काव्य-पल्लवन का दूसरा अंक आपके सामने है। इस बार कुल ८ सदस्य कवियों ने अपनी कविताएँ लिखी हैं। कितना सुखद आश्चर्य है कि कल ही हिन्दी-चिट्ठाकारी के चार वर्ष पूरे हुए और हमें यह अंक प्रकाशित करने का अवसर मिल गया। इस अंक का प्रमुख आकर्षण यह है कि इन कविताओं के साथ स्मिता तिवारी की पेंटिग्स भी प्रकाशित की जा रही हैं जो एक तरह से प्रत्येक कविता की अलग-अलग चित्राभिव्यक्ति है।
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काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - जीवन एक कैनवास
विषय-चयन - मोहिन्दर कुमार
पेंटिंग (चित्र) - स्मिता तिवारी
अंक - द्वितीय
माह - अप्रैल 2007
इसी सड़क पर
जिस पर सन्ती का घर है
पता नहीं
कितना दौर गुजर गया।
बिहार में अकाल पड़ा था
बड़ा बेटा क्यों मरा?
पता नहीं चला।
दो-चार बीघा जो ज़मीन थी
लाला जी को बेच दी
फिर भी छाती में
दूध नहीं बनता था
छोटू भी चल बसे।
आधा गाँव खाली हो गया
दाया, सरवन, परयाग
सब बचे-खुचे
बाल-बच्चों के साथ
पता नहीं कहाँ चले गये।
हमार मरद भी कहे
चलो, कहीं
जहाँ पानी हो।
तब से दिल्ली चली आयी।
बीस बरस में पता नहीं
कितनी जगह बदली?
यहीं सुधवा पैदा हुई।
पाँच बरस हो गये
सीसा नहीं देखा।
गोई कहती हैं
कि तोहार सरीर में
न खून है न जान।
बजन करावोगी तो
२० किलो भी नहीं निकलेगा।
कौन जीना चाहता है?
सुधवा के बियाह का
फिकिर नहीं होता
तो भिखारिन नहीं बनती।
जवानी में भी कहाँ कमा पायी
अकाल के सूखल छाती
लटकल गाल
५ रुपया नहीं दिया कोई।
अब तो वो भी मुसकील है।
छोकड़पन में लाला की बात
मान गयी होती तो का
ई-दिन देखना पड़ता?
मगर जब बरबादी लिखा हो
तो आँख वाला भी
अँधा हो जाता है।
गोई की बेटी पढ़ने जाती है
सबमें पैसा चाहिए।
हम तो बस कनयादान चाहते हैं।
इनको भी रोजे बोतल चाहिए।
बियाह के चिंता तनिको नहीं है।
जमादारिन कहित रही
कि गुर्दा बेच दो
बेटी का बियाह हो जायेगा
पता नहीं कोई खरीदेगा भी?
शब्दार्थः-
सन्ती- शांति नामक एक स्त्री, दाया, सरवन, परयाग- दया, श्रवण और प्रयाग नाम के व्यक्ति, मरद- पति, सुधवा- सुधा नामक एक लड़की, सीसा- शीशा, दर्पण, गोई- सहेली, तोहार- तुम्हारे, सरीर- शरीर, देह, बजन- वजन, बियाह- विवाह, शादी, फिकिर- फ़िक्र, चिंता, सूखल- सूखी हुई, लटकल- लटकी हुई, मुसकील- मुश्किल, छोकरपन- लड़कपन, ई-दिन- यह दिन, कनयादान- कन्यादान, रोजे- रोज़, प्रतिदिन, तनिको- तनिक, थोड़ा, अल्प, कहित रही- कह रही थी।
आओ छोटू तुम भी आओ,आओ दद्दू तुम भी आओ;
श्याम की भाभी तुम भी आओ,राम की नानी तुम भी आओ।
थोड़ा समय जो साथ बिताओ जी भरके मनोरंजन पाओ,
अब प्रोग्राम स्टार्ट कराओ तुम न ज़्यादा देर लगाओ,
बच्चो, जोर से ताली बजाओ, चलो बंदरिया को ले आओ।
रामकली ने झोला उठाया कन्धे पर उसको लटकाया,
ठुम्मक-ठुम्मक कदम बढ़ाया ये देखो विद्यालय आया।
अब देखो क्या भेष बनाया,उसको दुल्हन सा है सजाया,
देखो उधर से कौन है आया,अरे बन्दर तो दूल्हा बन आया।
बन्दर ने क्यों मुँह लटकाया, क्यों रोया क्यों आँसू बहाया?
