेखा की सीमा करीब दस या बीस रुपए प्रतिदिन की आय है। तब भी एक तिहाई देश उसके नीचे है। उस एक तिहाई देश को और उनके पूर्वजों को नहीं पता कि बद्रीनाथ कहाँ है और अयोध्या कहाँ है। जब भूख लगती है तो रोटी ही याद आती है और राम याद आता है तो वो भी रोटी की उम्मीद में।
ज़रा तिरछी ही होने से कितना समय और धन बचेगा, यदि आपको उसकी ज़रा भी परवाह नहीं है तो मैं बहुत दुख के साथ कहता हूँ कि आपको इस देश से प्यार नहीं है। क्योंकि देश से प्यार का अर्थ उसके लोगों से प्यार होता है, न कि शहरों, इमारतों या पत्थरों से प्यार।
रही बात चीनी-मिठास की तो वह समझाना मुश्किल है। यदि आप कुछ समय के लिए आस्था के कवच से कान बाहर निकालकर मेरी बात सुनने के लिए तैयार होते तो मैं कुछ कहता भी...
यहाँ मैं गौरव सोलंकी से बिल्क़ुल सहमत हूँ!
इस पूरी चर्चा में गौरव की बात ही तार्किकता के साथ खडी होती नज़र आती है. अगर हमारी संसकृति में कुछ कमियाँ हैं तो उन्हे मान लेने में कोई बुराई नही हैं. समाज और जीवन ऐसे ही बेहतर बनता है.
मित्रों, नमस्कार!
मुझे लगता है कि इस जगह पर कविता की ही चर्चा की जाए तो उचित होगा। हाँ इतने सारे स्वतंत्र विचार देखकर ये जरूर कहुँगा कि हिन्द-युग्म को किसी खास विषय पर सार्थक चर्चा के लिए भी अलग से कोई अध्याय जोड़ना चाहिए।
जहाँ तक हिन्दु धर्म की बात है तो जिन्हे भी धर्म की गहरी समझ होगी उन्हे ये पता होगा कि धर्म का तो मूल ही मानव को मोहमुक्त करना है। कुछ मित्रों को राम के समर्थन का मोह है तो कुछ को राम के विरोध का मोह है। विरोध मेरे देखे तो समर्थन का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। इनमे कोई बुनियादी भेद नही है। अतः हमे दोनो तरह का मोह त्यागकर विचार करना चाहिए। फ़िर मै सहमत हुँ इस बात से कि विकास के लिए जो आवश्यक हो वह किया जाना चाहिए। किसी को मेरी बात बुरी लगे तो क्षमाप्रार्थी हुँ।
मालुम पडता है कि मेरी टिप्पणी आदरणीय गौरव जी पसंद नहीं आई परन्तु उनके आहत कर देने वाले जबाब से मुझे कोई शिकायत नहीं है। गौरव जी उडीया के गावं भी भारत की तस्वीर हैं इसमें कोई संदेह है ही नहीं। मैं कहता हूं कि अगर उस पुल को हम रामसेतू ना भी माने तो भी उसे संरक्षित करना ही चाहिए। थॊडा सा तिरछा करके हम एक बार तो कुछ नोट बचा लेगें परन्तु उस तिरन्तर आने वाले धन को खो देगें जो हमें पुल को संरक्षित होने के बाद उसे पर्यटन के रूप में विकसित करने से मिलेगा। जिससे गरीबी रेखा के नीचे वालों का पेट ही नहीं भर सकेंगें अपितु उनमें से कईयों को निरन्तर रोजगार भी दे पायेगें। आखिर समुद्र में तैरते विशाल पुल को कौन नहीं देखना चाहेगा। साथ ही आप ये भी जान लें कि कम से कम इस देश के गरीब राम को जानते हैं वे रोटरी के साथ साथ रामराज्य भी चाहते हैं। यह प्यार लोगों से ही हैं--------पत्थरों इमारतों से भी ज्यादा।
जहां तक आस्था कवच में कान की बात हे तो वैसा कम से कम मेरे साथ कभी था ही नहीं। आप कहें जो भी कहना चाहें हम भी तो जाने बिन चीनी मिठास कैसे होती है।
सभी मित्रों को सार्थक चर्चा का आभार।
यद्यपि दुख अवश्य है कि कविता को बहुत ही गलत संदर्भ में समझने का यत्न किया गया। सर्वप्रथम तो युग्म पर इस कविता से किसी विचारधारा के हावी होने की बात...क्या यह संभव है? हर व्यक्ति की अपनी सोच है और हम एक मंच पर हैं कोई ‘लेखक संघ” नहीं कि एक विचारधारा के लिये साहित्यिक यूनियन बाजी करें। सबकी अपनी सोच है और उसे अभिव्यक्त करने की इस मंच पर स्वतंत्रता भी और एक सामान्य सदस्य होने के नाते इस अधिकार का मैं प्रयोग करता रहा हूँ। हाँ यह बात अवश्य जोर दे कर कहना चाहते हैं कि यदि आपको मेरी सोच की हत्या करनी हो तो मुझे साम्प्रदायिक घोषित कर दें......
