वामपंथी-वामपंथी
सड़क-रेल सब जाम पंथी
सुबह को ये हैं शाम पंथी
अजगर करे न चाकरी
पंछी करे न काम
बाबा मार्क्स कह गये
सबको लाल सलाम!!
मत चूको चौहान
जोड़ सरकार बनाओ
मेवा और मलाई खाओ
फिर माईक ले कर चिल्लाओ
वह सरकार निकम्मी है
हम जिसके साथी हैं
सच सफेद हाथी
अब दुर्लभ नहीं रहे हैं
कामरेड हो गये हैं।
बंद करो यह शोर शराबा
न्यूज चैनलों “भूत” दिखाओ
गीदड भभकी में इतने मसाले
दीवाली मना रहे दीवाले!!
अमरीका से न्यूकलीयर डील हो
और सरकार गिर जायेगी
तो मुफ्त के चूहे चील कैसे खायेगी?
घूरे के जब जब दिन फिरते हैं
गाल बजा लेते हैं
राम भरोसे सरकार चलती है
ये पूवे पका लेते हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
19.08.2007
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी,
आजकल जो राजनीति चल रही है, उस पर तीखा कटाक्ष किया है आपने। पर एक बात कहना चाहूँगा..
अभी तो इब्तिदा है रोता है क्या..
आगे आगे देख होता है क्या...
इस देश को आगे बढ़ने से रोकने में राजनितिज्ञों का बहुत बड़ा हाथ रहा है.. ये "हाथ" आगे भी ऐसे ही कामों से "लाल" रहेगा.. :-)
तपन शर्मा
अच्छा व्यंग्य है। वाम पंथियों का सचमुच यही असली चेहरा है।
रेल सड़क सब जाम पंथी
सिंगुर नंदीग्राम पंथी
आपकी कविता में यह एक लाईन जोड़ दी है. वैसे सिंगूर और नंदीग्राम के बाद वामपंथी वैसे ही हरामपंथी हो गये हैं जैसे गुजरात में भाजपाई और 84 में दिल्ली में काग्रेसी हो गये थे.
राजीव जी,
कविता का प्रारम्भ बहुत ही अच्छा है किन्तु अन्त कुछ जमा नही। सायद मुझे कुछ ज्ञान कम है किन्तु एक नये पाठक के लिये कविता मे रोचकता होनी चाहीए जो कविता के अन्त मे नही है।
सही है!!
संजय तिवारी जी ने बिलकुल सही कहा!
राजीव जी
कविता आपने वर्तमान राजनैतिक हालातों पर
लिखी है । अच्छा विश्लेषण है । हो तो यही रहा है ।
गणतंत्र का मज़ाक हमारे देश में होता है वह शायद
ही कहीं और होता हो । बहुत ही सही तसवीर उतारी है ।
वर्तमान भारत का ये हाल है भविष्य पता नहीं क्या होगा ?
एक अच्छी रचना के लिए बधाई ।
राजीव जी सटीक चित्रण किया । राजनीति और स्वार्थपरतता एक दूसरे के पूरक हो चुके हैं।
राजीव जी, वर्तमान समस्याओं के प्रति एक कवि का जो कर्त्तव्य है, उसे आप पहले से ही पूरी ज़िम्मेदारी से निभाते आए हैं। आपको पढ़कर यह बात फिर याद हो जाती है कि कविता सिर्फ अपने मन की बात कह देना नहीं है। कविता के सामाजिक कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए बधाई।
लेकिन मैं जोशी जी से भी सहमत हूँ। कविता के तौर पर आपकी रचना में कुछ कमी लगी। ऐसा लगा, जैसे गुस्से में आकर जल्दबाज़ी में लिखा गया हो। कुछ जगह कविता टूट गई सी लगती है।
मैं वामपंथी नहीं हूँ, इसलिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यदि होता तो आपसे नाराज़ हो जाता क्योंकि आप व्यंग्य में कई जगह अधिक तल्ख़ हो गए हैं, जो एक स्वस्थ व्यंग्य की परम्परा नहीं है।
राजीव जी आप ज़्यादा अच्छा लिख सकते है...कविता जल्दबाजी मै लिखी हुई लग रही है..
