प्रतियोगिता में आई टॉप १० कविताओं को प्रकाशित करने की शृंखला में आज बारी है छठवीं कविता 'तुमसे दूर होना कि जैसे' की। इसके रचनाकार है हमारे मई माह के यूनिपाठक कुमार आशीष।
कविता- तुमसे होना दूर कि जैसे
कवयिता- कुमार आशीष, फ़ैज़ाबाद
तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन
किरनें बांध के घुंघरू उतरें गोरी तेरे गांव में
गंध लुटाती पवन फिरे है अमराई की छांव में
गांव तुम्हारा महके गोरी दूर से ही जैसे चंदन
तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन
पोर-पोर रसभरी जवानी छलके तेरे गांव में
कोंपल दुधियारें फूटें खिल, पत्ती-पत्ती दांव में
गांव तुम्हारा दमके गोरी दूर से ही जैसे कुन्दन
तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन
चंदा देकर टिकुली संवरे सांझ तेरी अंगनाई में
आहट-आहट जोहें गलियां, चौबारे पहुनाई में
गांव तुम्हारा खनके गोरी दूर से ही जैसे कंगन
तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन
ताल-तलैया बतियाते हैं पगडण्डी की ओट में
झुरमुट-झुरमुट गुपचुप होती हल्दी, पीपल, सोंठ में
गांव तुम्हारा मोहे गोरी दूर से ही जैसे संगम
तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ६, ७
औसत अंक- ६॰३३३
स्थान- १६वाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰२५, ६॰२५, ७॰५, ६॰३३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰०८३२५
स्थान- १०वाँ
तृतीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰७५, ७॰०८३२५ (दूसरे चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰९१६६२५
स्थान- चौथा
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
" तुमसे दूर होना कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन" एक भाव है किंतु अंतरा इस भाव की विपरीत दिशा में चलता है। गाँव और गोरी इस कविता में उलझ गये हैं। मुखडे में भी गाँव का कथ्य गढें या अंतरे में गोरी से विरह को स्थापित करें।
कला पक्ष: ५/१०
भाव पक्ष: ५/१०
कुल योग: १०/२०
पुरस्कार- कवि कुलवंत सिंह की ओर से उनकी पुस्तक 'निकुंज' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
आशीष जी ने कई नये विम्बों का सुन्दर प्रयोग किया है।
ग्रामीण परिवेश का बेहतरीन चित्रण।
बहाव भी है,जिससे रचना काफी सुन्दर बन पड़ी है।
बधाई हो।
सच में गाँव की शुद्ध खुश्बू है इस कविता में। गोरी के गाँव का तो नहीं पता मगर मुझे अपना गाँव याद आ गया। वैसे कविताओं में गाँव अकसर गोरी का ही बताया जाता है।
कविता का जो निष्कर्ष है उससे कविता के विस्तार का लेना-देना कम समझ में आता है। कवि ही बेहतर बता पायेगा।
गाँव की खूबसूरती का गोरी की खूबसूरती के साथ अच्छा समायोजन किया है आपने। मुझे आपकी कविता में कईं जगह ऐसा लगा की आप गोरी के माध्यम से गाँव की खूबसूरती का बख़ान कर रहे हैं, और आपको उससे दूर होना खल रहा है मगर फिर कविता का मूल भाव गोरी से बिछुड़न की ओर ले जाता है...उलझ सा गया हूँ...हो सकता है कि मुझे आपकी इस कविता में दर्शाया गाँव ज्यादा प्यारा लगा इस कारण ऐसा हो...
कविता खूबसूरत है, बधाई!!!
गाँव और गोरी की उलझन को सुलझा कर रचना को बेहद सुन्दर बनाया जा सकता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मुझे तो पढ कर वो गाना याद आ गया "गौरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा,मै तो गया मारा,...:)
क्या बात है आशिष जी हमारी नजर से आपकी कविता छूट कैसे गई...बहुत अच्छा सुन्दर वर्णन किया है गाँव का... आखिर हमे खयालो में गाँव पहुँचा के ही दम लिया है...
ताल-तलैया बतियाते हैं पगडण्डी की ओट में
झुरमुट-झुरमुट गुपचुप होती हल्दी, पीपल, सोंठ में
अच्छा लगा शब्द सयोंजन..मगर अच्छा कह देने भर से काम नही चलेगा...आप और मेहनत किजिये...आप बहुत ही बेहतरिन लिख सकते है...भाव है आपके अन्दर बस उन्हे शब्दो में और सुंदर तरिके से पिरोने का यत्न किजिये...आपसे यही आशा है...
