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Wednesday, September 26, 2007

एकलव्य


आज उन्नीसवीं कविता की बारी है। सुबह से आपलोगों को नई कविता का इंतज़ार रहा होगा। कुछ तकनीकी समस्या के कारण हम कविता प्रकाशित नहीं कर सके। आज इस स्थान की कविता ऐसे कवि की रचना है जो अब हिन्द-युग्म के नियमित सदस्य हो चुके हैं और कहानी-कलश में अपनी कहानियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। बहुत जल्द ही अपनी कविताओं के साथ भी वो स्थाई होंगे। हमारी यूनिकवि प्रतियोगिता में ये कई बार भाग ले चुके हैं और इस बार को छोड़कर हर बार इनकी कविता टॉप १० में रही है। आज 'एकलव्य' पढ़िए।

कविता- एकलव्य

कवयिता- श्रीकांत मिश्र 'कांत', चंडीगढ़


' एकलव्य' हूँ मैं ढूँढ़ता
हे ' द्रोण ' कहाँ हो ,
एकाकी शर संधान से
हे तात ! उबारो।

प्रश्न नहीं मेरे लिये
बस एक अंगूठा ,
कर लिये कृपाण हूँ
लो हाथ स्वीकारो।

है चाह नहीं देव !
अर्जुन की धनुर्धरता ,
एकलव्य ही संतुष्ट मैं
बस शिष्य स्वीकारो।

उर ज्वाल नहीं संभलती
गुरुवर ! शरण में लो
मम् शीष भी है समर्पित
चरणों में बिठा लो।

वन वानिकों का मीत मैं
शाकुन्तलों का सौख्य
गुरुदेव तज प्रासाद
हृदय वन में पधारो।

कानन में डोलता हूँ
लिये धधकता आगार ,
दुष्यन्त रूप धार
मृगया न बिचारो।

एकलव्य आज ' कान्त'
उर में धधकता लावा
असहाय ' युग एकलव्य' को
इस बार उबारो।


रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰७५, ८॰७४४३१८
औसत अंक- ८॰२४७१५९
स्थान- चौदहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-६, ८॰२४७१५९(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰१२३५७९
स्थान- उन्नीसवाँ
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

RAVI KANT का कहना है कि -

श्रीकांत जी,
सुन्दर रचना!!

प्रश्न नहीं मेरे लिये
बस एक अंगूठा ,
कर लिये कृपाण हूँ
लो हाथ स्वीकारो।

एकलव्य आज ' कान्त'
उर में धधकता लावा
असहाय ' युग एकलव्य' को
इस बार उबारो।

ये भाव पसंद आए।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आदरणीय श्रीकांत जी,


एकलव्य को द्रोण कभी नहीं मिले। और फिर एकलव्य ही द्रोण से अधिक विशाल हो कर इतिहास पर बिना अंगूठे का एसा हस्ताक्षर कर गये जो आज भी युग-पथप्रदर्शक है।

एकलव्य आज ' कान्त'
उर में धधकता लावा
असहाय ' युग एकलव्य' को
इस बार उबारो।

आपके भीतर के एकलव्य को सादर नमन।


*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर लगी आपकी यह रचना श्रीकांत जी
भाव बहुत सही और सुंदर लगे इस के ...

उर ज्वाल नहीं संभलती
गुरुवर ! शरण में लो
मम् शीष भी है समर्पित
चरणों में बिठा लो।

गीता पंडित का कहना है कि -

श्रीकांत जी,

रचना सुन्दर...

प्रश्न नहीं मेरे लिये
बस एक अंगूठा ,
कर लिये कृपाण हूँ
लो हाथ स्वीकारो।

एकलव्य आज ' कान्त'
उर में धधकता लावा
असहाय ' युग एकलव्य' को
इस बार उबारो।


भाव सुंदर ....

Sajeev का कहना है कि -

अच्छी रचना है श्रीकांत जी

शोभा का कहना है कि -

श्रीकान्त जी
आप बहुत ही सशक्त वाणी के कवि हैं । एक-एक शब्द सधा हुआ और सार्थक । एकलव्य ही की तो
आवश्यकता है । द्रोण तो मिल ही जाएँगें । विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ पसन्द आईं -
है चाह नहीं देव !
अर्जुन की धनुर्धरता ,
एकलव्य ही संतुष्ट मैं
बस शिष्य स्वीकारो।
बहुत-बहुत बधाई ।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

शब्द-संचयन बढ़िया है, लेकिन कविता ने मुझे प्रभावित नहीं किया।

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