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Wednesday, March 07, 2007

गोरी


यौवन-रस छलकावत गोरी, डगमग पग धरके।
खींचत अपनी ओर सजन को, नेह डोर धरके।।

मारत है प्रिय! दृष्टि दुधारी, उभय घात करके,
बरषावत है नयन-पुष्प पुनि, नयन-कलश भरके।
हरषावत विकराल दामिनी, दन्त-पंक्ति चमके,
अधर लालिमा बिच पुनि विद्युत, छिपत जतन करके।

गौर वर्ण अरु श्याम केश ज्यों रात्रि-दिवस मिलके,
शुभ्र पृष्ठ केशावृत्त ज्यों, सावन-घन आ धमके।
वाणी सरस, सहज, मधुमय असि सुन्दर हिय हरषे,
समझ न आवत मृदुल वचन या अमृत-घट छलके।

देखत हूँ मैं छवि तुम्हारी नैनन भरि-भरिके,
तुमसे चित्त हटत नहिं, हारयों लाख जतन करके।
कोमल बदन सहज जीवन की आभा मन भरके,
तुम बिन हिय स्थान रिक्त है, भरो कृपा करके।

यौवन-रस छलकावत गोरी, डगमग पग धरके।
खींचत अपनी ओर सजन को, नेह डोर धरके।।


कवि- पंकज तिवारी


शब्दार्थ-

नेह- प्रेम,
बरषावत- बरसात करती है,
पुनि- सुन्दर, पवित्र,
हरषावत- प्रसन्न होना, हँसना, रोमांचित होना,
दामिनी- बिजली,
बिच- बीच,
शुभ्र- श्वेत, सफ़ेद, उज्जवल,
पृष्ठ- पीठ,
केशावृत्त- बालों से आवृत्त, बालों से भरा,
हिय- हृदय,

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

वाह !!!

मैं तो मन्त्र-मुग्ध हो गया ... बहुत ही सुन्दर कविता है!.... साधुवाद।

आप का साहित्यिक जीवन खूब फूले फ़ले बस मेरी हयी मेरी मंगल कामना है।

आदर सहित नमन
रिपुदमन

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

पंकज जी कविता सुन्दर है। देशज शब्दो और संस्कृतनिष्ठता के बीच कविता उलझी सी लगती है..

Mohinder56 का कहना है कि -

जा रे हट नटखट ना छेड मेरा घूंघट.. पलट के आज दूंगी गाली रे
मुझे समझो न यूं भोली भाली रे.......

ये होते मेरे उदगार यदि मैं नारी होती और आपने यह कविता मेरे लिये लिखी होती.
बुरा ना मानो, होली का सरूर अभी बाकी है... हा हा

सुन्दर रचना के लिय

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर लफ़्ज़ो में ढाला है
पढ़ के बहुत अच्छा लगा
अब इस तरह की रचना काम पढ़ने की मिलती है
बेहद ख़ूबसूरती से आपने शब्दो को बाँधा है !!

SahityaShilpi का कहना है कि -

बहुत सुंदर कविता है। देशज भाषाओं में श्रंगार रस की ऐसी कविताएं अब जरा कम ही पढ़ने में आती हैं। परंतु भाषा-प्रयोग में एकरूपता नहीं रह पाई है, शायद देशज भाषा का अभ्यास न रहने से ऐसा हुआ है। फिर भी कविता आकर्षक बन पड़ी है। कवि का अवधी में लिखने का प्रयास सराहनीय है क्योंकि क्षेत्रीय भाषाओं की समृद्धि भी हमारा ही कर्तव्य है। खासतौर पर हिन्दी भाषी क्षेत्र की उपभाषाओं में आजकल वैसे भी साहित्य सृजन अपेक्षाकृत कम ही हो रहा है। इस सु्न्दर रचना और इस शानदार प्रयास के लिये बहुत बहुत बधाई।

Gaurav Shukla का कहना है कि -

वाह पंकज जी
मन प्रसन्न हो गया
देशज शब्दों के सजी हुयी बहुत सुन्दर कृति

बहुत बढिया
बधाई

सस्नेह
गौरव

विश्व दीपक का कहना है कि -

मारत है प्रिय! दृष्टि दुधारी, उभय घात करके,
बरषावत है नयन-पुष्प पुनि, नयन-कलश भरके।
हरषावत विकराल दामिनी, दन्त-पंक्ति चमके,
अधर लालिमा बिच पुनि विद्युत, छिपत जतन करके।


मंत्रमुग्ध कर दिया आपने। बड़ी मीठी बन पड़ी है आपकी रचना। बड़ी हीं प्यारी है आपकी ठिठोली।

बधाई स्वीकारें।

Anonymous का कहना है कि -

hind yugm ke kaviyon aur lekhko ko mai tahe dil se badhi deta hoon. itni achi kavita sach me man k0 moh leti hai.
thank you pramedra and also.

Upasthit का कहना है कि -

श्रंगारी कविता मे
आरती का पुट
"तुम बिन हिय स्थान रिक्त है, भरो कृपा करके। " और
वीर रस सिक्त शब्द
"हरषावत विकराल दामिनी" या "दृष्टि दुधारी" , आपके प्रयोग आकर्षक है ।
बाकी कहना बस इतना है कि, आगे भी कोई अवधी कविता पढने को मिले...जो कम से कम इन निहायत ही चालू किसिम की उपमाओं और पढे पढाये रूपकों से मुक्त हो... ।
यह प्रथम प्रयास हो तो प्रशंसनीय है....

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