सुनीता(शानू)
कविता की प्रथम पंक्ति जिन रचनाकार की है,उन का अभी नाम स्मरण नहीं आ रहा,किन्तु यह है एक 70'के दशक के कवि की पंक्ति।आशीष जी को ऐसे में एक पाद टिप्पणी दे देनी चाहिये थी।
विभिन्न लोगों ने जो मत व्यक्त किये हैं उन में से इसीलिये कुछ को यह लगा है कि मुखडे वा अन्तरे में संगति नहीं है।जब तक कोई भी रचनाकार भावानुप्रवेश नहीं करता तब तक ऐसी स्थितियाँ आएँगी ही।
कविता में कथ्य(वस्तु)व शिल्प दोनों ही मह्त्वपूर्ण होते हैं,कथ्य में कई चीजें होती हैं,जिनमें भाव एक महत्वपूर्ण घटक होता है।इसी प्रकार शिल्प में भी कई घटक होते हैं,जिनमें भाषा बहुत ही महत्वपूर्ण है,फिर दूसरे भी और हैं। इस
रचना में दूसरी बात यह भी ध्यान देने की है कथ्य के अतिरिक्त,कि छंद बिल्कुल टूट रहा है, कई नकारात्मक शब्द भी चला दिये गये हैं,तुक भी मिल नहीं रहे व भंगिमा में अंतर्विरोध भी है।उस का कारण किसी ओर की पंक्ति का सूत्र लेकर पिरोने बैठने की निपुणाई को ही विशेषत: जाता है।
कविता की प्रथम पंक्ति जिन रचनाकार की है,उन का अभी नाम स्मरण नहीं आ रहा,किन्तु यह है एक 70'के दशक के कवि की पंक्ति।आशीष जी को ऐसे में एक पाद टिप्पणी दे देनी चाहिये थी।
आदरणीय कविता जी, जो मेरे भीतर जिया है.. उसे दूसरे का कैसे मान लूं। फिलहाल..अभी सिर्फ इतना कहूंगा कि आप विदुषी हैं..कृपया अपनी स्मृति से रेफेरेन्स ढूंढ कर अवगत करा दें। मैं आपका अन्तरतम से आभारी रहूंगा।
मित्रों बहुत दिनों से सोच रहा था कि कुछ कहूं। शैलेष जी की टिप्पणी- 'कविता का जो निष्कर्ष है उससे कविता के विस्तार का लेना-देना कम समझ में आता है। कवि ही बेहतर बता पायेगा।' के परिप्रेक्ष्य में। मगर सोच रहा था कि कुछ और टिप्पणियां आ जायें जिससे कुछ कहने सुनने का मजा बढ़ सके। अब कविता जी की टिप्पणी के पश्चात् तो बस रहा ही नहीं गया।
दरअसल इस कविता में 'तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन' पर सारे साहित्य-मर्मज्ञ चिंहुक जैसे गये। अब यह कविता का प्रस्थान-बिन्दु है सो स्वाभाविक है कि अग्रेतर अन्तरों में उन्हें सुसंगति का अभाव खटका। जब यह कविता हिन्द-युग्म पर प्रकाशित हुई तो शैलेष जी से व्यक्तिगत बातचीत के दौरान मैंने कहा कि मुझे कविता का रिजल्ट-कार्ड देखने में बड़ा कुतूहल हो रहा है। कविता प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय चरण में 16-10-4 क्रमश: 6 अंकों की छलांग लेती हुई अंतत: भाव एवं कला पक्ष में फिफ्टी-फिफ्टी (5/10-5/10) फिट हो रही है। खैर.. छोडि़ये..