ओह मतलब अब है समझ में आया,रामकली ने स्वर्ग सिधाया।
भैया सबकी यै ही कहानी,जानी समझी बहुत पुरानी;
या हो भिखारी,राजा-रानी;छोड़ के दुनिया,सबको जानी।
लेकिन बात ये जानी-मानी,गाँठ बाँध लो इसको 'जानी';
जीवन के इस रंगमंच पर, हर एक भूमिका पड़े निभानी।
पंकज तिवारी
अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट आ गयी है
तुम जान गयी हो
कि तुम्हारे भीतर एक तितली है
तुम मार दोगी न मुझे माँ?
जब आहिस्ता-आहिस्ता
थमने लगेगी दिल की धडकन
और मैं पिघल जाऊँगी
तुम्हारी ही कोख के भीतर
तुम्हारी आँख में आँसू तो न होगा?
आँखें बंद करो माँ
अपने ही जीवन को केनवास समझो
एक चित्र रचो मेरा
रंग भरो कल्पना के सारे
देखो मैं पंछी हूँ, सुन लो मैं गाती हूँ
छू लो मैं पंखुड़ी गुलाब की
मखमल सी सुबहा हूँ, गुलाबी शाम सलोनी
महसूस करो सतरंगी रंगों को सपनों में
महसूस करो मुझे...
एक बार मेरा चित्र खींच, रंग भर देखो
हल्की सी मुस्कुराहट होंठों पर आयेगी,
शबनम को पलकों पर आने मत देना
मेरी मौत से पहले, एक बार
अपने ही जीवन को कैनवास समझो
एक चित्र रचो मेरा...
राजीव रंजन प्रसाद
देखती हूँ ज़िंदगी को मैं अक्सर
यूँ ही लम्बे सफ़ेद कैनवास पर
और फ़िर देखते ही देखते इन में
कई रंग से जैसे बिखर जाते हैं
तब हर गुजरता लम्हा बन जाता है
एक अनदेखी सी तस्वीर कोई
और उसमें कई रंग
यूँ ही कभी सँवरते
कभी धुँधले से चमक जाते हैं
प्रेम का रंग खिलता है जब गुलाबी हो कर
दर्द के घने अंधेरे छँट जाते हैं
ज्ञान का सफ़ेद सा उजाला खोल देता है
जब मन की खिड़कियाँ सारी
रूह के कोने कोने में
जैसे आशा के सैकड़ों दीप झिलमिलाते हैं
जीवन तो नाम है कभी धूप ,कभी छाँव का
पीले पतझर से यह पल हर पल मुरझा के फिर हरे हो जाते हैं
उड़ने दो अपने दिल की हर धड़कन को नीले मुक्त गगन में
अनाहत संगीत के सुरों से सजे यह ज़िंदगी के रंग
कोरे कैनवास पर अपनी हर अदा से मुस्कराते हैं !!
रंजना भाटिया
जीवन क्या है?
जन्म और मृत्यु के बीच
एक अन्तराल
कभी दीर्घ अनुभूति, कभी लघु आभास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
काल की लेखनी उकेरती जिस पर
कभी सूक्ष्म, कभी वृहद रेखाचित्र
धीर गम्भीर या फिर मधुर सुहास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
भाग्य व कर्म की तूलिकाएँ भरतीं जिसमें
भावनाओं के विभिन्न रंग
कभी करुण, आकुल, कभी प्रखर उल्लास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
अराधक के लिये जीवन भक्ति है
सबल के लिये जीवन शक्ति है
निर्बल के लिये जीवन क्रूर उपहास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
भिक्षुक के लिये जीवन केवल दक्षिणा है
श्रमिक के लिये आजीवन जीविका की प्रदक्षिणा
तन थका-थका, अंतर निरन्तर उदास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
संत कहें काया कच्ची माटी की गगरी
संसार मोह, माया, मद की नगरी
जिसे त्याग कर, करना है प्रवास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
मयक़श के लिये जीवन एक मैख़ाना
ग़म और खुशी का यही है पैमाना
न पीये अगर तो रहे बदहवास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
साधक के लिये जीवन एक कला
साधे जिसको वह बन एक शिला
एक अडिग मन, एक अथक प्रयास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
शैशवकाल यदि जीवन प्रभात है
यौवन जीवन की दोपहरी
वृद्धावस्था समझो संध्याबेला है
मृत्यु अनन्त विश्राम निश्वास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
इस धरा के कण-कण में
जल में, थल में, वायुमण्डल में
हर स्थान पर जीवन का है आवास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
मोहिन्दर कुमार
ये देखो,
स्वच्छंद,
टोलियों मे,
अनजान,
बिलकुल बचपन की तरह
खिलखिलाती हुई
यह प्रारम्भ का उत्साह है,
उमंग है
और, यहाँ देखो
कोने में,
विरह की वेदना,
यादों का समन्दर,
तुम्हें स्पष्ट दिखायी देगा
इन बूँदों में
अकेलापन
यह अंत से पूर्व का पश्चाताप है
अब यहाँ,
बिलकुल मध्य में,
उलझा हुआ गुच्छा,
एक-दूसरे को दबाने की,
ऊपर आने की,
कशमकश
यह काम,लोभ,तृष्णा...
