चिथड़ों में लिपटी उस ढांचे को
सबने जाते देखा,
ओठों ने उसे पागल कहा,
पर निगाहें-
निगाहें तो उसकी सूखी ठूँठ में,
मांसल लोथड़े तलाश रही थीं,
जीभ लपलपाते थे,
बड़ी मुश्किल से लार गटके जाते थे,
बस रात का इंतजार था
और
कमबख्त रात आ गई-
सर्द इतनी कि सर्दी भी ठिठुर जाए-
क्यों वहाँ ठिठुर रही हो
भूख लगी होगी -आओ रोटी यहाँ है-
ऊष्णता यहाँ है-
बस मेरे सीने में पाताल तक धंस जाओ-
एक निमंत्रण था
या मौत का आमंत्रण था,
उसने रोटी देखी- जलती आग देखी-
कुछ सोचना चाही
पर सोच न सकी-
और..................समय पर भूख हावी हो गई-
किसी को तन की .......तो किसी को पेट की,
उसके चिथड़े बिखर गए,
ज्योंहि आसमान लाल हुआ
वो भी लाल हो चुकी थी-
भूख मिटते हीं संवेदना मिट गई
पर उसे तो खून का अर्थ भी पता न था-
बस दर्द था पता , वेदना थी पता....
वो लूट चुकी थी,
पर क्या यह पहली मर्तबा था?
शायद नहीं-
कुछ चिथड़े जमा कर फिर वह चल पड़ी
एक अनजाने राह पर,
एक अंतहीन पथ, जिसकी मंजिल
सफर को भी पता नहीं,
पर एक बात पता है,
इस जहां में वह इसी तरह पिसी जाएगी,
जब तक-
उसकी जिंदगी की गाड़ी रूक न जाए।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
संवेदित करनें वाली कविता है। विश्व दीपक जी आप नें समाज की एक नग्न सत्यता को उसके पूरे नंगेपन के साथ प्रस्तुत किया।
"पर निगाहें-
निगाहें तो उसकी सूखी ठूँठ में,
मांसल लोथड़े तलाश रही थीं...."
मैं कवि की रोटी और बोटी वाली संकल्पना से प्रभावित हूँ:
"भूख लगी होगी -आओ रोटी यहाँ है-
ऊष्णता यहाँ है-
बस मेरे सीने में पाताल तक धंस जाओ-"
"उसने रोटी देखी- जलती आग देखी-"
"भूख मिटते हीं संवेदना मिट गई"
कवि यह बताने से नहीं हिचकता कि यह इस संवेदनशून्य समाज में आम घटना है:
"पर क्या यह पहली मर्तबा था?
शायद नहीं-"
"इस जहां में वह इसी तरह पिसी जाएगी,
जब तक-
उसकी जिंदगी की गाड़ी रूक न जाए।"
आपको कोटिश: बधाई इस अनुपम रचना के लिये।
*** राजीव रंजन प्रसाद
चिथड़ों मे लिपटी वो और अपना सभ्य समाज... जो किसी को एक रोटी भी दे तो इस कदर कीमत वसुल करता है...
"भूख लगी होगी -आओ रोटी यहाँ है-
ऊष्णता यहाँ है-
बस मेरे सीने में पाताल तक धंस जाओ-"
और एक तरफ मजबुरी की भी मजबुरी...
"कुछ सोचना चाही
पर सोच न सकी-"
कुछ इस कदर है कि
रहने दो झुठा सम्मान, क्या करुँगी
जीने के लिये जिस्म मे जान चाहिये
लुट्ते-मिटते है जानकर भी हर कदम
भुख की ज्वाला मिटाने को समान चाहिये
कविता का भाव जिवंतता के साथ चित्रित किया गया है... बधाई
चिरकाल से कमजोर का शोषण होता आया है जिसका आपने सजीव चित्रण किया है .... सामाजिक जागरुकता में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है तभी कुछ परिवर्तन आ सकता है एक अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकारें
kavita ka vishay aur chitran dona acche lage .
जब मैं हिन्दी-ब्लॉगिंग से जुड़ा था तो इसका अंदाज़ा नहीं लगाया था कि कविता-ब्लॉग पर इतनी सुंदर-रचनाएँ भी पढ़ने को मिलेंगी। मगर विश्व-दीपक ने मेरा भ्रम तोड़ दिया। हर बार पहले से बेहतर कविता।
इस कविता में जैसे कवि ने समय की कहानी लिखी हो-
कुछ चिथड़े जमा कर फिर वह चल पड़ी
bahut hi gahara aakshep hai deepak ji .. sundar... maaf karna mere pas linux me koi typewriter na hone ki vajah se roman me likh raha hoon ...
alok shankar
कुछ चिथड़े जमा कर फिर वह चल पड़ी
एक अनजाने राह पर,
एक अंतहीन पथ, जिसकी मंजिल
सफर को भी पता नहीं,
पर एक बात पता है,
इस जहां में वह इसी तरह पिसी जाएगी,
जब तक-
उसकी जिंदगी की गाड़ी रूक न जाए।
बहुत ही दिल को छू लेने वाली रचना है ...
अद्भुत
सम्भवतः शब्दों क नितान्त अभाव है मेरे पास इस कविता की प्रशंसा करने के लिये
बधाई
सस्नेह
गौरव
निगाहें तो उसकी सूखी ठूँठ में,
बस मेरे सीने में पाताल तक धंस जाओ-"
kavita mook satya ko darshaati hai....bhadhaai aapko
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