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Wednesday, September 26, 2007

राम नाम सत्य है


सीता धरती में समा जाने के बाद
पूछती है पृथ्वी से
”क्या इसी दिन के लिये सहे मैंने इतने संताप
कौन था वो?
जिसने धनुष तोड कर जीता मुझे”

पृथ्वी के भीतर धधकता है लावा

शबरी भटकती है जंगलों में अकेली
गूँजता है उसका विलाप
”जूठे बेरों की झूठी कहानी हो रामा, राजा के भवनवा
बनिगे तुम् राजा सुधि हमरी बिसरानी, राजा के भवनवा”

केवट गुस्से में धोता है अपनी नाव
“कौन बैठा था इस पर?
क्या वही? क्या वही?”

अहिल्या पिच्च से थूकती है
“किसने छुआ था मुझे?
और वह भी पैरों से
क्या मतलब है इस मर्यादा का?
कैसा है यह उत्तम पुरूष?”

शम्बूक अपना कटा सिर उठा कर
युद्ध की घोषणा करता है

संजय बताता है धृतराष्ट्र को
”सिसकियाँ आग में तब्दील हो रही हैं महाराज!
कोई नहीं रोक पा रहा है उन्हें न घंटे न घडियाल!”

धृतराष्ट्र सुनता है आत्मलीन

“राम नाम सत्य है.. राम नाम सत्य है”

एक शवयात्रा गुज़र रही है
उस काल से इस काल तक.

- अवनीश गौतम

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21 कविताप्रेमियों का कहना है :

Vikash का कहना है कि -

"एक शवयात्रा गुज़र रही है
उस काल से इस काल तक."
बहुत ही साहसी रचना है. बधाई

Avanish Gautam का कहना है कि -

:)
राजीव जी के लिये ससम्मान.

Admin का कहना है कि -

कविता में दम है साथ ही एसा प्रतीत होता है कि मुख्य बाम तक पहुचने से पुर्व ही कविता का अन्त कर दिया गया है बाकि राजीव से सहमत हूं।

RAVI KANT का कहना है कि -

अवनीश जी,

अहिल्या पिच्च से थूकती है
“किसने छुआ था मुझे?
और वह भी पैरों से
क्या मतलब है इस मर्यादा का?
कैसा है यह उत्तम पुरूष?”

शम्बूक अपना कटा सिर उठा कर
युद्ध की घोषणा करता है

साहसिक प्रयोग किया है आपने।

एक शवयात्रा गुज़र रही है
उस काल से इस काल तक.

राजीव जी ने ठीक कहा है इसमे ’इस काल तक’ वर्त्तमान से जुड़ा हुआ होना चाहिए था जबकि कविता अतीत में ही उलझी हुई दिखती है।

Avanish Gautam का कहना है कि -

कृपया आप लोग कविता को फिर से पढें. कविता अपने संदर्भों में अतीत से और पात्रों की प्रतिक्रिया में हमारे वर्तमान से जुडी हुई है.

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

अवनीश जी,

पहली बार कविता पढ़ी थी तो मन में ऐसा ही कुछ आया था कि कवि भावनाओं की अधिकता के चलते अपनी बात पूरी नहीं कह पाया है। क्योंकि मुझे कविता में बहुत सारे आरोप दिख रहे थे, लेकिन उनका कारण नहीं दिख रहा था कि उसमें राम का ही दोष क्यों है?
क्योंकि राम ने तो न शबरी के लिए बुरा किया, न अहिल्या के लिए, न केवट के लिए।
हाँ, सीता के संदर्भ में मैं राम की आलोचना करता हूँ।
अब आपकी टिप्पणी पढ़कर मैंने कविता को दूसरी दृष्टि से देखा तो समझ गया।
संदर्भ पुराने हैं और प्रतिक्रियाएँ दिखाते हुए आपने वर्तमान समय दिखाया है। अब मुझे इसके दो अलग अलग रूप दिख रहे हैं- एक तो यह कि ये सब आरोप भगवान पर हैं (राम केवल माध्यम है, वह कोई भी रूप हो सकता था, ऐसा मुझे लगा) और आरोपों का कारण सामाजिक, सांस्कृतिक दुर्व्यवस्था है।