उसने चित्रकार पिता की,
इन पंक्तियों को याद किया,
और
रंगो से सारोबार ब्रश,
कैनवास पर छिटक कर कहा,
"देख लो प्रिय, यही जीवन है!"
गिरिराज जोशी "कविराज"
कल मद्यपान से हाय-तौबा,
आज मद्यपान जीवन की शोभा,
गुरु तेरे सान्निध्य ने यह क्या कर डाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।
कल बाबूजी से छुप-छुप कर,
मस्ती का लिए लाव-लश्कर,
स्वप्न-लोक जब पहुँचा था,
कुछ पल को मैं तब सकुंचा था,
आँखों में सूरज पिघला था,
लब पर धुएँ का छ्ल्ला था,
वो मेरी प्रथम कमाई थी,
सिगरेट बन मुझ तक आई थी,
पर संस्कार तो जिंदा था,
मैं खुद पर तो शर्मिंदा था,
आज तूने मेरे हृदय से छीना उजियाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।
कल जिस कूँची से उपजा था,
जिसकी सूची से उपजा था,
जिसने रूह उकेरा था,
वही , मेरा जो चितेरा था -
पथ-कुपथ उसी ने आँके थे,
सही-गलत के निर्णय टाँके थे,
कल तक मेरे शब्द भी अपने थे,
घर में पलते कई सपने थे,
पर आज कूँची तो तेरी है,
तेरी विधा तो एक पहेली है।
इस चित्रपट पर रंगों का निकला दीवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।
अब सपनों के रंग नए-से हैं,
रंग दिल के तो अनचढे-से हैं,
कई रंग तो हो गए फीके हैं,
न होने के ही सरीखे हैं
तूने जो कूँची थामी है,
मूल्यों की हुई निलामी है,
मुझको इस कदर संवारा है,
रिश्तों को किया किनारा है,
तू देव जो जग के धन का है,
चित्रकार मेरे जीवन का है,
मेरा जीवन ही तेरी प्रतिभा का साक्षात निवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।
विश्व दीपक 'तन्हा'
जीवन के दोराहे पर खड़ा है मेरा मन
एक तरफ मदमस्त जवानी
एक तरफ मासूम बचपन
नानी की कहानियाँ थीं
मौजों की रवानियाँ थीं
छत पर पड़ी चारपाई पर अपना डेरा था
मुंडेर पर गिरी बेरी पर जुगनुओं का बसेरा था
घर से दोपहर में चोरी से भागना
बहुत याद आता है,
बरगद की जटाओं से झूलना
बगीचों से फूल चुराना
बरसातों में पाठशाला से भीग कर लौटना
और छतरी न खुलने का बहाना बनाना
नंगे पैर तितलियाँ पकड़ना
कागज की कश्तियाँ बनाना
लावारिस चिड़िया के बच्चे को घर ले आना
उस पर माँ का चीखना चिल्लाना
न लोभ था न कोई मोह
न अपने परायों का तोल-मोल
गर्मियों की छुट्टियों से खुशियों का आलिंगन था
सबको उस छोटी सी दुनिया में आमंत्रण था
अब जवानी की डगर पर हमने पहला कदम रखा है
क्या कहें बस अभी-अभी चलना सीखा है
ये शुरूआत है और अंत तक का नज़ारा देखा है
गली-गली ज़ज़्बातों के बाज़ार खुले हैं
अपनापन बेचते यहाँ सभी बुत धुले हैं
महफ़िल सजी है शमशानों में
और मुर्दों पर खडे जश्न मनाते लोग निरे
इन लम्बे रास्तों का कोई छोर नहीं
कहते हैं हाँफती आशाओं के सिरे
बरसातों में भीगने के बहाने खो गये
खुद अपनी सोच से परेशान रो गये
जीने की जद्दोजहद में
कभी मर जाते हैं
तो कभी खुद को मार देते हैं
लाचार बुज़ुर्ग को देख कर मुँह फेर लेते हैं
रस्म-ओ-रिवाजों मे जकड़े
जीवन के हवनकुंड में अपनी आहुति दे कर
स्वयं स्वाहा... कहते हैं
