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Tuesday, March 06, 2007

लम्पट मन


आपने अवश्य पढा होगा "मन चंचल, मन बांबरा.........मन की मती चलिये नही....पलक पलक मन और" इसी आशय को ले कर मैंने कुछ पंक्तियां लिखी हैं जो मन की अवस्था को दर्शाती हैं...हताशा के समय एवम् सामान्य अवस्था में भी... कारण कुछ भी हो... मन पर काठी कसना बेहद कठिन कार्य है...जिसने यह कर लिया... उसे मेरा दण्डवत् प्रणाम.


मन की भाषा सरल नहीं है
इसकी व्याख्या हो न पाये
कालान्तर के चिन्तन क्या-क्या
वर्तमान के विफल पर्याय

तुलनाओं के हाट पर
सतत, अनवरत प्रयास
जब धूलधुसरित हो जाते हैं
धर्मसंगत, विधिसम्मत राहों के दीपस्तम्भ
अंधकारमय हो जाते है

शाम, दाम, दण्ड, भेद भी
चंचल, चपल मन पर न पा पायें पार
कनक, माणिक या मांसल देह देखी नहीं
यह लोभी टपकाये लार

कामनाओं के क्षुधित तरक्षु
लम्पट मन पर हावी हैं
शुष्क काष्ठ सी निर्जीव चेतना
व्यवहृत अश्व सी धावी है

क्या करना है सुनहरी अक्षर वाच के बरसों
यदि एक दीप जला न पाये
कस्तुरी मृग बन भटके घट घट
किन्तु सुगन्ध तक पहुंच न पाये

कवि- मोहिन्दर कुमार

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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

अभी कुछ दिन पहले मैं और आप मन की गति पर ही बात कर रहे थे और आपने मौका निकालकर कविता भी कर ली। बहूत बढ़िया। इसमें वह सबकुछ है जो मन की कारस्तानियाँ होती हैं। सुन्दर कविता के लिए साधुवाद।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

यह तो आपने सत्य कहा कि मन पर काठी कसना कठिन कार्य है..फिर आप जैसे कविहृदय के मन को तो सात और घोडे मिलें मेरी एसी कामना है, जिससे बेलगाम आपका कोमल मन एसी ही अद्भुत रचनाओं के लिये भावनाओं की सडक पर भटकता रहे केवल...

SahityaShilpi का कहना है कि -

मोहिन्दर जी ने अपनी कविता में मन की चंचलता का जो वर्णन किया है, वो बिल्कुल सच है। पर केवल इसकी चंचलता के कारण इसे लम्पट कह देना शायद ज्यादती होगी, क्योंकि ये मन ही मानव को मानव बनाता है, अन्यथा तो वह एक सोचने समझने वाली मशीन बनकर रह जायेगा। कविता में कुछ शब्द भी शायद गलत छप गये हैं, जैसे तरक्षु, वाच आदि। मोहिन्दर जी जैसे समर्थ कवि से और अच्छी कविता की उम्मीद रहती है।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

क्या करना है सुनहरी अक्षर वाच के बरसों
यदि एक दीप जला ना पायें
कस्तुरी मृग बन भटके घट घट
किन्तु सुगन्ध तक पहुंच न पायें

मन की गति को बहुत अच्छे से विचारो में ढाला है

मन को कब कोई बाँध पाया है
मन ने ही सारे जगत के खेल को रचाया है
दिखाए हैं कई रंग इसी मन ने जीवन के
इसी मन ने ही तो मानव को मानव बनाया है !!

Mohinder56 का कहना है कि -

अजय जी,
सर्वप्रथम आपकी टिप्पणी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद..
मन को मैंने लम्पट इस लिये कहा है क्योंकि गाहे बगाहे ये रास्ते से सरकने की कोशिश करता है...बार बार इस की लगाम पकड कर इसको रास्ते पर लाना पडता है.
जहां तक अक्षरों की गलती का प्रश्न है...

तरक्षु = भेडिया या लक्कड बग्घा
वाचन = पढना या गुणना (समझना)

मेरा अभीप्राय रहे है...मैं नही जानता कि इन अक्षरों का कुछ दुसरा सही रूप भी है... यदि आप जानते हों तो कृपा करके मुझे भी अवगत कराये ताकी मैं अपनी भूल का सुधार कर सकूं

Anonymous का कहना है कि -

क्या करना है सुनहरी अक्षर वाच के बरसों
यदि एक दीप जला ना पायें
कस्तुरी मृग बन भटके घट घट
किन्तु सुगन्ध तक पहुंच न पायें

hamaara man hi yahaan wahaan bhaagta raheta hai....aur hum man ke peeche peeche bhaagte rahete hain....aapki kavita mere man ko khoob bhaai