दूसरा यह कि आरोप केवल राम या हिन्दू संस्कृति पर ही मढ़े गए हैं।

यदि आपका पहला दृष्टिकोण है तो मैं वैचारिक रूप से भी आपके पक्ष में हूँ और कविता भी बहुत उत्कृष्ट है।
यदि आपका दृष्टिकोण दूसरे वाला है तो कविता अधूरी है और आरोपों का कोई कारण नज़र नहीं आता।

आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।

Rajeev Ranjan का कहना है कि -

अवनीश जी..

आपके पुन: पढने के अनुरोध के बाद कई बार पढा । सीता को ले कर राम पर आपका आक्षेप, शबरी के बेर (इस प्रसंग पर आप गलत बात को भी कितनी खूबसूरती से सही बना ले गये है, खैर जहाँ न पहुँचे रवि...), केवट नें नाव कब धोई? (खैर आरोप तो तथ्य नहीं माँगते), आहिल्या पर आपकी बात (शायद इन्द्र ही सही रहे होंगे आज के परिवेश में), धृतराष्ट्र (संजय नें उस जमाने के वीडियो में जो देखा) की आत्मलीनता....फिर इस सब का राम नाम सत्य, कहाँ है कथ्य जिसकी आप बात कर रहे हैं?


*** राजीव रंजन प्रसाद

Avanish Gautam का कहना है कि -

देखिए राम से मेरी कोई व्यकितगत दुश्मनी नहीं है लेकिन आप सभी लोग जानते होंगे कि राम को जड सामंती हिन्दू व्यवस्था के पुनुरुथान के लिये एक डिवाइस की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. अब सवाल यह उठ्ता है कि राम ही क्यों? कोई और देवता या पात्र क्यों नही तो इसका बहुत सीधा जवाब है कि राम के चरित्र में वो सारी बातें है जो हिन्दू सामंती व्यवस्था के पक्ष में जाती हैं


1 यह चरित्र स्त्री विरोधी है
{प्रसंग: सीता, सूर्पणखा, शबरी ( राम के राजा बनने के बाद उस आदिवासी महिला की सामाजिक स्थिति के बारे में राम ने क्या किया? क्या सिर्फ अपनी भूख मिटाने के लिये जूठे बेर खाये गये. एक कहावत भी है भूख ना देखे जूठा भात)

2. यह चरित्र पितृ सतात्मक समाज का प्रतिनिधि है {जैसा पिता कहतें हैं जैसा गुरू कहतें जैसी परम्परा कहती है उसका अक्षरश: पालन करता है. एक जिज्ञासु सवाल खडे करने वाला और गलत चीजों को बदल देने वाला युवा यह नहीं हैं रावण को भी यह इसलिए मारता है कि रावण ने सीताहरण किया था (व्यकितगत दुश्मनी)
ऐसा प्रसंग कहीं नहीं है जहाँ रावण अपनी प्रजा को सताता हो}

3 यह दलित विरोधी है (शम्बूक और अन्य प्रसंग)

5 सदियों जनता की राम को ले कर इतनी जबरदस्त कन्डीशनिग की गई है कि वह कोई और विमर्श सुनना ही नही चाहती चाहे राम के नाम पर कितना भी खून क्यों ना बह जाए.



वास्तव मे यह कविता इसलिये लिखी गई कि राम एक जाल है इसमें ना फसें इसी में देश का हित है.

एक हिन्दू होने के नाते यह कहना मेरा फर्ज़ भी बनता है कि मेरा धर्म और उसका समाज ज्यादा संवेदनशील हो, ग्रहणशील हो, प्रगतिशील हो.


मैं अगर मुस्लिम होता या ईसाई या कोई और तो सबसे पहले उसकी कमियों की ओर इशारा करता. अब क्या करू अगर हिन्दू हूँ और उस पर भी यह कि मेरे पास कुछ विचार भी हैं.