कोई ग़ौर से न देख ले चेहरे का शून्य
इसे मुस्कुराहटों से सजा लेते हैं
एक पलड़े पर बचपन
दूसरे पर जवानी
बचपन का पलड़ा भारी है
जमीन को छू लेता है
जवानी का पलड़ा हल्का
न जमीन का न आसमान का
जो बीत चुका धुँधला सा जेहन में
वो योग था
जो बीत रहा यकायक कष्ट बन कर
बाकी बचा भोग है
अनुपमा चौहान
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
25 कविताप्रेमियों का कहना है :
काश ये देख पाते हमारे एसी मे बैठे देश के कर्णधार
और मै कह पाता आप सभी को कहा देखा मेरे देश मे ऐसा पर दुर्भाग्य सच यही है ७०% सच यही है
सबसे पहले तो मै आप सभी को बधाई देना चाहूँगी कि आप लोगो की मेहनत और लगन ने काव्यपल्लवन का ये अंक खूबसूरत बना दिया है स्मिता जी की पेंटिग्स जैसा सोचा था उससे भी कही जियादा खूबसूरत रही है,...
अब शैलेश भाई आप बताईये कहाँ से इतनी प्रतिभा छिपाये हुए है क्या सुंदर तरिके से आप रचना लिखते है पहले भी कहा था आपकी रचना आपका एक खूबसूरत हथियार नजर आती है,...बहुत-बहुत बधाई,...
पंकज जी सही कहा है जीवन एक रंगमंच ही तो है हमे अपना कर्तव्य निभाना है,...
वाह राजीव जी आपकी तो हर रचना भाव-विभोर कर देती है जब भी पढती हू टिप्पणी कुछ जियादा ही कर बैठती हूँ जोश-जोश में कहीं किसी कवि मित्र को मुझसे आपत्ति ना हो जाए इसलिए इतना ही लिखँगी आपकी कविताएँ हमेशा मेरे लिये एक ऐसा विषय बन जाती है कि मै उन पर कुछ लिखने को मजबूर हो जाती हूँ,...
वाह रंजना जी बहुत सुंदर लिखा है,
जीवन तो नाम है कभी धूप ,कभी छाँव का
पीले पतझर से यह पल हर पल मुरझा के फिर हरे हो जाते हैं
उड़ने दो अपने दिल की हर धड़कन को नीले मुक्त गगन में
अनाहत संगीत के सुरों से सजे यह ज़िंदगी के रंग
कोरे कैनवास पर अपनी हर अदा से मुस्कराते हैं !!
बहुत सुंदर संदेश है उन लोगो के लिये जो जीवन में निराशा से घिरे बैठे है एक बार फ़िर बधाई सुंदर और आशावादी कविता के लिये,...
मोहेन्दर कुमार जी आपका तो जवाब नही,...विषय भी अच्छा चुना है और रचना के भी क्या कहने जीवन की सच्चाईयों से अवगत कराती है आपकी रचना,..
शैशवकाल यदि जीवन प्रभात है
यौवन जीवन की दोपहरी
वृद्धावस्था समझो संध्याबेला है
मृत्यु अनन्त विश्राम निश्वास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
जीवन का सजीव चित्रण!और उस पर स्मिता जी की पेंटिग ने चार चाँद लगा दिये है,..
कविराज आपने तो जीवन दर्शन स्वंम रचना मे ही करवा दिया है इसे किसी चित्र की आवश्यकता ही नही,..बधाई
कवि तनहा बहुत सुंदर रचना है विशेष ये पक्तिंया अच्छी लगी,..
कल बाबूजी से छुप-छुप कर,
मस्ती का लिए लाव-लश्कर,
स्वप्न-लोक जब पहुँचा था,
कुछ पल को मैं तब सकुंचा था,
आँखों में सूरज पिघला था,
लब पर धुएँ का छ्ल्ला था,
वो मेरी प्रथम कमाई थी,
सिगरेट बन मुझ तक आई थी
अनुपमा जी आपको भी बधाई बहुत सुंदर रचना है आप तो स्वयं ही चित्रकारा है स्मिता जी ने भी बेहद खूबसूरती से कविता को रंगो से सवांरा है
विशेष पक्तिंयाँ जो अच्छी लगी है,..
