प्रमोद कुमार तिवारी की कविताओं की सच-बयानी बिना किसी आडम्बर और लाग-लपेट के साथ आती हैं, इसलिए इनकी कविता पढ़ने के बाद पाठकों के सामने दूध और पानी अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। ऐसे दो उदाहरण हम पहले भी 'ठेलुआ' और 'दीदी' कविता के माध्यम से प्रस्तुत कर चुके हैं। आज एक नमूना और॰॰॰॰
भीड़
चली आ रही थी वह
भारी पावों से सबकुछ रौंदती
चेहराविहीन
गले के ऊपर कुछ नहीं
गर्दन के बाहर लटक रही थी
लंबी सी जीभ
जीभ पर थे खून के थक्के
बड़े-बड़े पैर बुलडोजर जैसे
किसी ने बताया यह भीड़ है
व्यक्ति को करती निमंत्रित
साथ चलने को
इन्कार का मतलब कुचलना
भीड़ नहीं बना सकती थी
कोई स्कूल या पुल
क्योंकि नहीं थे उसके पास हाथ
केवल पैर, बुलडोजर जैसे
और बहुत बड़ा पारदर्शी पेट
पेट में दिख रही थी कई चीजें-
बेवा का सिन्दूर,
एक तीसवर्षीय बूढ़े की पूरी जवानी
पेट में दिख रही थी एक सूली
जिस पर चढ़ा था एक मासूम जोड़े का प्रेम
भीड़ बाँट रही थी कुतूहल
दे रही थी मुक्ति उतरदायित्व से
बेचारी पुलिस कहाँ डाले हथकड़ी
किसका ले फोटो न पता न ठिकाना
देखते-देखते गायब
सिर्फ़ बड़े-बड़े पैर बुलडोजर जैसे
पैरों के नीचे से निकल रही थीं
तहस नहस दुकानें
खंडहर घर, अधजली किताबें
आँख का पानी
और ऐसा बहुत कुछ
जिसकी पहचान वर्षों बाद होनी थी
मैने लिया भीड़ का साक्षात्कार
तुम्हारा नाम- भीड़
तुम्हारे पूर्वज- भेड़
घर कहाँ है तुम्हारा
.....................
अमेरिकी हो, बिहारी हो, गुजराती हो?
मैं भीड़ हूँ
लक्ष्य क्या है तुम्हारा?
हुआ गलती का अहसास
मैं पहुँचा दूरी बना कर चल रहे
उसके दिमाग के पास
पूछा भीड़ का लक्ष्य
उसने पहले ठंडी निगाहों से घूरा
फिर खामोश सी आवाज में बोला
तुम्हें नहीं लगता
कि हिन्दुस्तान
कठिन नाम है!!!