राम शब्द सुन कर ही आज का तथाकथित बुद्धिजीवी मानस एसे भडकता है जसे सांड नें लाल कपडा देख लिया हो लेकिन मैं “राम” लिखने के बाद क्या कहना चाहता हूँ यह पत्थर की लकीर सोच नें संभवत: समझना ही नहीं चाहा। एसी सोच भी घातक ही है।
“अम्बर पर जो हम थूकें, तरक्की गीत गायेंगे चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥“
अपने ही मुख पर फिर भी थूकना जारी है तो यह आपकी च्वाईस है। थूकना ही होगा तो आसमान पर ही क्यों? आदर्श संस्कारों की परिणति हैं। हमारे परिवार आज क्यों टूट रहे हैं? स्कूलों के बच्चे आज एम.एम.एस बनाते क्यों भटक रहे हैं? निठारी जैसी विभीत्सिका क्यों?....इस लिये कि हमारे संस्कार साम्प्रदायिक करार दिये गये। हमारे दादाओं के पास आज की पीढी को सिखाने को कुछ रहा ही नहीं। वे रीते हाँथ हैं। और इसीलिये जब मैं लिखता हूँ कि
बहुत हैं खोखले आदर्श, हम होली जलायेंगे चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
तो मित्रवर कविता साम्प्रदायिक नहीं होती। सींग पैना करने की आवश्यकता नहीं, इस सोच को विषेश रंग के चश्मे से पढ कर जिस तरह मारा गया.......
“बहुत हल्ला हुआ अब बस करो, तोडो तुम्हारा है बहुत तोडे हैं बाबर नें सिकंदर नें कि अब तुम हो तुम्हारे बाप-दादाओं के कोई बाप-दादा थे सवाली हूँ, मुझे सरकार से कागज बना कर दो सियारों का कोई जमघट अगर संसद में कुछ बोले उसे सच मानते हो तो, निरे अंधे अकलगुम हो जिनकी हाँ में हाँ सच है, वो क्या सच बोल पायेंगे?”
मूल प्रश्न तो यह है? प्रगति पर बहुत चर्चा हुई, तोडो भाई हर कुछ तोडो। प्रगति इसी का नाम है। और हर्ज नहीं यदि समुद्र का पर्यावरण इसकी इजाजत देता हो? यदि इससे सुनामी आने के जिन खतरों का अंदेशा किया जा रहा है, एसा न होता हो? यदि हमारे रेडियोएक्टिव पदार्थों के भंडारों पर कोई फर्क न पडता हो?....। लेकिन इस सबके बीच क्या राम केवल इसलिये नहीं लाये गये कि इन सवालों से बचा जा सके? राम हथियार ही नहीं ढाल भी हैं और हमारी सोच नें ही उन्हें बनने दिया है। जो बुद्धीजीवी समाज साधारण कटाक्ष का भी साम्प्रदायिक अर्थ खोज लेता हो उसे अपने कलम में पानी भर लेना चाहिये। मैने तो सरकारी कागज ही मांगे हैं, सियारों के जमघट को हकालने की बात की है, मेरे दर्शनशास्त्री बंधुओ राम को कहा घुसा लिया आपनें? व्यवस्था पर चोट करने का हक क्या मेरी कलम को नहीं। राम लिख दिया मैंने तो क्या मेरे सच पर स्याही फेरी जायेगी? “जिनकी हाँ में हाँ सच है, वो क्या सच बोल पायेंगे?” मैं इस भीड में नहीं और मैं किसी भी विचारधारा की भीड में नहीं।
“कलम को बेच कर इस देश का इतिहास लिक्खा है शरम, इन वामपंथी लेखकों को फिर नहीं आती हमारा हर पुरातन और कला साहित्य गर्दिश है विदेशी सोच वाले लाल झंडे की ये साजिश है जो लेनिन लिख सके वो आज तुलसी और कबीरा है वही विद्वन, वही है पद्म, वो भारत का हीरा है वही हैं बुद्धिजीवी जो सलाम-ए-लाल गायेंगे”
यह हिस्सा तल्ख हुआ है, लेकिन वामपंथियों पर मेरे इस प्रहार से भी राम का कोई वास्ता नहीं। मेरा निजी विचार है कि वामपंथी इतिहासकार पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे हैं। उनकी सोच नें और हर किसी का यूनियन बनाने की प्रवृत्ति नें साहित्य, कला और इतिहास का कूडा कर दिया। बहुत साहित्यिक यूनियनों का सदस्य रह कर देख लिया और मेरा अपना अनुभव यही कहता है। यहाँ भी मुझे सींग पैने करने की बात नहीं समझ आती। और इस के बाद मेरी कविता का अंतिम पद विशुद्ध आक्षेप है, व्यंग्य है, प्रहार है...वह भी व्यवस्था पर।