एक पलड़े पर बचपन
दूसरे पर जवानी
बचपन का पलड़ा भारी है
जमीन को छू लेता है
जवानी का पलड़ा हल्का
न जमीन का न आसमान का
जो बीत चुका धुँधला सा जेहन में
वो योग था
जो बीत रहा यकायक कष्ट बन कर
बाकी बचा भोग है
काव्यपल्लवन का ये अंक बेहद रोचक और प्रभावशाली है,..आप सभी लेखको और विशेषतया चित्रकारा स्मिता जी को हार्दिक बधाई जिन्होने हर कविता को बेहद सुंदर रगों से सवांरा है,..जैसा हमने सोचा था उससे कही अधिक,...
सुनीता(शानू)
ज़िंदगी के रंग बिखर गाये कई रचनाओ में और
स्मिता तिवारी जी आपके चित्रो के मध्याम से ...बहुत अच्छा लगा इन सुंदर
अलग अलग विचारो में ढली रचनाओ को इन चित्रो के साथ पढ़ना..... काव्य-पल्लवन का यह अंक सच में सुंदर बाग़ सा खिल उठा है |
रंगों और भावों का मेला है यह तो,
संग मे हैं सब, फिर भी अकेला है, यह तो,
क्या कहूं और क्या ना कहूं?
पढ़ता रहूं या देखता ही रहूं?
स्मिता की पेंटिंग्स बहुत सुंदर हैं । कवितायें भी अच्छी लगीं । बहुत सुंदर प्रयास
काव्यपल्लवन का ये अंक खूबसूरत है और स्मिता जी की पेंटिग्स भी...
आप सभी लेखकोको हार्दिक बधाई.
anupama aap ki kavita padd kar aisa laga jaise bachpann aur vartmaan dono saamne hain..aur main unhen dekh sakta hun...aapki kavita aapko kahinlekar chali jati hai..main bahut hi prabhavit hun....hamesha likhte rahna..main agle ka wait karunga..
nice!!!!!
जहां शब्द असमर्थ हो गये, चित्रों ने आयाम दिये हैं
कविता और कैनवस का यह लगा समन्वय मन को सुन्दर
एक तूलिका एक भाव को कैसे कैसे चित्रित करती
एक फ़्रेम में सिमट रहा है सच में गहरा एक समन्दर
priya arun,sunita,ranju,varun,pratyakcha,medha,gaurav,rakesh and amit....aap ko mere chitra pasand aaye..mujhe bahot khushi huiii...dhanyavaad
सर्वप्रथम तो मैं स्मिता जी का युग्म पर स्वागत के साथ आभार भी करना चाहूँगा। काव्य पल्लवन के इस अंक को सुन्दर कविताओं ने तो सवारा ही है उन्हें रंग दे कर स्मिता जी ने प्राण प्रतिष्ठा कर दी है। कवियों की कम उपस्थिति से शिकायत है, कमसे कम युग्म के स्थायी कवियों की तीन चौथाई उपस्थिति तो इस प्रयास में अपेक्षित है।
स्मिता जी आपके बोलते हुए चित्रों ने अहसास कराया कि शब्दों को जीवन मिल जाता तो वे कैसे लगते, किस आकार,रंग और रूप के। जब मैने अपनी कविता पर आपका चित्र देखा तो यकीन कीजिये कि मेरी प्रसन्नता का आप अनुमान नहीं लगा सकेंगी। मेरे मन के केनवास पर प्रसन्नता के जो रंग आपने भरे हैं उनका मैं आभारी हूँ..अन्य कवियों की भी संभवत: यही मन:स्थिति हो।
शैलेश जी, जिस तरह जमीन से जुड कर आप लिखते है, प्रसंशा के पात्र हैं। वैसे इतने स्वाभाविक देशज शब्दों का आपने प्रयोग किया है कि शब्दार्थ शायद ही कोई देखे। पंकज जी जीवन और रंगमंच का आपका तानाबाना प्रभावी है किंतु आपने काव्य पल्लवन के मूल विषय पर नहीं लिखा। रंजना जी बहुत सहज स्वाभाविक रचना है “अनाहत संगीत के सुरों से सजे/ यह ज़िंदगी के रंग/