आइये, अब सीधे कविता में प्रवेश करते हैं। अपने लौकिक अर्थ में यह कविता गोरी के गांव की खुशबू को समेटती हुई क्रमश: चार बन्दों में उस के गांव की सुबह, दोपहर, सायं और रात्रि का बिम्बांकन कर रही है... मेरे खयाल से यहां कोई समस्या नहीं है। हिन्दी का अदना सा अध्यापक इसे पढ़-पढ़ा सकता है। दिन के चढ़ने से उतरने और झुटपुटा घिरने तक बचपन की किलकारियां, कैशोर्य के अल्हड़पन, युवावस्था के बनाव-सिंगार और आखिरी अन्तरे में पके हुए बीजों के बिखराव की धमक को समेटे हुए यह कविता गोरी के गांव के चुनौतीपूर्ण सम्मोहन को पुष्ट करने के अतिरिक्त प्रयास में है। अब जो कवि है वह प्रतीपगमन की मनोदशा में है और मुड़कर इस टूटते हुए सम्मोहन को देख रहा है जहां से एक तिरछी रोशनी कविता के कैनवास पर पड़ रही है और जो सूक्ष्म बिम्ब उभर रहे हैं उसमें मनुष्य की चेतना में व्यतीत हो रहे चतुर्युग की ओर इंगिति है। शैलेष के साथ बातचीत के दौरान मैंने एक बात यह भी कही थी कि होमोसैपियान से लेकर आज तक की विकास-यात्रा में मनुष्य-मस्तिष्क जटिलतर हुआ है और एक कवि के रूप में हमें उसे रचनात्मक रूप से जीने की जिम्मेदारी निभानी होगी। इससे कम पर समय की प्यास नहीं बुझ पायेगी। यह चुनौती भी है, खेल भी।
पंकज जी, शैलेश जी, गिरिराज जोशी जी, राजीव जी, सुनीता जी और कविता जी... आप सबने इस कविता अपनी टिप्पणियां अंकित कीं इसलिए मुझे अच्छा लगा। सुनीता जी और कविता जी को विशेष रूप से। वास्तव में, थोड़ा चुहल में मैंने शैलेश से कहा था कि भाई दुनिया की पचास प्रतिशत आबादी तो हमारी तरफ से बिल्कुल किनारा कर गयी.. जिसके लिए लिखा उसने तो पढ़ा ही नहीं।
कविता जी, आपकी टिप्पणी का यह अंश- 'छंद बिल्कुल टूट रहा है, कई नकारात्मक शब्द भी चला दिये गये हैं,तुक भी मिल नहीं रहे व भंगिमा में अंतर्विरोध भी हैं'- वस्तुगत संदर्भ के अभाव में मेरी समझ में नहीं आया। वैसे तुक-तान का खयाल मुझे नहीं रहता.. इसलिए क्षमा चाहता हूं, मगर, नकारात्मक शब्द कौन से हैं..यह पता चलता तो अच्छा था। हां, आपकी टिप्पणी के पश्चात् मैंने इस कविता को अपनी बही से निर्वसित कर दिया है.. और बेसब्री से आपसे मिलने वाले रेफेरेन्स की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
मुझे यह कविता कुछ खास नहीं लगी ।
इसमें भावना कम और बेमतलब के विचार
अधिक हैं । कविता की आत्मा है रस जो इसमें नहीं मिला ।
गाँव की छवि इतनी दुर्लभ नहीं होती कि उसके लिए
काव्यानन्द की हत्या कर दी जाए । बहुत प्रयास करने पर भी
मुझे इसमें सराहने लायक कुछ नहीं मिला । आपसे अधिक
परिपक्व कविता की अपेक्षा है । सस्नेह
आशीष जी,
कविता पढ़ने से न समझ में आये या जो कवि कहना चाह रहा है वो समझ में न आये तो इसमें पाठक या श्रोता का दोष नहीं है, बल्कि कविता की कमज़ोरी है। रचनाओं के साथ टीका या व्याख्या नहीं प्रकाशित की जाती। हाँ या तो आप कबीर, प्रसाद जैसे महत्वपूर्ण कवि रहें जिन्होंने लिखा जो भी हो, उनकी व्याख्या अधिक महत्वपूर्ण रहीं। वैसे मेरा यह भी तर्क बिलकुल सटीक नहीं है क्योंकि उनकी कविताएँ तुरंत ही समझ में आ जाती है।
कविता वाचक्नवी को यदि आप समीक्षक की हैसियत दे रहे हैं तो उनसे प्रश्नोत्तर करने की परम्परा को न स्तापित कीजिए और न ही उनकी बातों से दुःखी होने की आवश्यकता है। स्वीकारोक्ति न भी हो, तब मौन रह लेना ठीक है। क्योंकि यहाँ मौन धारण करना अपराध सहन करना नहीं है। वैसे मैंने कविता जी से व्यक्तिगत बात की है, आज वो अपने विचार यहाँ रखेंगी (शायद एक साधारण पाठक की हैसियत से), तब उनकी पुरानी टिप्पणी को विस्तार मिलेगा और आपको संतुष्टि।
