
रवि मिश्रा ओसामा से ओबामा तक और मैडोना से मल्लिका तक की ख़बर, हम तक पहुँचाने वाले एक ख़बरिया चैनल की बोलती ज़ुबान हैं। ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर रवि मिश्रा छपरा, बिहार से चलकर नोएडा पहुँचे हैं। हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता में पहली बार भाग लिये हैं और शीर्ष 10 में स्थान सुनिश्चित करने में सफल भी हुए हैं।
पुरस्कृत कविता- आंखों में बसीं इमारतेंहर चेहरा मुझे दो जोड़ी आंखों जैसा लगता है
जिसमें सपनों की छोटी बड़ी इमारतें नज़र आतीं हैं
जिनकी एक-एक ईंट उम्र भर जोड़ता है
रोज़ कुछ गढ़ता है, उन इमारतों का मालिक
जैसे एक घर बनने में सालों लगते है
एक-एक तिनका जुड़ता है
तो आशियाने बनते हैं
ऐसा ही कोई मकां उन आंखों में भी खड़ा होता है
फिर वो सजता है कल्पना के रंगों से
रंग जिसे हम-तुम चुनते है
ताने बाने जो हम-तुम बुनते हैं
एक छोटे बच्चे की आंखों में देखा
तो आईसक्रीम की बड़ी इमारत दिखी मुझे
भिख़ारी को देखा रोटी की ज़रूरत दिखी मुझे
किसी प्रमिका को प्रेमी के संग
घर संसार का सपना
किसी बेरोज़गार के घिसते चप्पलों को
एक अदद नौकरी के लिए जपना
ये सब कुछ उनकी आंखों मे दिखता है
ये सब कुछ बिना पैसे के बिकता है
पर ऐसा तो नहीं आंखों में खड़ी ये इमारते
ज़मीन पे आ जायें
घर टूटता है तो दुनिया देखती है
सपनों का महल ढहता है तो
तकलीफ़ ये आंखें ही कहती हैं
और जैसे कि ध्वंश के अवशेष पर फिर से निमार्ण होता है
नई रचना होती है
आशा की ज़मीन पर आंखों में भी नई इमारतें बनती हैं
आशा! उम्मीद! ये शब्द भर नहीं हैं
ये शब्द भर नहीं हैं, उनके लिए जिनका कुछ टूट गया होता है
ये नवनिमार्ण की जरूरत हैं
ये नई शुरूआत की ताक़त है
मेरी आंखों में भी कुछ ऐसी ही इमारतें खड़ी हैं
जो रोज़ ढह जाती हैं
और अगली सुबह तनी खड़ी कहीं मिल जाती हैं
तभी मैं जीवन की राह पर अनवरत चलता जा रहा हूं
प्रथम चरण मिला स्थान- बारहवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- सातवाँ
पुरस्कार- राकेश खंडेलवाल के कविता-संग्रह 'अंधेरी रात का सूरज' की एक प्रति।