वो बात
जो एक नदी बन गयी
क्या तुमने कही थी?
घमंड से आकाश की फुनगी को
एक टक ताक कर तुम
पत्थर की शिलाओं को परिभाषा कहती हो
हरी भरी उँची सी, बेढब पहाडी...
कितना विनम्र था वो सरिता का पानी
पैरों पर गिर कर और गिड़गिड़ा कर
निर्झर हो गया था..
तुम कब नदी की राह में
गोल-मोल हो कर बिछ गये
क्या याद है तुम्हें?
धीरे-धीरे रे मना
धीरे सब कुछ होय
चिड़िया चुग गयी खेत
अब काहे को रोय?
अहसास के इस खेल में
जब उसकी पारी हो गयी
सरिता आरी हो गयी..
दो फांक हो गये हो
बह-बह के रेत हो कर
उस राह में बिछे हो, कालिन्द की मानिन्द
जिस पर कदम रखे गुजरा किये है
वो याद जो एक सदी बन गयी
वो बात जो एक नदी बन गयी...
*** राजीव रंजन प्रसाद
17.02.2007
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
ितना विनम्र था वो सरिता का पानी
पैरों पर गिर कर और गिडगिडा कर
निर्झर हो गया था..
तुम कब नदी की राह में
गोल-मोल हो कर बिछ गये
क्या याद है तुम्हें?
धीरे धीरे रे मना
धीरे सब कुछ होय
चिडिया चुग गयी खेत
अब काहे को रोय?
अहसास के इस खेल में
जब उसकी पारी हो गयी
सरिता आरी हो गयी..
bhaut badhi bata kahe gaye hai aap rajiv ji ki sarita ka pani chanchal hokar bhi kitni vinti se pani baat kahta hai aapki ye rachna jaise man ke kayi sare taron ko jhka jhor gayi
aapki is rachna ke liye meri taraf se badhyi sweekaren
"दो फांक हो गये हो
बह बह के रेत हो कर
उस राह में बिछे हो, कालिन्द की मानिन्द
जिस पर कदम रखे गुजरा किये हैं"
सुन्दर भाव..दुसरों को सुख वही पहुंचा सकता है जो अपनी हस्ती की परवाह नही करता...पहाड से रेत बन कर शिला क्या क्या नही करती.. दीप जल कर दूसरों को रोशनी देता है..
सुन्दर रचना के लिये बधाई और मेरी कविता पर सुन्दर टिप्पणी के लिये धन्यवाद.
कितना विनम्र था वो सरिता का पानी
पैरों पर गिर कर और गिडगिडा कर
निर्झर हो गया था..
तुम कब नदी की राह में
गोल-मोल हो कर बिछ गये
बहुत ही गहरे भाव लिए हुए है यह आपकी कविता
मिट के दूसरो को ख़ुशी देना ही जीवन जीने को सार्थक करता है
सुंदर रचना है ..बधाई
बहुत सुंदर रचना है, राजीव जी। शब्द और भाव दोनों ही पक्ष बेहद सुन्दर हैं। वास्तव में उस नदी जल की तरह विनम्र होकर ही समुपस्थित के पाषाण हृदय को परिवर्तित किया जा सकता है। एक पाषाण शिला के रेत में बदल कर लोक-कल्याणकारी रूप धारण करने का बहुत सुन्दर चित्रण है। इस खूबसूरत रचना के लिये बहुत बहुत बधाई। भगवान् से आपके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करता हूँ।
Rajeevji aapki har kavita ek se badh kar ek hoti hain....main is soch mai pad jaati hu ki har kavita ko likhte waqt bhaavnaaye kitni gehraai tak kurdti hongi aapko...aap jaldi se theek ho jaaye yahi dua karti hu
Bahut achhe sir .
aapki sabdo me gehrayi bahut hai..
har koi sayad samjh na paye .
aapki rachnaye padne ek accha anubhav hai
जो बहता जाये धार उसी मे है, जो ठहरा हुआ है, उसे मिटना ही होता है :)
सुन्दर रचना राजीव जी... बधाई स्वीकार करें ।
Aapki yah kavita thodi hatke jarur hai,kyon ki hamesha aap samajik anyay ki taraf readers ka dhyan khinchte hain, aur ismein aapne readers ko samarpan ka path padhaya hai.
Bahot achhi tarah upma alankar ka prayog kiya hai aur gahere vichar prastut kiye hain.
Dhanyawad ! Aur han,aap kaise hain?