“बडे इंजीनियर बनते थे तुम भी राम, लानत है तुम्हारा पुल हजारों साल ज़िन्दा रह गया अचरज असंभव इस लिये कि पुल तो अब भी लाख बनते हैं बरस दस चल गये तो चल गये फिर गल गये सारे इसी ठेके में रोजी रोज पाता ही नहीं रामू मगर कंट्रेक्टर, नेता, मिनिस्टर बन गये सारे अगर सालों चलेंगे पुल तो कुत्ते घाँस खायेंगे”
क्या उपर की पंक्तियाँ सच नहीं? मैने राम के माध्यम से पूरी व्यवस्था को कटघरे में खडा किया है...लेकिन इसे साम्प्रदायिक विश्लेषण से जोड कर मेरी सोच के कत्ल करने का प्रयास हुआ, मैं यह महसूस करता हूँ। मेरी कविता नें राम के होने या न होने पर कहाँ सवाल खडे किये हैं? मैंने अपनी कविता में एसा कोई प्रश्न नहीं किया, जो प्रश्न किये उसके मर्म तक नहीं पहुचा गया। सबसे अधिक दुख एक पाठक की तुलना तोगडिया से करने पर हुई। यह वैसा ही है कि असहमत व्यक्ति को गालियाँ देने लगो..इस मनोवृत्ति से बचा जाना चाहिये।
उडीसा के भूखे बच्चों के लिये राम जिम्मेदार नहीं, हाँ यदि बच्चे रोटी माँगेगे तब सरकारें राम का झुनझुना अवश्य बजायेंगी। क्या इस देश में बुद्धिजीवी जैसी कोई कौम है? यदि नहीं तो आप मेरे माथे पर साम्प्रदयिक होने का लेबल लगा सकते हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
राजीव जी,
आपने कहा- सबसे अधिक दुख एक पाठक की तुलना तोगडिया से करने पर हुई। यह वैसा ही है कि असहमत व्यक्ति को गालियाँ देने लगो..इस मनोवृत्ति से बचा जाना चाहिये।
पाठक की टिप्पणी मैं फिर जोड़ता हूँ, जिस के कारण ऐसी तुलना हुई थी|
...आप भी वैसी ही बात कर रहे हैं जैसी "वो" लोग करते हैं जिनके लिए अपनी आस्था की माँ-बहन करना और दूसरों की मान्यताओं को ठप्पा लगाना सबसे बड़ा धर्म लगता है....
ऐसी भाषा का इस्तेमाल कैसी मनोवृत्ति को दर्शाता है, यह आप शायद बेहतर समझते हों।
ख़त्म करने से पहले एक बात और, आपने कहा कि उड़ीसा की भूख के लिए राम ज़िम्मेदार नहीं है।
यदि ज़िम्मेदार ही नहीं है तो वह है क्यों?
मैं भी कोई बुद्धिजीवी नहीं हूँ। जो कहा सुना, उसके लिए क्षमा चाहता हूं।
मैं शायद गलत मंच पर तर्क (या कुतर्क????) करने लगा था। भविष्य में ध्यान रखूंगा।
सबके समय के लिए बहुत धन्यवाद।
वाह राजीव जी मज़ा आ गया कविता और उसपर इतनी सारी टिप्पणीयाँ...मै तो बस एक ही बात कहना चाहूँगी...वाह! मज़ा आ गया क्या जंग छेड़ी है आपकी कविता ने दिल के तार झंकृत कर दिये...
हमारा मन, हमारी आत्मा थे, प्राण बनते थे
तुम्हें माना तो हमको था यकीं उन संस्कारों पर
जहाँ बेटा, पिता की आन पर घर त्याग सकता है
जहाँ भाई खडाऊँ ही पे अपने ताज को धर दे
कोई उर्मिल, भला क्या आज सदियों जाग सकता है?
बहुत हैं खोखले आदर्श, हम होली जलायेंगे
इससे खूबसूरत और क्या हो सकता था...
सुनीता(शानू)
मैं दुबारा इस बहस में भाग नही लेना चाहता था, मगर मन को मार नही सका....
किन्ही अवनीश जीं की टिपण्णी पढी तो लगा की कुछ कह ही दूँ...(अब तो "तोगड़िया" होने की उपाधि मिल ही गई है, सो मुहफट होने में बुराई नहीं है... )..
अवनीश जीं ने लिखा, "इस पूरी चर्चा में गौरव की बात ही तार्किकता के साथ खडी होती नज़र आती है. अगर हमारी संसकृति में कुछ कमियाँ हैं तो उन्हे मान लेने में कोई बुराई नही हैं. समाज और जीवन ऐसे ही बेहतर बनता है."
