सफर कटता रहा नजारे गुजरते रहे
निगाहें बोझिल हुईं हम सोचते रहे
इश्क़ और फर्ज़ की कशमकश में
दामन को अश्कों से निचोडते रहे
आहटें कुछ सुनी झोके वो धूल के
बाबस्ता दरीचे दिल के खोलते रहे
गुबार सन्नाटों में कहाँ निकालते
बेखुदी में एक आस खरोचते रहे
वफा ही वफा थी हर तरफ घेरे
हाथ थामने वाले ही कुचलते रहे
मैं ज़र्ब गज़ल उस शायर की जिसे
अधूरी लिख कर वो गुनगुनाते रहे
हम अपना आशियाना कहाँ बसाते
उसके घर के पते ही बदलते रहे
पानी से भरी पलकों को झुकाकर
आँखों के मिजाज़ सम्भलते रहे
वो समझे इन्तेख्वाब नहीं उनका
हम जो दिन रात उनमें ढलते रहे
जान बाकी है ज़ुम्बिश भी बदन में
लाजमी है कि थोडा यूँ मचलते रहे
इश्क़ के मारे सुकून तलाशें दरबदर
तेरी रहगुजर है मंजिल,सो चलते रहे
************अनुपमा चौहान**********
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
अनुपमा जी,
आरंभ बहुत अच्छा है और कुछ शेर बहुत भावुक कर देते हैं।
मसलन
इश्क़ और फर्ज़ की कशमकश में
दामन को अश्कों से निचोडते रहे
आहटें कुछ सुनी धूल के झोकों की
बाबस्ता दिल के दरीचों को खोलते रहे
वो समझे ऐतबार नहीं करते उनका
हम हैं कि दिन रात उनमें ढलते रहे
भाव तो हर शेर में ही लाजवाब हैं, लेकिन गज़ल की परिभाषा के हिसाब से देखा जाए तो शिल्प में बहुत कमियाँ हैं।
जैसे कहीं अंत सोचते से हो रहा है, कहीं कुचलते से, कहीं गुनगुनाते से।
गज़ल लिखते हुए यही मुश्किल होती है। भविष्य में कोशिश करें कि जब भी गज़ल लिखें, रदीफ़ और काफ़िये का ध्यान रखें। बाकी आप लिखती बहुत अच्छा हैं ही।
अच्छा लगा.. अनुपमा जी..
अनुपमा जी
गज़ल विधा एक अच्छी विधा है । इसमें भावों की अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर होती है ।
मझे इस गज़ल में कुछ खास आनन्द नहीं आया इसका कारण मेरी अल्पग्यता भी
हो सकती है ।
जान बाकी है अभी मरने से पहले
लाजमी है कि थोडा यूँ मचलते रहे
मोहब्बत के मारे सुकून तलाशें दरबदर
तेरी रहगुजर है मंजिल, सो चलते रहे
बहुत ख़ूब लिखा है अनुपमा जी .कुछ शेर बहुत अच्छे लगे
अनुपमा जी,
आपकी शायरी मे गहरायी बहुत होती है। आपसे हमेशा मुझे कभीर कथ्य मिला है और मैं आपकी सोच से बहुत प्रभावित हूँ। असाधारण पंक्तियाँ हैं:
इतने सन्नाटों में गुबार कहाँ निकालते
बेखुदी में इक आस को खरोचते रहे
मैं गज़ल उस शायर की जिसे
अधूरी लिख कर वो गुनगुनाते रहे
*** राजीव रंजन प्रसाद
गज़ल के व्याकरण की मुझे अधिक जानकारी तो नहीं है किंतु जब आप इतने अच्छे भावों को व्यक्त कर सकती है तो यदि उसे उसके व्याकरण मे लिखेंगी तो और निखर जायेगा। आपकी गज़ल काबिल-ए-तारीफ है।
अनुपमा जी,
शिल्प की थोड़ी कमी है पर भाव इतना सुन्दर कि इसे महसूस नही होने देता।
इश्क़ और फर्ज़ की कशमकश में
दामन को अश्कों से निचोडते रहे
अपने आशियाने को क्या ढूँढते
उसके घर के पते ही बदलते रहे
एक-एक शेर में सागर सी गहराई है।
..कुछ शेर अच्छे बन पडे है..थोडी मेहनत और करेंगी तो बात बन जायेगी.
iss baar kaafi acchaa likhaa hai,
Anupamaa.
अनुपमा जी!
गज़ल के लिहाज़ से रचना में कई खामियाँ हैं. इन पर कुछ मेहनत करेंगी तो बहुत अच्छी गज़ल लिख पायेंगीं. भाव तो आपके हमेशा ही अच्छे होते हैं.
अनुपमा जी..
गज़ल के भाव बहुत अच्छे लगे..
ये सही है कि गज़ल शिल्प की द्रष्टि से थोडी कमजोर रही है..
बाकी गज़ल की जो गहराई है वो प्रभावशाली है..
आभार
खूबसूरत गज़ल( कह दूँ गज़ल ? ) है अनुपमा जी।बहुत दिनों के बाद आपकी इतनी बड़ी रचना पढने को मिली। कई सारे मिसरे दिल में उतर गए हैं, मसलन-
इश्क़ और फर्ज़ की कशमकश में
दामन को अश्कों से निचोडते रहे
वफा ही वफा थी हरसू घेरे बस
हाथ थामने वाले ही कुचलते रहे
वो समझे ऐतबार नहीं करते उनका
हम हैं कि दिन रात उनमें ढलते रहे
मोहब्बत के मारे सुकून तलाशें दरबदर
तेरी रहगुजर है मंजिल, सो चलते रहे
पुख्ता शेर हैं सारे। बस शिल्प पर थोड़ा और मेहनत चाहिए। रदीफ, काफिया, बहर सब छ्ट्पटा रहे हैं। उन्हें तरीके से सजाइये, खुश हो जाएँगे वो ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
bahut khub likha hai apne...
ye sab samanya soch ki upaj nahin..dimaag ko bahut ekagra karna padta hai aisa likhne ke liye...kalpanik viranon mein jaake sansein leni padti hai...tab jaake..aise bhav milten hai..aur fir unko shabdon mein pirona...
bahut khub..
likhti rahiye...
अनुपमा जी,
ग़ज़ल लिखने के बाद खुद से यह समीक्षा करनी चाहिए कि क्या ग़ज़ल के सभी शे'र बराबर वज़नी हैं? ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र आमतौर पर अलग-अलग ही भाव संप्रेषित करते हैं, इसलिए शे'रों की संख्या को कम-अधिक करने में कोई बुराई नहीं है। तथा इस बात का ध्यान देना आवश्यक है कि ग़ज़ल समान स्वरांत हों।
कुछ शे'र जो पसंद आये-
इश्क़ और फर्ज़ की कशमकश में
दामन को अश्कों से निचोड़ते रहे
अपने आशियाने को क्या ढूँढते
उसके घर के पते ही बदलते रहे
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