SahityaShilpi का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,अपनी कविता पर मेरी टिप्पणी का जवाब देने के लिये आपका धन्यवाद। जहाँ तक सवाल शब्द प्रयोग का है, तरक्षु का अर्थ बताने के लिये धन्यवाद (हालाँकि टिप्पणी से पूर्व मैंने इसका अर्थ शब्द-कोश में भी ढूंढने की कोशिश की थी, जिसका 'लिन्क' इस ब्लॉग के मुख्य पृष्ठ पर दिया गया है।) रही बात 'वाच' की तो मेरी जानकारी के हिसाब से (मैं गलत भी हो सकता हूँ) इसका क्रिया रूप 'वाचन' है, वाच करना नहीं। आशा है कि मेरी इस धृष्टता या गलती के लिये आप मुझे क्षमा करेंगे।

Kamlesh Nahata का कहना है कि -

Extremely good.

Kamlesh Nahata का कहना है कि -

Extremely good.

गरिमा का कहना है कि -

कविता की सभी पँक्तिया पसन्द आयीं सिवाय
क्या करना है सुनहरी अक्षर वाच के बरसों
यदि एक दीप जला न पाये
कस्तुरी मृग बन भटके घट घट
किन्तु सुगन्ध तक पहुंच न पाये

माफ करें पर मै समझ नही पायी :(

क्योंकि जो अर्थ मै लगा रही हुँ उसके अनुसार कवि कहना चाहते हैं कि
अगर बरसो पढने के बाद भी कुछ अच्चा न कर सके तो बरसो की मेहनत बेकार है,जैसे कि कस्तुरी मृग बहुत भटकने के बाद भी सुगन्ध तक पहुँच नही पाता है।

एक तो मुझे इसका तारतम्य समझ नही आया, दुसरी बात की मन को समझना भले ही मुश्किल हो पर ऐसा भी नही कि यह प्रकाश देने के काबिल नही है, इसी मन मे उठे सवालो, आकाँक्षाओ के कारण मानव पाषाण युग से आधुनिक युग की स्थापना करने मे सफल हुआ है।

मोहिन्दर जी मुझे अपनी बात जरुर समझाईयेगा :)

princcess का कहना है कि -

man darpan,,man lampat,,,man mahavegi,,,man kya kya nahi?fir bhi use kaboome karne ke badle
ek chhota hi sahi,,samzneka prayaas kiya jaye? mohindar jee,achhi kavita ke liye badhai.

विश्व दीपक का कहना है कि -

"मन रे, तू काहे न धीर धरे" - सच हीं कहा गया है।
काहे इत-उत भटके,
काहे लम्पट बने।

मन के सारे भावों का बोध कराया गया है। अच्छी रचना है।
(सारी पंक्तियाँ अच्छी हैं , अतः किसी को उद्धृत मैंने नहीं किया है।)

Gaurav Shukla का कहना है कि -

कविता बहुत ही सुन्दर है
लम्पट सही शब्द है मन के लिये

बधाई

सस्नेह
गौरव

Upasthit का कहना है कि -

कविता हर कहीं जैसे अन्तिम पन्क्ति में
"कस्तुरी मृग बन भटके घट घट
किन्तु सुगन्ध तक पहुंच न पाये" ...चिरपरिचित से बिम्बों से काम चलाती सी और उपदेश करती सी है कि कवि समस्या मे समाधान लपेट हाजिर है, बिना विचारों को विस्तार दिये ।
उसने यह सोंचने मे समय व्यर्थ नहीं किया कि "धर्मसंगत, विधिसम्मत राहों के दीपस्तम्भ" यदि सजीव चेतना और अश्व सी तीव्रता से यदि बुझाये जा सकते है । मन पूरी धमाचौकडी कर यदि इन दीपस्तम्भों से पीछा छुडा सके, एक सवेरा ला सके तो लम्पट मन की भटकन सार्थक ही नहीं है, अहुति है, मानवता के विकास मे।
मन के भट्काव की भांति ही कविता भी भटकी सी है, पर आश्चर्य बस एक ही दिशा में । मन का भटकाव ही मानवी चेतना का पर्याय है, इस अति साधारण सी बात पर कविता आंखें मूद बस एक ही दिशा मे भटकती चली गयी है । इतना ही नहीं, कविता की भूमिका जो व्यक्तिगत तौर पर एक निर्रथक ऒपचारिकता लगी है उसमे भी, मन की काठी कसने पर ही बल..कवि तुम्हे तो वहां पहुंचना था जहां रवि भी नहीं जा पाता , विचार विस्तार मांगते है, इतनी कूप मन्डुकता ..स्वीकार्य नहीं ।

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