कोरे कैनवास पर अपनी हर अदा से मुस्कराते हैं” सुन्दर कृति। मोहिन्दर जी, आपकी यह केवल एक रचना नहीं वरन पूरा दर्शन है, बहुत प्रभावित करती है कविता। गिरिराज जी आपकी शैली की अपनी मौलिकता है, कविता गढने का आपका अपना तरीका। कसे हुए सटीक शब्द और गहरे भाव। तनहा जी..आपकी प्रतिभा नो नमन है। “मेरा जीवन ही तेरी प्रतिभा का साक्षात निवाला है”। बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने। अनुपमा जी, बहुत ही स्तरीय रचना, यद्यपि यह भी पल्लवन के विषय के कुछ दूर थी। तथापि इस कविता में आपने भवनाओं पर अपनी गहरी पकड का परिचय दिया है।
अंत में
काव्य पल्लवन के इस अंक के लिये सभी युग्म सदस्यों, स्नेही पाठकों तथा पुनश्च स्मिता जी को शुभकामनायें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सबसे पहले तो हिन्द युग्म के अथक प्रयास के लिये साधुवाद और स्मिता जी को बधाई। इतना सुन्दर संगम देख कर मन प्रसन्न हो गया । पर काफ़ी अफ़सोस है कि मैं इसमें योगदान न कर पाया । ।मेरी अंतिम वर्ष की परीक्षायें चल रहीं थीं अतः पर्याप्त समय न निकाल पाया । हालाँकि मैने आधी कविता लिख ली थी पर पूरा न कर सका ।इसके लिये मैं आप सब से माफ़ी मांगता हूँ ।
आलोक शंकर
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी कविता पर कोई पेंटिंग बनेगी, लेकिन हिन्द-युग्म ने यह कर दिखाया। न अनुपमा जी काव्य-पल्लवन को शुरू करने का ज़िम्मा लिया होता तो न ही इतनी सुंदर पेंटिंग्स देखने को मिलते। अनुपमा जी सर्वप्रथम बधाई स्वीकारें।
काव्य-पल्लवन के इस अंक के चित्र इतने प्रभावी हैं कि बार-बार उन्हीं को देखने का मन होता है, कविता की पंक्तियों पर ध्यान बहुत कम गया। विशेषरूप से मोहिन्दर जी की दार्शनिक बातें, वैसे उन्होंने कुच नई बातें न कहकर जग-ज़ाहिर बातों को कविता रूप में कहा है।
राजीव जी ने मुझसे वादा किया था कि इस शीर्षक पर भी वे हमें निराश नहीं करेंगे और उन्होंने सच में बहुत प्रभावित किया, विशेषरूप से-
मेरी मौत से पहले, एक बार
अपने ही जीवन को कैनवास समझो
रंजना जी ने तो कैनवास पर ही जीवन के सारे रंग भरे हैं और कुछ समानान्तर बात कहने की कोशिश पंकज जी ने भी की है।
गिरिराज ने कम पंक्तियों में ही जीवन के प्रारम्भ, मध्य और अंत को कैनवास पर खींच दिया है।
कल, आज और कल का अद्भुत वर्णन किया है तन्हा जी ने-
अब सपनों के रंग नए-से हैं,
रंग दिल के तो अनचढे-से हैं,
कई रंग तो हो गए फीके हैं,
न होने के ही सरीखे हैं
तूने जो कूँची थामी है,
मूल्यों की हुई निलामी है,
मुझको इस कदर संवारा है,
रिश्तों को किया किनारा है,
कैनवास के झरोखों से अनुपमा ने हमें अपने-२ बचपन की ओर खींचा है और सिद्ध किया है कि पुराना योग था, बचा-खुचा भोग है।
स्मिताजी,
आपकी बोलती तस्वीरों ने हमारे शब्दों को नया आयाम दिया है। आपकी उपस्थिति नें इस बार के काव्य-पल्लवन को अत्यधिक सुन्दर बना दिया है। मैं समझ सकता हूँ, यह बहुत ही मुश्किल कार्य है, पहले कवि के भावों को समझना और फिर उसे कैनवास पर उकेरना, निश्चय ही आसान तो कदापी नहीं है। हिन्द-युग्म पर आपका हार्दिक स्वागत एवं अत्यधिक आभार!
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शैलेशजी,
आपकी जमीन से जुड़ी रचनाएँ, वास्तविक जीवन के मर्म को दर्शाती है।
हम तो बस कनयादान चाहते हैं।
इनको भी रोजे बोतल चाहिए।
बियाह के चिंता तनिको नहीं है।
जमादारिन कहित रही
कि गुर्दा बेच दो
बेटी का बियाह हो जायेगा
पता नहीं कोई खरीदेगा भी?