अवनीश जीं, आपने ये फैसला कैसे सुना दिया कि पूरी तार्किकता के साथ सिर्फ़ एक ही पाठक ने अपनी बात रखी है...बाकी पाठक क्या बेमन से जो मरजी आया लिखते जा रहे थे? ठीक है, ये आपके व्यक्तिगत विचार हैं, मैं पूरा सम्मान करता हूँ लेकिन इस बात को कैसे मान लूँ कि हमारी संस्कृति की जो कमियाँ आपको दिख रही हैं, वो वाकई में कमियाँ ही हैं...ज़रा इन "कमियों" को अपने "सुतर्कों" से स्पष्ट करें....
एक बात और, जिन्हे ये लगता है कि वो ग़लत मंच पर कुतर्क करने लगे हैं और आगे ध्यान रखेंगें उन्हें इस बात का ज्यादा ध्यान रहे कि हिंद्युग्म का यह मंच बिल्कुल सही है, हाँ उनके "तथाकथित" तर्क कोरे "कुतर्क" हो सकते हैं....
जिन्होंने मेरे अल्पज्ञान की दुहाई दी है और मुझे भारत में गरीबी के सही आंकडे और निदान के "रामसेतु निवारक" उपाय सुझाए हैं, उनका बहुत-बहुत शुक्रिया... मैं ख़ुद भी एक बेहद साधारण परिवार से हूँ जिनके यहाँ बेटे को होश संभालते ही बाप ये अहसास दिलाने लगता है की "आई आई टी" या मेडिकल ही सब कुछ है, बाकी "राम-वाम" ढकोसले...शायद इसीलिये की बाप को ये अहसास होता है कहीँ "यदि गरीबी रेखा को बिल्कुल सही मापदंडों के अनुसार पुनर्परिभाषित किया जाए तो इस देश के 75% लोग उसके नीचे होंगे।" और फ़िर हमारा घर भी उसी श्रेणी में आ जायेगा.....
खैर,,,राम के होने के बारे में जिन्हे कोई सबूत न मिल सका, उनके खानदान की "राम" के खानदान से कोई दुश्मनी न होने की जानकारी देने का भी कोटि-कोटि धन्यवाद..
मेरे पास भी राम के होने के कोई प्रमाण नहीं हैं और न ही मैं किसी को जबरन ये मनवाने पर तुला हूँ....
30 किलोमीटर लम्बे पुल का 300 मीटर हिस्सा तोड़कर करोड़ों रुपए बचते हैं तो यदि ईश्वर है भी, तो क्या वह नाख़ुश हो जाएगा?
नहीं, कभी नाखुश नही होगा (अगर ईश्वर नाम की कोई चीज़ है तो....)
क्या आस्था केवल यही है कि सवाल न उठाने दिए जाएँ, सत्य की खोज और वैज्ञानिकता का मज़ाक उड़ाया जाए?
नही, कतई नहीं...लेकिन मेरा कहना तो बस यही है कि मेरी आस्था को चोट वहा पहुचती है जब "सत्य" कि "वैज्ञानिक" तरीके से खोज की मार्फ़त नए राजनितिक दांव-पेंचों कि खोज होती है, महज इतना ही और कुछ नही....
अपनी आस्था को गाली देकर और दूसरे की मान्यताओं पर सहानुभूति प्रकट कर जो लोग या "समूह" अपने को दूध का धुला समझते हैं, मेरी टिपण्णी के शब्द सिर्फ़ उनके विरोध में थे...उन्हें व्यक्तिगत मानकर मुझे "तोगडिया" की पदवी देना मेरे लिए ज़मीन खिसकने जैसा था...खैर...
मेरे लिए राम धर्म हैं या संस्कृति ये तो मुझे नही मालूम मगर सिर्फ़ बहती धारा को देखकर राम का नाम लेने वालों के विरोध में खड़ा होना और ये सोचना की राम सिर्फ़ राजनीति का शो-पीस रह गए हैं और "तोगड़िया वादियों' की बपौती निरी अपरिपक्वता है और कुछ नही...राम "तोगडिया" साहब के पहले भी थे और उन पार्टियों से भी सदियों पहले जो राम नाम से अपना पेट पालती हैं....फर्क शायद यही है की पहले राम का नाम लेने वाले इस खौफ में कभी नहीं थे की वो "तथाकथित बुद्धिजीवियों" द्वारा "साम्प्रदायिक" घोषित कर दिए जायेंगे....
हे राम !!
निखिल
चलिए बात को राम चरित मानस और उसमें वर्णित राम सेतु बनने के पहले के प्रसंग से शुरू करता हूँ शायद इस बात को किसी वामपंथी ने नहीं लिखा था
”विनय ना मानत जलधि जड गये तीन दिन बीति बोले राम सकोप तब भय बिन होई ना प्रीत”
भाई समुद्र को तो पता था कि राम ईश्वर के अवतार हैं फिर वह राम को पुल क्यों नहीं बनाने दे रहा था? क्या वह रावण के पक्ष में था? या इसलिए कि रावण के पास पुष्पक था विमान और वह समुद्र को बिना कोई नुकसान पहुँचाए आवागमन कर सकता था.
