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नानी ने भेजे होंगे


प्रतियोगिता की छठवीं कविता के रचनाकार रवि मिश्रा एक पत्रकार हैं। इससे पहले इनकी एक कविता मई महीने की प्रतियोगिता में प्रकाशनार्थ चुनी गई थी।

पुरस्कृत कविता- सोने दो

सुबह की पलकें खोले कौन
हिंडोले में ना डोले कौन
पुतली को सोने दो
सपना है, सपना ही सही
होने दो, आज मुझे सोने दो।

बड़े दिनों के बाद
ये लहरें चौखट तक आयी हैं
कोई बदरी मेरे छत की
इस दूर देस में छाई है
खाली हैं, खाली ही सही
होने दो,
आज मुझे सोने दो।

इक धान की बाली फूट गई
और मेरे तकिये पर बिखर गई
लाल-लाल एक धूप सुबह की
अलसाई पलकों में उतरी
उतरी और निखर गई
और इंद्रधनुष का एक घेरा भी है
झूठा है, होने दो
आज मुझे सोने दो।

पैरों में लगी फिर गीली मिट्टी
बीते कल से आई है चिठ्ठी
लिखा बहुत कुछ अक्षर-अक्षर
भरे लिफ़ाफे परियों के पर
नानी ने भेजे होंगे
वरना कौन करेगा
बड़े हुए हम बच्चों की फ़िकर
बातें हैं, होने दो
आज मुझे सोने दो।


पुरस्कार- डॉ॰ श्याम सखा की ओर सेरु 200 मूल्य की पुस्तकें।

आँखों में सपनों की छोटी बड़ी इमारतें नज़र आतीं हैं


रवि मिश्रा ओसामा से ओबामा तक और मैडोना से मल्लिका तक की ख़बर, हम तक पहुँचाने वाले एक ख़बरिया चैनल की बोलती ज़ुबान हैं। ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर रवि मिश्रा छपरा, बिहार से चलकर नोएडा पहुँचे हैं। हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता में पहली बार भाग लिये हैं और शीर्ष 10 में स्थान सुनिश्चित करने में सफल भी हुए हैं।

पुरस्कृत कविता- आंखों में बसीं इमारतें

हर चेहरा मुझे दो जोड़ी आंखों जैसा लगता है
जिसमें सपनों की छोटी बड़ी इमारतें नज़र आतीं हैं
जिनकी एक-एक ईंट उम्र भर जोड़ता है
रोज़ कुछ गढ़ता है, उन इमारतों का मालिक
जैसे एक घर बनने में सालों लगते है
एक-एक तिनका जुड़ता है
तो आशियाने बनते हैं
ऐसा ही कोई मकां उन आंखों में भी खड़ा होता है
फिर वो सजता है कल्पना के रंगों से
रंग जिसे हम-तुम चुनते है
ताने बाने जो हम-तुम बुनते हैं
एक छोटे बच्चे की आंखों में देखा
तो आईसक्रीम की बड़ी इमारत दिखी मुझे
भिख़ारी को देखा रोटी की ज़रूरत दिखी मुझे
किसी प्रमिका को प्रेमी के संग
घर संसार का सपना
किसी बेरोज़गार के घिसते चप्पलों को
एक अदद नौकरी के लिए जपना
ये सब कुछ उनकी आंखों मे दिखता है
ये सब कुछ बिना पैसे के बिकता है
पर ऐसा तो नहीं आंखों में खड़ी ये इमारते
ज़मीन पे आ जायें
घर टूटता है तो दुनिया देखती है
सपनों का महल ढहता है तो
तकलीफ़ ये आंखें ही कहती हैं
और जैसे कि ध्वंश के अवशेष पर फिर से निमार्ण होता है
नई रचना होती है
आशा की ज़मीन पर आंखों में भी नई इमारतें बनती हैं
आशा! उम्मीद! ये शब्द भर नहीं हैं
ये शब्द भर नहीं हैं, उनके लिए जिनका कुछ टूट गया होता है
ये नवनिमार्ण की जरूरत हैं
ये नई शुरूआत की ताक़त है
मेरी आंखों में भी कुछ ऐसी ही इमारतें खड़ी हैं
जो रोज़ ढह जाती हैं
और अगली सुबह तनी खड़ी कहीं मिल जाती हैं
तभी मैं जीवन की राह पर अनवरत चलता जा रहा हूं


प्रथम चरण मिला स्थान- बारहवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- सातवाँ


पुरस्कार- राकेश खंडेलवाल के कविता-संग्रह 'अंधेरी रात का सूरज' की एक प्रति।