कल
धरा का स्वर्ग,श्वेतहिमाभिभूषित;
शिखर उत्तुंग , जिनपर वृक्ष शोभित।
कहीं डल झील के जीवित किनारे ,
प्रणय की भावना ढोते शिकारे।
रसीले बाग, सेवों के , फलों के;
यही , जो स्वर्ग के लगते झरोखे ।
यहाँ त्रिगुणा मनोरम वायु बहती,
कि कण - कण में अलौकिक शांति रहती।
सुविस्मित नेत्र कर देखो प्रकृति का ,
यहाँ पर रोज उत्सव चल रहा है ;
हुआ है दैव आज उदार कितना,
अमित सौन्दर्य का घट खुल रहा है ।
यही कश्मीर , भूषण जो अनोखा,
हमारे देश का हरदम रहा है;
यही वह प्रांत जिसमें मज़हबों का,
अनोखा सर्वदा संगम रहा है ।
अलौकिक संपदा , हम मूल्य जिसका जानते हैं,
कि भारतवर्ष का हम ताज़ इसको मानते हैं ;
भला किस देश में ऐसा प्रदेश विशेष होगा ,
जिसे बस देखकर ही स्वर्ग को भी द्वेष होगा ?
आज
यही कश्मीर है , जिसकी रगों में,
नहीं है रक्त, अब बारूद बहता ;
धवल हिम की पुरानी पत्रिका पर,
कहानी लिख , मनुज का रक्त बहता ।
धमाकों के नगाड़े शांति-सुख के,
किया करते हजारों रोज़ टुकड़े ;
बगल की ही सड़क पर एक बालक,
पिता का है विखंडित हाथ पकड़े ।
भयानक दृश्य है , रे शांत उपवन !
तुझे किसने अचानक डस लिया है ;
कि तूने भूल से अमृत समझकर ,
कहीं कोई हलाहल चख लिया है ?
सदा ही सौख्य-द्युति से दीप्त रहते,
दृगों की ज्योति जैसे खो गयी है ;
हमारी इस अलौकिक सुन्दरी की,
बड़ी दयनीय हालत हो गयी है ।
अब क्या कहें ? आतंक को , आतंक से आतंक है,
निश्चय यहाँ पर ही कहीं , कुछ चल रहा षडयंत्र है ।
अब कौन कितना जानता है , भूल थी किसकी यहाँ ?
किसने कहाँ शुरुआत की , है खो गयी खुशबू कहाँ ?
अब दोष देना है किसी को , तो वही दे लीजिये ,
पर देश की खातिर , अरे नेताजनों ? बस कीजिये !
है आपको भी ज्ञात, कितना फ़र्क राम- रहीम में,
बस कीजिये , इंसान को इंसान रहने दीजिये !!
-आलोक शंकर
शब्दार्थ-
श्वेतहिमाभिभूषित- सफ़ेद बर्फ़ का आभूषण पहने,
उत्तुंग- ऊचे,
त्रिगुणा - तीन गुण वाली, शांत , शीतल ,और सुरभित,
सुविस्मित -सुखद् आश्चर्य,
सौख्य-द्युति - भाईचारे, सद्भाव की रोशनी,
दृगों-आँखों
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
आलोक जी..
बहुत सुन्दर रचना है। धरा का स्वर्ग किस तरह नर्क में बदल गया आपने बखूबी अपनी कविता में दर्शाया है..कविता का दूसरा भाग संवेदना से ओत प्रोत है:
"धमाकों के नगाड़े शांति-सुख के,
किया करते हजारों रोज़ टुकड़े ;
बगल की ही सड़क पर एक बालक,
पिता का है विखंडित हाथ पकड़े ।
भयानक दृश्य है , रे शांत उपवन !"
कविता का उपसंहार भी प्रसंशनीय है:
"है आपको भी ग्यात, कितना फर्क राम- रहीम में,
बस कीजिये , इंसान को इंसान रहने दीजिये !!"
इस सुन्दर रचना के लिये बधाई..
श्वेतहिमाभिभूषित- safed barf kaa aabhushan pahane
उत्तुंग- uuche
त्रिगुणा - teen gun valii , shant , sheetal ,aur surabhit
सुविस्मित -sukhad aashcharya
सौख्य-द्युति - bhaaichare, sadbhaav ki roshni
दृगो-aankho
बहुत सुन्दर रचना है।
या तो कभी भारत-भारती में ऐसा कुछ पडा था.. या फ़िर आज आप की लेखनी से निकल हुए ये शब्द।
रिपुदमन
आलोक जी बहुत सुन्दर रचना है। ...