मुझे इस प्रसंग में आगे चुप रहना यों आवश्यक लगा कि मेरी यह मान्यता है कि कविता करना किसी को सिखाया कभी नही जा सकता,न जाना चाहिये। कविता मूलत: एक संस्कार होती है। जिन लोगों ने यह शास्त्रवचन पढा है वे इस मत से सहमत होंगे। दूसरी बात--जिस में "सच्ची" सर्जना शक्ति है,वह बडा है,महान् है। तो यों, आशीष! आप महान् तो हो ही गए।और फिर न मैं कोई कविता महाविद्यालय चलाती हूँ न मेरी चलाने में कोई आस्था है।
आशीष! आपने जो अपनी कविता को अलग कर दिया, वह बहुत ही अच्छा किया। ऐसा जीवन में बहुधा होता है और होना चाहिए।स्वयम् १४ वर्ष की आयु में मैंने एक अपना बहुत प्रिय व तब तक की रचनाओं में सर्वोत्तम गीत इसलिए सदा के लिए हटा दिया था क्योंकि उस के २ शब्द निरालाजी की किसी रचना में मैने अपने कविता लिखने के १ साल बाद पढ़े थे और मन में यह बात आ गई कि कहीं उन २ शब्दों के कारण कविता पर कोई आरोप न लगा दे। आज सोचती हूँ तो अपना वह व्यवहार एक प्रकार की अति ही लगता है,अतिरिक्त सावधानी,जो अनावश्यक थी। किंतु उस का कोई खेद नहीं है क्योंकि वह कोई ‘राम की शक्तिपूजा’ तो थी नहीं जिसके न रहने से हिंदी साहित्य का इतिहास अधूरा रह जाता। वास्तव में देखें तो हमारी भाषा भी हमारी कहाँ है,इस पर भी हमारे पूर्वजों का ही नाम लिखा है। और मेरे जीवन में यह प्रक्रिया आज तक जारी है। आपको आश्चर्य होगा कि अपनी हजार से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त आज भी मैं अपनी कई रचनाएँ निरस्त कर देती हूँ। संकलन से स्वयम् हटा लीं क्योंकि लिखने के कुछ समय बाद उन्हें दुबारा पढ़ने पर वे अपने स्तर की नहीं लगतीं।
आपको यह आशीर्वाद अवश्य देना चाहूँगी कि आप जीवन में इतना आगे बढें कि स्वयम् अपना मूल्यांकन करें, अपने लेखकीय कद को कम करने वाली किसी चीज से समझौता न करें। फिर आपकी प्रगति को कोई नहीं रोक सकता।
और हाँ ,लगभग ४,५ सौ कविता-पुस्तकें आज तक पढ़ने का सौभाग्य पाया है मैने,अत: आपका यह आदेश तो अभी पूरा नहीं कर पाऊँगी कि उस पंक्ति का प्रमाण दे सकूँ,उन सारी पुस्तकों को आज फिर से जुटा पाना मेरे लिए चाह कर भी संभव नहीं है,इसका खेद है;किंतु यदि अनायास कभी मिल गई तो अवश्य प्रमाण दे सकूँगी।
मेरी ओर से यह विषय अब यहीं समाप्त हो रहा है।
आपको यशस्वी जीवन के लिए शुभ कामनाएँ। यदि किसी भी प्रकार आपको खेद पहुँचा हो तो उस का मुझे कष्ट है।
धन्यवाद।
महान होने के लिए मुझे बहुत नीचे उतरना होगा, कविता जी। ...वैसे भी ऊंटों के सरकस में थोड़ा मेरी दिलचस्पी कम है।
हम सब एक समान है.. सचाई इसी में झलकती है।
इस पृष्ठ अंकित समस्त संवादों के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। मेरे अतिरिक्त संवादों के मूल में अपनी इस कविता के पाठकों के प्रति मेरी जिम्मेदारी थी, बस और कुछ नहीं। एक बात और .. यह कविता मेरी बही से निर्वासित हुई थी.. दिल से नहीं। दरअसल दिल से अलग तो कभी किसी को किया ही नहीं.. इसलिए भी इसके पक्ष में खड़े होने में तत्काल हिचकिचाया नहीं।
परिणाम प्रकाशित होने के उपरान्त मैंने यह कविता अपने ब्लाग पर भी प्रकाशित की थी.. वहां पर आयी टिप्पणियां भी द्रष्टव्य हैं-
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=2408793506544299441&postID=4844740043446219539
हिन्दी समालोचना से मुझे थोड़ी अपेक्षा है और वह यह कि वह यथासम्भव वस्तुसंगत हो, उससे कवि को तो दृष्टि मिलती ही है, साहित्य के नए आयाम भी खुलते हैं।
पुनश्च् सभी को धन्यवाद।
Greatings, ЎIncreнble! No estб claro para mн, їcуmo offen que la actualizaciуn de su nombre de kavita.hindyugm.com.
Have a nice day
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