अभी तक आज के नियमित कवियों रंजना भाटिया और गौरव सोलंकी की कविताएँ नहीं आईं, मतलब एक तरह से यह रिक्त वार ही हुआ, सो अपने वादे के मुताबिक आज हम एक कविता प्रतियोगिता से लेकर आये हैं। इस बार बारी है प्रतियोगिता की आठवीं या नौवीं स्थान की कविता 'दाग' की। इसके रचनाकार है सजीव सारथी जिनके बारे में हम पिछली बार लिख चुके हैं।
कविता- दाग
कवयिता- सजीव सारथी
चन्द्रमा के चमक की हँसी उड़ाता ,
वह बदनुमा " दाग "-
सतरंगे शहर की,
एक फुटपाथ पर,
वहाँ,
कूड़े के मलबे के पास,
वह लाश पड़ी है,
नही ,
लाश नही,
अभी तो नसों में ज़हर बाकी है,
अभी तो साँसों में,
राख काफ़ी है,
मगर,
भूख के बिछौने पर लेटे,
अभाव की चादर ओढ़े ,
उस जर्जर शरीर के ,
चेहरे पर लगी ,
उन दो जगी आंखों को ,
इंतज़ार है तो बस ,
एक अनंत सपने का ,
या मौत की नींद का ।
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ५, ८, ७
औसत अंक- ६॰६६६७
स्थान- ग्यारहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰२, ७॰७५, ६, ६॰६६६७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰१५४२५
स्थान- नौवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰२५, ७॰१५४२५ (दूसरे चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰२०२१२५
स्थान- आठवाँ या नौवाँ
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पुरस्कार- कवि कुलवंत सिंह की ओर से उनकी पुस्तक 'निकुंज' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
संजीवजी,
बहुत ही खूबसूरत रचना है।
अभी तो नसों में ज़हर बाकी है,
अभी तो साँसों में,
राख काफ़ी है,
सच! एक कड़वा सच!
आपने इस कविता के माध्यम से एक संजीव चित्रण किया है, पढ़ते समय एक चित्र सा उभर कर आता है।
बधाई स्वीकार करें।
kavita bhav pran jaan padi hai...
shubh kam nayen
सजीव जी, सजीव चित्रण किया है आपने.. :-)
और मैं भी गिरिराज जी से सहमत हूँ..एक अत्यंत कड़वा सच है..
ये अपना अपना विचार हो सकता है.. परंतु यदि मैं यही कविता लिखता तो एक बदलाव करता.. जो 2 पंक्तियाँ आपने शुरू में लिखी उन्हें मैं वहाँ नहीं बल्कि आखिर में लिखता..
एक अनंत सपने का ,
या मौत की नींद का ।
यहां पूर्ण विराम की जगह प्रश्नवाचक चिन्ह होता तो कविता की चुभन और पैनी हो जाती।
फिक्र अच्छी है।
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
प्रिय संजीव जी,
समाज के नग्न सत्य का सटीक चित्रण करनी में आप सफल रहे हैं
कविता मे निहित प्रबल भाव संवेदित करते हैं
"नही ,
लाश नही,
अभी तो नसों में ज़हर बाकी है,
अभी तो साँसों में,
राख काफ़ी है,"
बहुत अच्छी रचना के लिये आभार
सस्नेह
गौरव शुक्ल
गिरिराज जी और आशीष जी से सहमत हूँ । रचना अच्छी लगी । बधाई ।
सजीव अर्थों के साथ एक साधारण अभिव्यक्ति ।
आर्यमनु
संवेदनशील रचना है सजीव जी, कविता का अंत बेहद संवेदित करता है।
"मगर,
भूख के बिछौने पर लेटे,
अभाव की चादर ओढ़े ,
उस जर्जर शरीर के ,
चेहरे पर लगी ,
उन दो जगी आंखों को ,
इंतज़ार है तो बस ,
एक अनंत सपने का ,
या मौत की नींद का ।"
वाह!!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
सजीव जी बिल्कुल सही सजीव वर्णन है…आज यही दुविधा है चन्द्रमा की खूबसूरती की हँसी उड़ाता बदनुमा दाग्… यही वास्तविकता हैं हमारे देश की…
भूख के बिछौने पर लेटे,
अभाव की चादर ओढ़े ,
उस जर्जर शरीर के ,
चेहरे पर लगी ,
उन दो जगी आंखों को ,
इंतज़ार है तो बस ,
एक अनंत सपने का ,
या मौत की नींद का ।
कम शब्दो में आपने सब कुछ कह दिया है जो एक गहरा निशान मन पर छोड़ जाता है…
सुनीता(शानू)
उपमाएँ नई हैं, कम से कम कविता का यह तो विधान होना ही चाहिए कि बातें भले पुरानी हों मगर बिम्ब नये होने चाहिए।
यहाँ यह परिलक्षित हो रहा है-
भूख के बिछौने पर लेटे,
अभाव की चादर ओढ़े ,
dear sajiv !
now i got the oppertunity to read you and got to know you are really a genious.you actully touch my feelings and l like your thinking that reflects in your poetry, keep it up !
praveen shukla
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