जबकि राम अपनी सेना को ले जाने के लिये उस पर एक पुल बनाना चाहते थे
क्या समुद्र् को अपने पर्यावरण और उसमें बसने वाले जीवन की चिंता थी.
फिर जब उसने देखा की राम तो पूरा समुद्र ही सुखाने के मूड में आ गए हैं तो
वो बेचारा क्या करता...पूरा समुद्र सूखने से तो एक पुल का बनना ही अच्छा है
और आप लोग यह भी देखें यह एक ईश्वर के अवतार् की भाषा है “भय बिन होई ना प्रीत” राम डरा कर प्रेम करना चाहते है!..क्या बकवास है!
खैर अगर वहाँ समुद्र में कोई संरचना है चाहे वह वानर सेना की बनाई हुई हो या प्राकृतिक कारणों से बनी हो मैं उसके तोडे जाने का विरोध करता हूँ
लेकिन इसका कारण पर्यावरण को ले कर मेरी चिंता है ना कि राजीव जी की तरह हिन्दू संस्कृति पर हुआ हमला. मैं हिन्दू संस्कृति के बजाए भारतीय संस्कृति पर ज्यादा भरोसा करता हूँ जो तमाम संस्कृतिओं के मेल जोल से बनी है
धन्यावाद!
अवनीश जी
आप कविता की समझ ही नहीं रखते( मेरी कविता पर जो आपने समझा उससे मैं यही समझ सका), क्षमा करेंगे मैं आपकी महानता के योग्य नहीं।
इस कविता से केवल आपको ही नहीं उन सभी को साम्प्रदायिकता की बू आयेगी जिनके लिये मैंने तीसरा पद लिखा है..आप भी उन्ही में से एक हैं।
राम पर इस कविता में किसने चर्चा की है? हाँ जिस किस्म की मिर्च का आपने अनुभव किया उससे मैं प्रसन्न हूँ कि कविता सही जा रही है।
जिस इतिहास को मिटाने की बात कर रहा हूँ उसका सूत्रपात विचारकों नें कर दिया है। जाईये फूल राहों में बिछाने की आपकी बारी हैं..इस बार क्या भारत को चीनी उपनिवेश देखना चाहते हैं....?
राम को न रोयें उन्हें जो करना था कर गुजरे...मैं तो इस कविता का संक्षेपण यही कह कर करूंगा कि:
"जिसको न निज गौरव यथा, निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा, और मृतक समान है"
मैं जिस संस्कृति पर हमले की बात यहाँ कर रहा हूँ उसका पत्थर तो आप स्वयं बन रहे हैं-हिन्दू आपका जोडा शब्द है तो स्वीकार्य है। विडम्बना यही तो है कि आप जोच को बडे सुलझे हुए हथियार से मारना चाहते हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अवनीश जी,
सेतू तोडने से प्रयावरण पर क्या असर पडने वाला है..जो पडेगा वो दीर्घकालीन नहीं होगा.. क्या सागर के नीचे बहुत से ज्वालामुखी नहीं हैं जो नित्य ही कुछ न कुछ परिवर्तन लाते हैं.. फ़िर देश के उत्थान के लिये एक सांकेतिक धरोहर को यदि मिटना पड रहा है तो विरोध क्यों और वो भी इस मंच पर...
इस रचना को कविता के रूप में ही लें और मन से न लगायें
:)कवि का हृदय बडा कोमल होता है. यह बात तो प्रमाणित हो गई.
क्या हो रहा है ये सब?
सजीव जी, ये सार्थक चर्चा है?
युग्म की ये हालत देख कर बहुत आहत हूँ, कोई भी मानेगा नहीं लेकिन हम सभी इन कुटिल राजनीतिकों के षडयंत्र का ही शिकार हुये हैं
इस मुद्दे पर राम का नाम डाला ही इसलिये गया था, अन्दाजा लगाइये कि अगर हम कुल २५-३० लोगों का समूह भी इससे नहीं बच सका तो बाहर क्या हो रहा होगा| राम, ईश्वर, धर्म, आस्था यह सब चर्चा के विषय नहीं हैं क्योंकि इनका कोई निष्कर्ष न निकला है न निकलेगा|सबकी अपनी विचारधारा है जो सभी ने अपने पीढीगत संस्कारों/अनुभवों से बनाई हैं शायद, वो नहीं बदलेगी और हम बदलने का प्रयास भी क्यों करें? राम हैं तो भी अच्छी बात है, नहीं है तो भी अच्छी बात है|इस बात पर सबके अपने तर्क दूसरों को कुतर्क मात्र ही लगेंगे|ऐसे तो अवनीश जी के प्रश्न भी सही हैं और दूसरे मित्रों के तर्क भी, बात फिर वही है कि सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं | व्यक्तिगत आक्षेप अथवा असंतुलित भाषा का प्रयोग निन्द्य है, युग्म का मंच इसलिये बिल्कुल नहीं है| क्षमा कीजियेगा लेकिन चर्चा यदि कविता को ले कर हुई होती तो अच्छा लगता लेकिन यहाँ हो कुछ और ही हो रहा है जो दुःखद है|गौरव जी माफ कीजियेगा लेकिन आप भी चर्चा करते तो मजा आता लेकिन ऐसा लग रहा है कि आप दूसरों को चिढा रहे है|निखिल जी आप आहत न हों (जब ओखली में सर दे ही दिया है तो मूसल तो पडेंगे ही :-) )....