बकौल गालिब
"आशिक़ हूँ माशूक़ फरेबी है मेरा काम
मजनू को बुरा कहती है दुनिया मेरे आगे"


अंत में राजीव जी को एक मुस्कान और.
:)

गौरव जी आप भी देखें एह मेरे विचार हैं.

गीता पंडित का कहना है कि -

अवनीश जी,


सीता धरती में समा जाने के बाद
पूछती है पृथ्वी से
”क्या इसी दिन के लिये सहे मैंने इतने संताप
कौन था वो?
जिसने धनुष तोड कर जीता मुझे”

पृथ्वी के भीतर धधकता है लावा


सीता के संदर्भ में मैं हमेशा राम को कटघरे में खङा करती रही हूं....लेकिन शबरी,अहिल्या,
केवट..पर आपकी लेखनी ने कुछ ऐसा कहा है....जिसने.....राम के समस्त जीवन को ही कटघरे में खङा कर दिया है....

बचपन से।" मर्यादा-पुरुशोत्तम " राम के रूप में "रामायण" के दोहे-चौपाई मंदिर की घण्टी की तरह सुबह-सवेरे घर में गूंजा करते थे....आज सब ....बिल्कुल अलग संदर्भ............,
एक अलग प्रासंगिकता....समझ नहीं पा रही हूं....सोचने का मार्ग.......प्रश्स्त किया है आपने....शायद दोबारा...फिर आउंगी....

क्या मतलब है इस मर्यादा का?
कैसा है यह उत्तम पुरूष?”....?????

Sajeev का कहना है कि -

सचमुच बहुत साहसी कविता है, चुप रहना भी बेहतर है

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

अवनीश जी,

मैं नहीं समझता कि मैं आपकी कविता पर टिप्पणी करने के योग्य हूँ, बकौल सजीव जी "चुप रहना भी बेहतर है"।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Avanish Gautam का कहना है कि -

..अरे अभी तो और बात होनी थी. आप तो अभी से निकल लिये :)

Mohinder56 का कहना है कि -

अवनीश जी,

एक कहावत है... अगर गडे हुए मुर्दे उखाडे जायें तो बास (दुर्गन्ध)के सिवा कुछ नहीं मिलता.. और अगर ये किसी धार्मिक विषय की खुदाई हो तो बस कोई क्या कह सकता है..
आपकी यह रचना निश्चय ही कवि के भाव हैं.. सीता, शबरी, अहिल्या, श्म्बूक, संजय, धृतराष्ट्र व राम शाब्दिक प्रतीक मात्र हैं न कि उनके आत्मिक भाव.

Avanish Gautam का कहना है कि -

जी मोहिन्दर जी बिल्क़ुल ठीक यह पात्र प्रतीक मात्र हैं जिनके सहारे मैने दलित और स्त्रियों की स्थिति और उनके जागरण की बात की है. प्रतिक्रियावादी यह देख भी नहीं पाते कि उस काल से इस काल के बीच में कितनी शव यात्राएं गुज़र गई. यह शव यात्राएं समानता की थी. स्वतत्रता की थीं सम्मान की थीं. अब यह जागे हुए लोग अगर इन प्रतीकों की शव यात्रा निकालना चाहते हैं तो क्या गलत करते है.

Anonymous का कहना है कि -

अवनीश जी !! कविता पढ़कर पहले जो विचार आ रहे थे, आपकी टिप्पणी पढने के बाद उनमें किञ्चित् परिवर्तन आया. फिर भी कुछ कथ्य है...
१) राम को गलत ठहराना बहुत सरल है, जैसे बाली-वध की घटना. किन्तु मित्रता के दृष्टिकोण से अनुचित भी नहीं है. दूसरे "शठं शाठ्यं समाचरेत्" की नीति का ही पालन यहाँ है.
२) यह सही है कि "जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि" के अनुसार आपकी दृष्टि ने राम के सत्तासीन होने के बाद की शबरी को इस रूप में देख लिया है, लेकिन ऐसा ही हुआ होगा, मानने का दिल नहीं करता.
३) राम "मर्यादा पुरुषोत्तम" कहे गए हैं, कहीं भी उन्हें "ईश्वर" नहीं कहा गया है और उनके द्वारा किस स्थल पर अमर्यादित आचरण किया गया है?

