हम कल तक जुलाई माह की यूनकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता में आईं कविताओं में से टॉप १० कविताओं को प्रकाशित कर चुके हैं। हमेशा से हमने ग़ौर किया है कि दो कविताओं के मिले अंकों में दशमलव का ही फ़र्क होता है। कभी ऐसा नहीं होता कि दो क्रमवार कविताओं के प्राप्ताकों में १ अंक का अंतर हो। हम टॉप १० कविताओं को जब चुनते हैं तो शेष कविताओं को छोड़ने का मलाल रह जाता है। हम धीरे-धीरे इसका भी समाधान निकालने की कोशिश में हैं। आज हम ग्यारहवीं स्थान की कविता 'अनोखा अवलोकन' लेकर आये हैं। इसकी रचयिता दिव्या श्रीवास्तव ने फिछली बार भी प्रतियोगिता में भाग लिया था, जहाँ इनकी कविता 'ज़ुदाई की शामें' इस बार की ही तरह ग्यारहवीं स्थान पर थी।
कविता- अनोखा अवलोकन
कवयित्री- दिव्या श्रीवास्तव, कोलकाता
चक्षुओं का आंतरिक
वातायन अनायास
ही खुल गया और
प्रेम के नवीन संसार का
अवलोकन हुआ......
टकराते मेघ और
दामिनी का चीत्कार
प्रेम के सृजन से
ज्यों अभिभूत हो
हर्षातिरेक शब्द फूटे हों
झुलसती धरती पर
पड़ता टिप-टिप जल
अपने प्रिय को तड़पते देख
ज्यों गगन के नैन
अश्रुओं से बह उठे हों
एक अल्हड़ का
लौटता प्राणप्रिय मीत
खनकती चूड़ियां, बजती
पैजनिया, ना जाने कितने
कंगन खन-खन टूटे हों
इस ओर से उस छोर तक
बिखरा है प्रेम ही प्रेम
आतंरिक वातायन खुल जाए
तो सभी को नजर आए............
रिज़ल्ट-कार्ड
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰५, ८॰५, ६॰५
औसत अंक- ७॰१६६६७
स्थान- नोवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-
७॰५, ६॰५, ८॰५, ७॰४५, ३, ७॰१६६६७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰६८६११११
स्थान- ग्यारहवाँ
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
acchi kavita hai .
शब्दचयन अच्छा है। कविता बहुत अच्छी है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
दिव्या की कविता बहुत अच्छी लगी.. दिव्या जी को बधाई.. कवि कुलवंत
कविता का विषय अच्छा है किन्तु प्रेम की वर्षा हो तो चीत्कार शब्द थोड़ा अजीब लगता है ।
वैसे सावन की वर्षा के लिए प्रतीक बहुत ही अच्छे लिए हैं । पता नहीं आन्तरिक वातायन
खुलने की आवश्यकता थी भी या नहीं क्योकि यह सब तो बहुत ही सहज़ ग्राह्य था ।
कविता अपने नाम को चरितार्थ करती है - अनोखा अवलोकन। शब्द और उपमान दोनो के लिये ही कवयित्री प्रसंशा की पात्र है।
दिव्या जी,
अपनी कविता से प्रेम-माधुर्य का रसास्वादन कराने के लिये धन्यवाद। रम्य रचना है।
एक अल्हड़ का
लौटता प्राणप्रिय मीत
खनकती चूड़ियां, बजती
पैजनिया, ना जाने कितने
कंगन खन-खन टूटे हों
भावों का सजीव चित्रण किया है आपने।
दिव्या जी..
आप की कविता बहुत अच्छी लगी..
आप ने जो अवलोकन दर्शाया है वो काबिले तारीफ है..
शिल्प की द्रष्टि से कविता बहुत प्रभावित करती है..
एक नयापन देखने को मिला आप की कविता में
बहुत बहुत बधाई..
आप से बहुत ज्यादा अपेक्षायें रहेंगी..
आभार..
दिव्या जी! कविता अच्छी लगी. कुछ भाषा व शिल्पगत कमियाँ हैं जिन्हें थोड़े प्रयास से सुधारा जा सकता है. जैसे शोभा जी का बताया गया ’चीत्कार शब्द का प्रयोग’. ऐसे ही भाषा की दृश्टि से "अवलोकन हुआ" नहीं करता, किया जाता है; "हर्षातिरेक शब्द फूटे हों" नहीं बल्कि "हर्षातिरेक से शब्द फूटे हों". इसी प्रकार "गगन के नैन अश्रुओं से बह उठे हों" भी सही प्रयोग नहीं लगता.
परंतु ये सभी गलतियाँ आप स्वयं अपनी कविता के सिर्फ एक पश्चावलोकन द्वारा सुधार सक्तीं हैं. आशा है कि आप इन बातों का ध्यान रखेंगी और हमें आपकी और भी सुंदर रचनायें पढ़ने को मिलेंगीं.
इस कविता में अतीव संदरता है।
दूसरा, तीसरा और चौथा छंद की प्रथम दो-दो पंक्तियों के कारण प्रेम ही बताये गये हैं। जैसे-
'झुलसती धरती पर
पड़ता टिप-टिप जल'
अपने प्रिय को तड़पते देख
ज्यों गगन के नैन
अश्रुओं से बह उठे हों
में 'झुलसती धरती पर
पड़ता टिप-टिप जल' का कारण
'अपने प्रिय को तड़पते देख
ज्यों गगन के नैन
अश्रुओं से बह उठे हों' बताया गया है।
हाँ इसमें व्याकरण की बहुत सी गलतियाँ हैं। उद्धृत पंक्तियों में ही लिखा है
'गगन के नैन अश्रुओं से बह उठे हों' ।
आसुओं को बहना तो पड़ेगा तभी कारक हो पायेगा लेकिन तब 'गगन के नैन से अश्रुकण बह उठे हों' होना चाहिए।
शब्द चलन के होते तो समझना और आसान होता।
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