दुनिया की गति की संक्षिप्त और सारगर्भित व्याख्या करने की कोशिश की है कवि ने।
कुछ मायनों में यह कविता यह भी सिद्ध करती है कि अहंकार वश तुमने जो अपनी बातों को, वचनों को पत्थर की शिला की तरह अचल माना था वो भी आज संसार के नियमों से बाध्य होकर सरिता की तरह गतिशील हो गयीं।
फिर बताता है कि सबकुछ सही ही तो चल रहा था मगर तुम अनजाने में ही गतिशीलता में अवरोध बनकर गोल-मटोल बन गये।
और जब सबकुछ बदल ही दिया तो अब अहसास के बाद के पश्चाताप से कोई लाभ नहीं है।
एवम् उन्हीं यादों को तुमने इतना पीछे छोड़ दिया है कि अब चाहकर भी इस प्रवाह को नहीं रोक सकते।
"पैरों में गिर कर .... निर्झर हो गया था ..."
.
.
"राह ..कालिन्ग की मानिद ...."
रजीव जी, दोनो ही उपमायें अच्छी लगीं ....
कविता में छिपे भाव समझ पाने में थोडा समय लगा ...अर्थ शायद मैंने ... कुछ अपने अनुसार निकाल लिये हैं जो की आपके भावो से कदाचित भिन्न हो सकते हैं।
आप का दर्शन भी सराहनीय है।
एक बार और कविता को आपकी द्रष्टि से समझने का प्रयास करूँगा।
सादर
रिपुदमन पचौरी
राजीव जी
आपकी कविता में आप भाव उडेल देते हैं
बहुत सुन्दर कविता
मुहावरों का प्रयोग बहुत प्रभावी है
:)
कितना विनम्र था वो सरिता का पानी
पैरों पर गिर कर और गिड़गिड़ा कर
निर्झर हो गया था..
.
.
आनन्द आया
वो बात जो एक नदी बन गई..
क्या तुमने कही है?
सस्नेह
गौरव
राजीव जी,
अभीनंदन ! सुन्दर कविता है , ह्रदय की भावनाओ को जल तत्व के साथ कुशलता से समाहीत किया है आपने और साथ ही कविता की सरीता को पाठकों के मन मे बहा दिया है |
नदि के पानी का पैरों मे गीरने का रुपक प्रभावीत करता है और साथ ही मानव मन की गति को दर्शाता है |
वो बात
जो एक नदी बन गयी
क्या तुमने कही थी?
घमंड से आकाश की फुनगी को
एक टक ताक कर तुम
पत्थर की शिलाओं को परिभाषा कहती हो
हरी भरी उँची सी, बेढब पहाडी...
जब उसकी पारी हो गयी
सरिता आरी हो गयी..
वो याद जो एक सदी बन गयी
वो बात जो एक नदी बन गयी...
बड़ी हीं सारगर्भित रचना है।
बधाई स्वीकारें।
वाह..अत्यन्त परिस्क्रित तथा भाव्पूर्ण रचना है..बधाई.
कविता कहे सब पर कहे पाठक के मन के भीतर ही, स्वयं इतनी बोझिल नहीं हो सकती, मानो बोझा ढोने मे असमर्थ पा रही हो खुद को । अन्कही बातें भी बहुत कुछ कहती हैं, कहते कहते रुककर भी, जो कहा जो नहीं कहा, सब कुछ पहेली सा ही सही पर चकित करता है । और आश्चर्य ये कि बातें वही भायीं जो अन्कही रहीं, कविता वही सर्वश्रेश्ठ जो लिखी नहीं गयी, बह गयी बस ।
मानता हूं कि कविता का अर्थ पाठक ही गढता है, कवि तो बह्ता भर है बस । और यदि यह् समझ किसी भी हद तक सही है तो यह कविता भी सफ़ल है..बधाई स्वीकारें...
पर हर कहीं ऐसा ही आश्चर्य ना मिले कहीं कुछ कविता से भी समझने को मिले...खाली पीली अपना भेजा ना लगाना पडे, कि मैं कविता फ़िर न समझ पाऊं और अपनी नासमझीं छुपाने हेतु, प्रतिक्रियायें पढ अर्थ निकालूं........और फ़िर कहूं बधाई स्वीकारें....
(आशा है आप मेरे जैसे नासमझ नही....बात समझ सके होंगे...अफ़सोस कि कोई प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया नहीं देता....)
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