इस सुन्दर रचना के लिये बधाई..
for those who don't know Alok..
its astonishing and pleasant to realize that soul of a such a nice poet is still living in the mind of a successful software engineer.he is a bright student of our university,having job in the world leader company in computer networking and writes poems as an amateur.
now aren't you astonished????... :)
[sorry for writin in eng, i don ve hindi editor]
आलोक जी,
हृदय प्रसन्न हो गया,बहुत सुन्दर कविता है|
प्रारम्भ से अन्त तक, गंभीर, संवेदित करने वाली रचना
बहुत सुन्दर
हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव
अब क्या कहें ? आतंक को , आतंक से आतंक है,
निश्चय यहाँ पर ही कहीं , कुछ चल रहा षडयंत्र है ।
अब कौन कितना जानता है , भूल थी किसकी यहाँ ?
किसने कहाँ शुरुआत की , है खो गयी खुशबू कहाँ ?
अब दोष देना है किसी को , तो वही दे लीजिये ,
पर देश की खातिर , अरे नेताजनों ? बस कीजिये !
है आपको भी ज्ञात, कितना फ़र्क राम- रहीम में,
बस कीजिये , इंसान को इंसान रहने दीजिये !!
दिल को छु गये ये आशार ... अद्वितिय रचना :)
आलोक जी,
आप निस्संदेह बधाई के पात्र हैं कि आपकी कविता ने आतंक के वर्णन के बावज़ूद
अपना सौन्दर्य नहीं खोया. भाव भी बहुत सुन्दर हैं और शब्द भी, किन्तु एक कमी मुझे महसूस हुई, जो हमारी पीढ़ी के लगभग हर कवि में दिखती है- तत्सम शब्दों के बीच में अचानक देशज या उर्दू के शब्दों का आ जाना. यह भावों की तीव्रता को तो बढ़ाता है किन्तु उस स्थान पर कविता में एक हल्का सा धब्बा लग जाता है.
जैसे- यही वह प्रांत जिसमें मज़हबों का सर्वदा अनोखा संगम रहा है.
या
है आपको भी ग्यात, कितना फर्क राम- रहीम में.
मैं भी लिखते समय ऐसी भूल कई बार करता हूं.आशा करता हूं कि हम सभी इस ओर ध्यान देंगे.
आलोकजी,
बस कीजिये , इंसान को इंसान रहने दीजिये !!
कविता का अंत उत्तम लगा। कल और आज के कश्मीर में जो अंतर आया है वो वाकई पीड़ादायक है, आने वाला कल, कल जैसा ही हो इसके लिए प्रयत्न आवश्यक है।
सुन्दर कृति के लिए बधाई स्वीकार करें।
आलोक जी,
आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों की माल पिरो कर बीते कल के काश्मीर और वर्तमान के काश्मीर की तुलना की है जिसके लिये आप बधाई के पात्र हैं
सही कहा आलोक जी, कश्मीर का आज देखकर यह आवाज़ हरके दिल से आती है-
"हमारी इस अलौकिक सुन्दरी की,
बड़ी दयनीय हालत हो गयी है ।"
शायद आपकी निम्न पंक्ति उसका कारण बताती है-
"निश्चय यहाँ पर ही कहीं , कुछ चल रहा षडयंत्र है ।"
क्या बात लिखी है! मज़ा आ गया-
"है आपको भी ज्ञात, कितना फ़र्क राम- रहीम में,"
कविता की शुरुआत सराहनीय लगी पर कामायनी का प्रभाव स्पष्ट झलका…हो सकता है…ऐसा मुझे लगा हो…।
आतंक का भाग वह लय नहीण पा सका जो प्रवाह उपर की पंक्तियों में दिखा…।
लिखा तो अच्छा है हीं…बधाई स्वीकारें…।
Sundar jhalak kashmir ki dikhi......kashmir bharat ka taaj hai.....isi taaj ko bachaane mai kitne siphaai sarhad par date hue hain.....bhadhaai aapko is kavita ke liye
बधाई आलोक जी।
कविता के विषय में कुछ कहने योग्य शब्द नहीं मिल रहे, इसलिये कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। भविष्य में भी आपसे ऐसी ही कविताओं की आपसे अपेक्षा है।
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