हाँ, यह भी विचारणीय है कि राम के विरोध और समर्थन के द्वारा राजनीति करने वालों ने कुछ ज्यादा हीं अराजकता ला दिया है.

विश्व दीपक का कहना है कि -

अच्छी रचना है,
अब इसमें कहे गए विचार कितने तर्कसंगत हैं, वह तर्क या तथाकथित कुतर्क के माध्यम से मैं उद्धृत नहीं करना चाहूँगा। माफ करेंगे।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

स्त्रियों की दशा, दलितों की दशा उत्तर वैदिक काल के बाद से (मनुवादियों के काल से) लेकर अब तक बुरी बनी हुई है। ऐसे में शायद तुलसीदास का राम का निम्न वर्ग की महिलाओं-पुरूषों के साथ उठना-बैठना दिखलाना समाज की सोच बदलने की दिशा में एक प्रयास कहा जा सकता है।

हाँ, लेकिन तुलसीदास के राम का पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन, सीता का बनवास आदि उन्हें उस समय का मर्यादित पुरूष भले ही सिद्ध करता है, आज उसकी ज़रूरत नहीं है।

अवनीश जी,

राम लोगों में रचे-बसे हैं, उनको निकालना तो बहुत मुश्किल है, हाँ आप अपने राम का रामायण लिखिए, शायद कुछ असर हो।

कविता विचार-प्रधान है, लेकिन काव्य-तत्व के नाम पर कुछ नहीं है। एक वाक्य की तरह पढ़ा जा सकता है। और जहाँ दुबारा-तीबारा पढ़कर समझना हो, वो एक तरह की जबरदस्ती होती है।

Anonymous का कहना है कि -

राम एक विचार के प्रति सचे है, पर ख़ुद के प्रति कितने सचे है, ये प्रश्न हमेशा उठेगा. राम राज में वह केवल विचारों के प्रति सचे दिखते हैं, वह विचार जो तब प्रचलित थे.

Anonymous का कहना है कि -

एक ने पुछा " क्या राम सेतु है ? "
मैने कहा
" हा
राम
से
तु
है "

आज आपमे जो अच्छा है उसके लिए आप राम के मानस को कोइ श्रेय नही दे रहे है । जो बुरा है उसके लिए राम को कोस रहे है । एसे विचार आत्मघाती है ।

अपना परिचय देने से डरने वाले अविनाश से क्या अपेक्षा की जा सकती है ।

Anonymous का कहना है कि -

भाइ अवनिश

आपके विचारो के अधिकार के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए अपनी आस्था को बचाना चाहता हु । :

शबरी को आप दलित या आदिवासी का प्रतीक मानते है तथा श्री राम के उनके जुठे बेर खाने की श्रद्धा की आप प्रशंसा की बजाए आलोचना कर रहे है । क्या यह उचित है ।

विश्व मे जहा रामायण नही है वहा भी पित्रुसत्तामत्मक व्यवस्थाए है । रामायण के अलावा आपको अन्य कारण नही दिखते है ।

आप का मन जातिय राजनिती एवम घ्रुणा के भाव से भरा है एसा लगता है । या आप भी भारत मे जातीय फुट डालो और राज करो एसे किसी विचार्धारा के प्रभाव मे है एसा लगता है ।

shyam gupta का कहना है कि -

एक मूर्खतापूर्ण कविता है...राम के अर्थ तक पहुंचने के लिये , बहुत सा ग्यान व वस्तुओं के तत्वार्थ समझने की आवश्यकता पढेगी---बस राम(हिन्दू धर्म) की बुराई करो और प्रसिद्धि के साथ रोटी-मलाई खाओ-यह आज का धर्म है ...

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