पूरी विनम्रता से मेरा पुनः अनुरोध है कि कृपया चर्चा करें विवाद नहीं |आरोप-प्रत्यारोप से बचा जाये तो बेहतर है
आशा है कि इस तथाकथित "सार्थक" चर्चा पर शीघ्र ही विराम लगायेंगे आप लोग|
आपके तीरो नश्तर के इस खेल में
उड न जाये कहीं मेरा सर देखिये |
-- हिन्द-युग्म
सस्नेह
गौरव शुक्ल
अंत मे मैं क्यूँ वंचित रहूँ?
आखिर मैने क्या पाप किया है?
पर पात्रता कहाँ से लाऊँ?
खूब तमाशा हो रहा है...
तमाशा बन भी रहा है....
मगर किसका?
जरा सोंचो....
क्यूँ दिमाग खपायें इस प्रश्न पर, समय भी तो बर्बाद होगा!
आखिर अभी भी ढ़ेर सारे मुद्दे है
विवादित भी खुद को कहते हैं
और हिन्द-युग्म पर आयेंगे भी,
उसी समय दिमाग और समय लगायेंगे किसी सार्थक बौद्धिक परिचर्चा पर।
हँसी-हँसी मे गंगा के पास गए
सोचा था वही किनारे बैठ
लोटे से नहा लेंगे
पैर फिसल गया फिर दोस्तो
और हम भी सोचने लगे ये
कि
पानी तो अब सर के उपर से गुजर रहा है!
इसे साहित्यिक मंच ही रहने दें मित्रो!
संसद बना के क्या मिलेगा?
अभी डा साहब ही आए हैं,
कहीं बहिन जी और भैया आ गये ,
फिर हम सबको उसी भाषा मे बात करनी होगी,
जो कि आती सबको है
पर परहेज किए रहते हैं!
सस्नेह,
श्रवण
दिमागी गुहान्धकार का ओराँगउटाँग
स्वप्न के भीतर एक स्वप्न,
विचारधारा के भीतर और
एक अन्य
सघन विचारधार प्रच्छन्न !!
कथ्य के भीतर एक अनुरोधी
विरूद्ध विपरीत,
नेपथ्य संगीत !!
मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क
उसके भी अन्दर एक और कक्ष
कक्ष के भीतर
एक गुप्त प्रकोष्ठ और
कोठे के साँवले गुहान्धकार में
मज़बूत … सन्दूक
दृढ , भारी भरकम
और उस संदूक के भीतर कोई बन्द है
यक्ष
या कि ओराँगउटाँग हाय
अरे !डर यह है…
न ओराँग … ऊटाँग कहीं छूट जाये
कहीं प्रत्यक्ष यक्ष न हो ।
करीने से सजे हुए संस्कृत … प्रभामय
अध्ययन गृह में
बहस उठ खड़ी जब होती है -
विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
सुनता हूँ ध्यान से
अपने ही शब्दों का नाद , प्रवाह और
पाता हूँ अकस्मात
स्वयं के स्वर मे।
ओराँगउटाँग की बौखलाती हुई हुंकृति ध्वनियाँ
एकाएक भयभीत
पाता हूँ पसीने से सिंचित
अपना यह नग्न मन !
हाय हाय और न जान ले
कि नग्न और विद्रूप
असत्य शक्ति का प्रतिरूप
प्राकृत ओराँग … उटाँग यह
मुझमें छुपा हुआ है ।
स्वयं की ग्रीवा पर
फ़ेरता हूँ हाथ कि
करता हूँ महसूस
एकाएक गरदन पर उगी हुई
सघन अयाल और
शब्दों पर उगे हुए बाल तथा
वाक्यों में ओराँग … उटाँग के
बढ़े हुए नाखून !!
दीखती है सहसा
अपनी ही गुच्छेदार मूँछ
जो कि बनती है कविता
अपने ही बड़े बड़े दाँत
जो कि बनते हैं तर्क और
दीखता है प्रत्यक्ष
बौना यह भाल और
झुका हुआ माथा
जाता हूँ चौंक मैं निज से
अपनी ही बालदार सज से
कपाल की धज से ।
और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो
करता हूँ धड़ से बन्द
वह सन्दूक
करता हूँ महसूस
हाथ में पिस्तौल बन्दूक !!