गौरव सोलंकी जी,
कविता के शिल्प को और व्यंग्य को ले कर आपकी शिकायत जायज है। इस कविता का अंत बहुत अच्छा नहीं बन पडा है। शायद कोई एसी बात छूट गयी है जो गंभीर कथ्य बनती।
व्यंग्य की तल्खी मुझे आवश्यक लगती है। क्या आप व्यवस्था से उकताते नहीं? यह कविता वामपंथ की प्रासंगिकता के लिये नहीं लिखी गयी है। निकम्मा को निकम्मा कहना ही आवश्यक नहीं उसे सर खुजाने पर मजबूर करना भी तो दायित्व है। व्यंग्य की मार से बेहतर कुछ नहीं, व्यंग्य पैना ही होना चाहिये।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मैं व्यंग्य के पैना होने से सहमत हूँ राजीव जी, लेकिन व्यंग्य छुरी नहीं होना चाहिए, व्यंग्य को फाँस होना चाहिए, जो चुभे लेकिन घायल न करे और जो निकलने के बाद भी चुभन का अहसास देती रहे।
वन्धुवर राजीव जी
क्या लाल सलाम ! कहूं
समझ नहीं आता क्या कहू. कई दिनों से देश की राजनीतिक उठा पटक को देखते हुये मन बहुत ही खीज रहा था. कार्यालयीन व्यस्तता के बीच कलम चलाने के लिये फुरसत नहीं. आम खा लिये अब आने वाले चुनाव से पहले जनता को मूर्ख बनाने के लिये तमाशे की शुरूआत हो गयी है. उन्हें लगता है सब मूर्ख हैं. कोई भी बहाना बनाकर जबाब देही से बचा जा सकता है. कभी नेता जी को तोजो का कु… कहने वाले सत्ता सुख भोग कर अब चुनाव से पहले विना किसी जबाबदेही के भाग लेना चाहते हैं. और शायद जिस देश की जनता विशेष राजनीतिक हाथ में देश की सम्पूर्ण शक्ति पहले ही सौंप चुकी है, वहां कुछ भी संभव है. ऐसा लाल-भ्रम पालकर जनता के सामने नाटक किया जा रहा है. आप की कविता ठीक ऐसे समय पर प्रकाशित होना देश के अनेकों बन्धुओं को अभिव्यक्ति है.
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
करारा प्रहार किया है राजीव जी आपके शब्दों ने आज के युग पर...बहुत अच्छा लगा पढकर...
सचमुच सुन्दर शब्द सरंचना के लिये बधाई के पात्र है आप...
शानू
बहुत ओज पूर्ण वाणी में बस्तर पर लिखी हुई आपकी कविता सुनी थी ...
आज इस को पढ़ते वक़्त वही आपकी आवाज़ कानों में गूँज रही है
सुंदर व्यंग और आज के हालत की सही तस्वीर पेश करती है यह रचना
शुभकामनाएँ आपको भी और हमारे देश के आने वाले वक़्त को भी ..!!
तो मुफ्त के चूहे चील कैसे खायेगी?
घूरे के जब जब दिन फिरते हैं
गाल बजा लेते हैं
राम भरोसे सरकार चलती है
ये पूवे पका लेते हैं।
choti hai magar jitni bhi likhi hai sundar likhi hai...as usual..
हाँलाकि मैं राजनैतिक समाचार पढ़ने में विशेष रूचि नहीं रखती, फिर भी आपकी कविता पढ़ना अच्छा लगा । खासकर कविता की शुरोआत बहुत ही अच्छी है ।
- सीमा कुमार
राजीव जी,
अच्छा प्रयोग है। वर्त्तमान समय मे ऐसी कविताएँ लिखी जानी चाहिये। कविता अपना संदेश देने में सफल है। पर एक बात है वामपंथ क्या राजनीति का कोई कोना इससे अछूता नही रहा है।
राजीव जी..
शानदार रचना है
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति है..
यथार्थ का सजीव चित्रण किया है आप ने
बहुत बहुत बधाई
आभार
राजीव जी!
देरी से टिप्पणी के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. कविता की शिल्पगत कमियों के बावज़ूद, यह प्रभावी बन पड़ी है. अच्छा व्यंग्य है!
राजीव जी ,
जब मैने इस कविता का शीर्षक पढ़ा तभी समझ गया की आपने ही लिखी होगी ! और फिर पहला पैराग्राफ़ पढ़कर बिल्कुल निश्चित हो गया की आप ही रचनाकार हैं |क़रारा व्यंग है और प्रासंगिक भी|
आम व्यक्ति के दर्द को अपनी कविता में स्थान देने के लिए शुक्रिया !
राजीव जी आपकी कलम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह हमेशा ज्वलंत मुद्दे उठाती है। यहाँ भी आपने जिस तरह से वामपंथियों को कटघरे में खड़ा किया है , वह काबिल-ए-तारीफ है। मेरे अनुसार तो यह केवल वामपंथियों पर हीं नहीं सारे राजनीतिक दलों पर व्यंग्य है।
फिर माईक ले कर चिल्लाओ
वह सरकार निकम्मी है
हम जिसके साथी हैं
सच सफेद हाथी
अब दुर्लभ नहीं रहे हैं
कामरेड हो गये हैं।
घूरे के जब जब दिन फिरते हैं
गाल बजा लेते हैं
राम भरोसे सरकार चलती है
ये पूवे पका लेते हैं।
बहुत खूब राजीव जी। आगे भी आपसे ऎसी हीं रचनाओं की उम्मीद रहेगी।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
यह कविता व्यंग्य तो करती है लेकिन मेरे हिसाब से पाठक के मन में भी वामपंथियों के प्रति उतना आक्रोश नहीं भर पाती जितना कि शायद कवि के मन में रहा होगा। उसका शायद एक कारण यह भी रहा हो कि कविता इन बामपंथियों की बहुत सी खामियाँ, कमियाँ गिना नहीं पाती। जितने छंद इसमें हैं, उतने में ही और तीखे-तीखे प्रहार अपेक्षित थे। आपकी कविता 'कलम घसीटों तुम्हें नमन है' में जो आग थी, वो यहाँ से लुप्त है।
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