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भालू नाच




जनवरी प्रतियोगिता की तेरहवीं कविता के रचनाकार रमाशंकर सिंह हिंद-युग्म पे पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं। रमाशंकर सिंह का जन्म 1 जुलाई 1981 को उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े जिले गोण्डा के एक छोटे से गाँव सिसई में हुआ। इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा पास ही के एक कस्बे में से हासिल की और 2004 में प्राचीन इतिहास में प्रथम श्रेणी में परास्नातक साकेत कालेज, अयोध्या से पूरा किया । 2005 से 2009 तक रचनात्मक कार्यों में लगे रहे हैं। रमा जी को 2009 में यू.जी.सी. की जूनियर रिसर्च फेलोशिप मिली है और वर्तमान में गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्रो.बद्री नारायण के निर्देशन में निम्न जातियों के सामुदायिक अधिकारों पर शोध कर रहे हैं। कालेज की वार्षिक पत्रिका का संपादन किया है एवं वाक के अंक 6 में दो कविताएँ छप चुकी हैं।

कविता: भालू नाच 

बचपन में गर्म लोहे की छड़ से
दागे गये तलुओं की
पीड़ा की स्मृति में
मदारी के डंडे के डर से
नाचता है भालू
डमरू की धुन पर
उसके नाच में नाच रही होती है
उसकी पीड़ा और भूख
एक पीड़ा और भूख
नाच रही होती है मदारी की आँख
और जमूरे के पेट में भी

मेरे बचपन के ये बिंब
मेरे साथ घट रहे हैं
पेट पालने की जिद
और ज्यादा इकट्ठा करने की हवा में
मैं नाचता हूँ साहबों और नेताओं के आगे
बिना डंडा दिखाये या डमरू बजाये ही

आदमी ऐसे ही बनता है भालू
और नाचता रहता है मजमे में ।