अगर कहीं पेटी वह खुल जाय
ओराँग उटाँग यदि उसमें से उठ पड़े
धाँय धाँय गोली दाग दी जायेगी ।
रक्ताल …… फ़ैला हुआ सब ओर
ओराँगउटाँग का लाल लाल
खून … तत्काल …
ताला लगा देता हूँ मैं पेटी का
बन्द है सन्दूक !!
अब इस प्रकोष्ठ के बाहर आ
अनेक कमरों को पार करता हुआ
संस्कृत प्रभामय अध्ययन गृह में
अदृश्य रूप से प्रवेश कर
चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ !!
सोचता हूँ - विवाद में ग्रस्त कई लोग,
कई तल
सत्य के बहाने
स्वयं को चाहते हैं प्रस्थापित करना ।
अहं को , तथ्य के बहाने ।
मेरी जीभ एकाएक तालू से चिपटती
अक्ल क्षारयुक्त-सी होती है ……
और मेरी आँखें उन बहस करने वालों के
कपड़ों में छिपी हुई
सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखतीं !!
और मैं सोचता हूँ …
कैसे सत्य हैं -
ढाँक रखना चाहते हैं बड़े बड़े
नाखून !!
किसके लिये हैं वे बाघनख !!
कौन अभागा है वह !!
- मुक्तिबोध
देखा नहीं है आपने तो आज देखिये,
सिर काटने आए मेरे सिरताज देखिये...
मेरी ज़ुबा तराशने आए हैं ख़ुद वही,
जिनको पसंद है मेरी आवाज़ देखिये...
गौरव शुक्ला जीं,
हिंद युग्म पर हो रही गुटबाजी पर खेद प्रकट करने के लिए शुक्रिया..मुझे भी इस बात का काफ़ी दुःख है कि मैंने भी इस ओखली में सर दे डाला..
खैर, घर में मतभेद हों तो रिश्ते ख़त्म नही किए जाते....ये सब तकरार तो हमारी "युग्म-यात्रा" का हिस्सा हैं...
आपने सही कहा है कि राम का मुद्दा अच्छे-अच्छों की नींद ख़राब कर देता है, फ़िर हम कैसे अपने तर्क-कुतर्कों से इसे सुलझा पाते....
वैसे भी हमारा ध्येय विचारों की राजनीति में नही पड़ना है....न ही हमें ख़ुद को एक-दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में समय व्यर्थ करना चाहिए...बस अफ़सोस इसका है कि कवि राजीव जीं को भी अब कविता के अलावा अपना मुह खोलना पड़ गया...क्यों नही खोलते...ज़रा अवनीश जीं की टिपण्णी पर गौर करें...
"और आप लोग यह भी देखें यह एक ईश्वर के अवतार् की भाषा है “भय बिन होई ना प्रीत” राम डरा कर प्रेम करना चाहते है!..क्या बकवास है!"
आप असंख्य लोगों कि आस्था को "बकवास" कह देते हैं, सिर्फ अपने को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील साबित करने के लिए तो ये तो सरासर गलत है.......आपको इसी मंच से अविलंब माफ़ी मांगनी चाहिए....
आप लिखते हैं -
"लेकिन इसका कारण पर्यावरण को ले कर मेरी चिंता है ना कि राजीव जी की तरह हिन्दू संस्कृति पर हुआ हमला। मैं हिन्दू संस्कृति के बजाए भारतीय संस्कृति पर ज्यादा भरोसा करता हूँ जो तमाम संस्कृतिओं के मेल जोल से बनी है "
"राजीव जीं की तरह!!! "
मुझे तो पूरी कविता पढ़कर कहीँ नही लगा कि वो भारतीय संस्कृति में भरोसा नहीं रखते....या कि उनको पर्यावरण की चिंता नहीं है.....यहाँ आप अपने को "नीट " साबित कर रहे हैं, जिसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन जबरन राजीव जीं को बीच में क्यों ले आये....आप हमेशा रेफरी कि तरह फैसले क्यों सुनाते हैं...कौन मानेगा आपके फैसले...कहीँ आप खेल से बाहर ना हो जाएँ.....आपको यथाशीघ्र माफ़ी मांगनी चाहिए...
खैर, ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं........आपको बुरे लगें तो भी......
आख़िर में गालिब का एक शेर-
न सताइश कि तमन्ना, ना सिले की परवाह....
ग़र नही हैं मेरे अशआर में मानी ना सही....
निखिल आनंद गिरि...
DIL KO CHO LENE WALI KAVITA HAI.
BAS MALAL SIRF ES BAAT KA HOTA HAI KI KYO SANGH PARIWAR OUR US SE JUDE SANGTAN HI EN MUDDO KO UDHATE HAI?
KYO EK AAM HINDU CHUP RAHTA HAI?
KYA HINDU KA KHOON PAANI HO CHIKA HAI???