आपकी इन अंतिम पंक्तियों में गरीब तबके के परिवारों की वास्तविकता झलक रही है, यह निश्चय ही विकसित भारत के सपने पर करारी चोट है।
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पंकजजी,
बचपन की सी नटखट शैली में लिखी आपकी पंक्तियाँ सर्कस रूपी मनुष्य जीवन का चित्रण करती प्रतित होती है।
भैया सबकी यै ही कहानी,जानी समझी बहुत पुरानी;
या हो भिखारी,राजा-रानी;छोड़ के दुनिया,सबको जानी।
जीवन की सच्चाई कहती आपकी ये पंक्तियाँ अच्छी लगी।
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राजीवजी,
हमेशा की तरह आपकी रचना में अमानविय घटना का दर्द झलक रहा है -
मेरी मौत से पहले, एक बार
अपने ही जीवन को कैनवास समझो
एक चित्र रचो मेरा...
आपकी ये अंतिम पंक्तियाँ बहुत ही भावुक बन पड़ी हैं।
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रंजनाजी,
जिन्दगी की खूबसूरती को बहुत ही सुन्दरता से आपने शब्दों का रूप दिया हैं।
प्रेम का रंग खिलता है जब गुलाबी हो कर
दर्द के घने अंधेरे छँट जाते हैं
प्रेम और स्नेह से सचमुच जीवन हमेशा खुशहाल बना रहा है।
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मोहिन्दरजी,
आपने अपनी पंक्तियों में जीवन के हर पहलू को बखूबी टटोला है, जीवन के रंग स्थितिविशेष भी होते हैं, इसका वर्णन आपने खूबसूरत तरिके से किया है।
साधक के लिये जीवन एक कला
साधे जिसको वह बन एक शिला
एक अडिग मन, एक अथक प्रयास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
आपकी ये पंक्तियाँ सर्वाधिक पसंद आयी, वास्तव में हर किसी को किसी ना किसी रूप में जीवन को साधना ही होता है और इसके लिये अथक प्रयास की आवश्यकता होती है।
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तन्हाजी,
जीवन को चित्रपट बनाती आपकी प्रत्येक पंक्ति बहुत ही खूबसूरत बन पड़ी है -
पथ-कुपथ उसी ने आँके थे,
सही-गलत के निर्णय टाँके थे,
कल तक मेरे शब्द भी अपने थे,
घर में पलते कई सपने थे,
पर आज कूँची तो तेरी है,
तेरी विधा तो एक पहेली है।
इस चित्रपट पर रंगों का निकला दीवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।
आपकी ये पंक्तियाँ जीवन के दोनों रूपों का बखूबी वर्णन कर पायी है।
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अनुपमाजी,
आपकी अंतिम चार पंक्तियों में ही सारा सार छूपा है,
जो बीत चुका धुँधला सा जेहन में
वो योग था
गुजरे हुए लम्हों को जहन से निकाल पाना सचमुच किसी कठीन साधना से कम नहीं है, इसको योग कहना उचित ही प्रतित होता है।
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अंत में सभी साथियों, पाठकों और निश्चय ही स्मिताजी को हिन्द-युग्म के इस प्रयास को सफल बनाने के लिये हार्दिक धन्यवाद!!!
सस्नेह,
गिरिराज जोशी "कविराज"
सचित्र काव्यानन्द का अनुपम स्थल!
काव्य पल्लवन की सफल प्रस्तुति को हार्दिक शुभकामनाऐं।
चित्र से बढ़कर कर कविता तथा कविता से बढ़ कर चित्र किसकी ज्यादा प्रशंसा किया जाय यह कहना कठिन होगा।
दोनो ही प्रशंसनीय है ।
बधाई
काल की लेखनी उकेरती जिस पर
कभी सूक्ष्म, कभी वृहद रेखाचित्र
धीर गम्भीर या फिर मधुर सुहास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
मोहिन्दर कुमार जी को इन पंक्तियों के लिए बधाई।
और गिरिराज जोशी "कविराज" की पंक्तियां
...रंगो से सारोबार ब्रश,
कैनवास पर छिटक कर कहा,
"देख लो प्रिय, यही जीवन है!"