कविता पर होने वाली चर्चा जब बढ़ती है तो नये-नये इनपुट बढ़ते जाते हैं, उसमें कई ज़रूरी होते हैं और कई गैरज़रूरी। अमूमन चर्चा बढ़ने पर कविता पर बात नहीं हो पाती। चर्चा के लोकतांत्रिक मंच पर किसी भी प्रकार के विचार को रोकना एक तरह का वॉयलेंस होगा। हाँ, जब चर्चाकार व्यक्तिगत आक्षेप करें, तो स्थिति चिंत्य हैं। यद्यपि इसकी स्थिति युग्म पर कभी नहीं आई है।
कविता की बात करें तो चार अलग-अलग छंदों में कवि ने तत्कालीन भारत की बिगड़ती स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त की है।
यद्यपि पहली ही पंक्ति में जो संस्कार कवि ने गिनाये हैं, उनसे आजकल के बहुत से लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते।
राजनेताओं की मात्र चोंचबाजी का दुष्परिणाम हमारा देश जो झेल रहा है, उससे उत्पन्न एक आदमी की कसमसाहट दूसरे छंद से दृष्तव्य है।
जो लेनिन लिख सके वो आज तुलसी और कबीरा है
वही विद्वन, वही है पद्म, वो भारत का हीरा है
यह बात तो हर सवाली उठाता रहा है।
आज की तकनीक के जीवनकाल पर व्यंग्य करती हुई अंतिम पंक्तियाँ सबसे सुंदर हैं।
शायद यहाँ 'रामायण' शब्द के इस्तेमाल ने धर्मनिरपेक्षियों को आहत किया। इसलिए कविता को पढ़ना पहले ज़रूरी है, कमेंट को बाद में।
मैं उम्मीद करता हूँ कि यहाँ कोई भी पाठक किसी भी दूसरे पाठक की बात का बुरा नहीं माँगता होगा। फ़िर भी अगर इसकी थोड़ी भी आशंका है तो मैं निवेदन करूँगा कि चर्चा चाहे सुचर्चा हो या कुचर्चा उसका आनंद लें।
राजीव जी को बहुत-बहुत धन्यवाद, एक समसामयिक मुद्दे पर लेखनी चलाने के लिए. कविता के द्वारा राजीव जी ने वह सबकुछ कह दिया है, जो अपेक्षित था.
दूसरी बात, कतिपय टिप्पणियों पर है.
१) "लेकिन इसका कारण पर्यावरण को ले कर मेरी चिंता है ना कि राजीव जी की तरह हिन्दू संस्कृति पर हुआ हमला. मैं हिन्दू संस्कृति के बजाए भारतीय संस्कृति पर ज्यादा भरोसा करता हूँ जो तमाम संस्कृतिओं के मेल जोल से बनी है" - अवनीशजी.
हिन्दू-संस्कृति को थोड़ा और जानने की अपेक्षा है. ऐसा लगता है कि स्वघोषित निरपेक्ष होते हुए भी कहीं ना कहीं उन्हीं तथाकथित कलमघिस्सुओं की बात के समर्थक हैं. और कुछ नहीं तो एक बार माननीय सर्वोच्च न्यायालय के "हिन्दुत्व" संबंधी निर्णय से अवगत हो लें. वह संघ-परिवार की संस्था नहीं है.
२) कुछ टिप्पणीकारों ने आधुनिक भारत के विकास के लिए ".."सेतु(रिक्त स्थान पर अपनी सुविधा के शब्द जोड़ लें) के तोड़े जाने का समर्थन किया है तो भारत में ऐसी बहुत से स्थल,भवनादि हैं जो भारत की प्रगति में बाधक हैं, उन्हें हटाकर तरक्की की ओर बढ़ना ज्यादा सस्ता होगा. (गुजरात के बड़ौदा शहर में एक अतिक्रमण [विकास में बाधक किन्तु किसी धर्मविशेष से संबद्ध] हटाया गया था, उस घटना को लेकर कितने समाचार बने थे,याद करने लायक है, छद्मप्रगतिवाद के पुरोधाओं ने भी उस समय क्या कमाल किया था, पुनः याद दिलाना आवश्यक नहीं समझता हूँ).
३) ऐसी बहुत सी बातें हैं जहाँ विज्ञान भी अपने को अशक्त समझता है तो क्या सिर्फ़ इस आधार पर हम नकारात्मक दृष्टिकोण बना लें !!
४) जहाँ तक संघ-परिवार को गरियाने की बात है तो "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के नाम पर ऐसा किया जा सकता है. जरा नजदीक से इसके आनुषांगिक संगठनों एवं उसके कार्य-कलापों को देखने की जरुरत है. ये संगठन आप और हमसे ज्यादा "भारत एवं उसकी जनता" के विकास के लिए कर रहे हैं.
अंत में राजीव जी को भारतीय-जनमानस को प्रतिबिम्बित करने वाली इस कविता के लिए धन्यवाद देते हुए एवं कविता के कुछ अंशों पुनः दुहराते हुए अनुमति लेता हूँ-
अम्बर पर जो हम थूकें, तरक्की गीत गायेंगे
चलो इतिहास के पन्नों से रामायण मिटायेंगे ॥
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)