सुन्दर हैं।
शैलेश भारतवासी की सन्ती और राजीव रंजन प्रसाद की तितली। बहुत पैनी धार है इन कविताओं की।
पंकज तिवारी..रंजना भाटिया..विश्व दीपक 'तन्हा'..अनुपमा चौहान सबने काव्य-पल्लवन को अनमोल काव्य-रत्नों से संवारा हैं।
और स्मिता जी के चित्र.. बस क्या कहने। काव्य-पल्लवन निखर गया है।
मैं कवियों के साथ-२ स्मिता जी को भी पहले साधुवाद, फिर धन्यवाद देना चाहूँगा।
एक अपील भी है--और लिखिये (इस बार कुछ कम रचनाएँ आयी हैं, काव्य-पल्लवन में)।
अराधक के लिये जीवन भक्ति है
सबल के लिये जीवन शक्ति है
निर्बल के लिये जीवन क्रूर उपहास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
सभी कवितायें बहुत अच्छी है ....
और चित्रकारी के क्या कहने ..एक से बड़कर एक
बधाई
Smita ji ki paintings kavita ke arth ko spasht kar rahi hain.
Rajiv ji ki kavita samaj ki chetna ko hilane aur jagane ka ek safal prayas hai. Kavya Pallavan ke doosre ank ke liye badhai aur agami ankon ke liye shubhkaamnaayen.
कविताओं को जीवंत करने के लिए सर्वप्रथम स्मिता जी का शुक्रिया। काव्य -पल्ल्वन का यह दूसरा अंक बहुत हीं सुंदर बन पड़ा है। हर किसी ने एक से बढकर एक रचनाएँ दी हैं। शैलेश जी ने मानो अपनी एक अलग हीं पहचान बना ली है, हमें गाँव के रंग में पूरी तरह से सराबोर कर देते हैं।
राजीव जी मेरे आदर्श है ,अत: मैं उनके बारे में कुछ कहने लायक अपने को नहीं मानता।
पंकज जी ने रंगमंच को केन्द्र में रखकर जीवन के रंगमंच का सजीव चित्रण किया है।
उड़ने दो अपने दिल की हर धड़कन को नीले मुक्त गगन में
अनाहत संगीत के सुरों से सजे यह ज़िंदगी के रंग
कोरे कैनवास पर अपनी हर अदा से मुस्कराते हैं !!
रंजना जी ने इन शब्दों में जीवन का मूलमंत्र फूंक दिया है।
शैशवकाल यदि जीवन प्रभात है
यौवन जीवन की दोपहरी
वृद्धावस्था समझो संध्याबेला है
मृत्यु अनन्त विश्राम निश्वास
जीवन एक चित्रपट (कैन्वॅस)
जीवन की हर बेला को कैनवास पर उकेर डाला है मोहिन्दर जी ने।
कविराज जी ने कैनवास पर जीवन के सारे रंग डाले हैं। अंत में उनका यह कहना कि
"देख लो प्रिय, यही जीवन है!"
जीवन पर गहरा वार करता है।
हिन्द-युग्म पर जिनकी उपस्थिति से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ हूँ ,उनमें एक नाम अनुपमा जी का भी है। उनके हरेक शब्द मोती-सरीखे होते हैं।
जो बीत चुका धुँधला सा जेहन में
वो योग था
जो बीत रहा यकायक कष्ट बन कर
बाकी बचा भोग है।
अगले दो काव्य-पल्ल्वन के अंक में मैं मौजूद नहीं हो पाऊँगा ,मुझे क्षमा कीजिएगा।
smita aapne apni kalpana k madhyam se kavitaao k bhavo ko abhivyakt kiya hai....vo prashansneey hai....aapki sabhi paintings bahot achchi hain....vishesh kar titli aur 6 no.vali kavita..k chitra...meri shubh kamnaaye aapke sath hain...aap apne chhetra me isi tarah aasman ko chuye..
मै देर से आयी, पर कविताओ की यह बगिया आज भी उतनी ही मनोहर रगी जितना यह पहले दिन लगी होगी, सभी लेखको को बहूत बहूत बधाई और स्मिता जी को खास बधाई, हरेक भाव को जितनी खूबी के साथ उन्होने चित्रमय किया है कि आँखे हटने का नाम ही नही ले रही हैं।
बहुत सुंदर अंक...
बहुत उत्तम साहित्य..
बहुत सुंदर चित्र.....
बहुत अच्छा लगा सभी कुछ.....
सभी को मेरी तरफ़ से
हार्दिक बधाई
गीता पण्डित
bharatwasi ji chir dala apne to,mohinder ji aur ranjana ji aaplog bhi kam nahin hain,pathkon ko jhakjhorane ka koi mauka chhodte nahin hain.
baaki sabhi bhi kamtar nahin hain.ant mein smita ji apki kuchiya ka bhi jawab bhi nahin,jab chalti hai to maano jindagi ke saare rang hi udel dengi.
lajwab.
sneh sahit
alok singh "Sahil"
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