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अंधेरे में डूबे बिना हाशियों का दर्द समझना और पानी का रंग जानना मुश्किल है


काव्यसदी में आज हम संतोष कुमार चतुर्वेदी की तीन कविताएँ लेकर उपस्थित हैं। इस स्तम्भ के प्रथम कवि संतोष की पाँच कविताएँ (विषम संखयाएँ, भभकना, ओलार, माँ का घर और राग नींद) पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं। कवि की दो कविताएँ (बादल और दूब तथा वहीं से फूटती हैं राहें) साहित्यिक मासिक 'वागर्थ' के मई 2011 अंक में प्रकाशित हैं। युवा कवि तमाम मुद्दों को नयी दृष्टि से देख रहे हैं। संतोष की काव्य-दृष्टि में नवीनता पूरी तरह से मुखरित होती है।

अन्धेरे में डूबे बिना

चकाचौंध भरे उजाले से
अन्धेरे में आ कर
तत्काल ही नहीं समझा जा सकता
अन्धेरे को ठीक से
तब शर्तिया तौर पर चौंधिया जायेंगी आँखें
और नहीं दिखायी पड़ेगा
बिल्कुल नजदीक तक का
अन्धेरे में कुछ भी
अन्धेरे को देखने के लिए
पहले अन्धेरे के अनुकूल बनानी पड़ती हैं आँखें
अन्धेरे को समझने के लिए
होना पड़ता है पहले पूरी तरह अन्धेरे का
अन्धेरे को जानने के लिए
अन्धेरे के साथ ही पड़ता है जीना
अन्धेरे को नहीं देखा जा सकता
अन्धेरे में डूबे बिना

हाशियाँ

जब से आबाद हुई यह दुनिया
और लिखाई की शक्‍ल में
जब से होने लगी अक्षरों की बूँदाबादी
हाशिये की जमीन तैयार हुई
तभी से हमारे बीच
अब यह जानबूझ कर हुआ
या बस यूँ ही
छूट गयी जगह हाशिये वाली
कहा नहीं जा सकता इस बारे में
कुछ भी भरोसे से
लेकिन जिस तरह छूट जाता है हमसे
हमेशा कुछ-न-कुछ जाने अंजाने
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
पहले-पहल छूटा होगा हाशिया भी
दुनिया के पहले लेखक से
कुछ इसी तरह की
भूल गलती वाले प्रयोग से
अब ऐसा सायास हुआ हो या अनायास
हाशिये की वर्तनी के साथ ही
अक्षर पन्‍ना तभी लगा होगा इतना दीप्‍त
सुघड़ दिखा होगा अपनी पहलौठी में भी
उतना ही वह
जितना आज भी खिला-खिला दिखता है
अक्षरों वाली पंक्‍तियों के साथ
भरेपूरेपन में हाशियाँ
हाशिये में भरापूरापन
कुछ इसी तरह तो
बनता आया है छन्‍द जीवन का
कुछ इसी तरह तो
लयबद्व चलती आ रही है प्रकृति
न जाने कब से
कभी कभी होते हुए भी
हम नहीं होते उस जगह पर
कभी-कभी न होते हुए भी
हमारे होने की खुशबू से
तरबतर होती हैं जगहें

और अक्‍सर अपने ही समानान्‍तर
बनाते चलते हैं हम हाशिया
जिसे देख नहीं पाते
अपनी नजरों के झरोखे से
एक सभ्‍यता द्वारा छोड़े गये हाशिये को
किसी जमाने में सजा-संवार देती है
कोई दूसरी सभ्‍यता
लेकिन कहीं-कहीं तो
प्रतीक्षारत बैठे बदस्‍तूर आज भी
दिख जाते हैं हाशिये
किसी कूँची किसी रंग या फिर
किसी हाथ की उम्‍मीद में
कई परीक्षाओं में मैंने खुद पढा यह दिशा निर्देश
कृपया पर्याप्‍त हाशियाँ छोड़ कर ही लिखें
बहुत बाद में जान पाया था यह राज
कि हाशिये ही सुरक्षित रखते थे
हमारे प्राप्‍तांकों को
परीक्षकों के हाथों से छीनकर
कॉपियाँ जाँचे जाने के वक्‍त
और इस तरह हमारे कामयाब होने में
अहम भूमिका रहती आयी है हाशिये की
जैसे कि आज भी किसी न किसी रूप में
हुआ करती है
हमसे भूल गयी बातों
चूक गये विचारों
और छूट गये शब्‍दों को
सही समय पर सही जगह दिलाने में
अक्‍सर काम आता है
यह हाशियाँ आज भी
हाशिये को दरकिनार कर
दरअसल जब भी लिखे गये शब्‍द
भरी गयीं पंक्‍तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइण्‍डिंग के बाद
लड़खड़ा गयी पन्‍ने की शक्‍ल
अपठनीय हो गयी
वाक्‍यों की सूरत।


पानी का रंग

गौर से देखा एक दिन
तो पाया कि
पानी का भी एक रंग हुआ करता है
अलग बात है यह कि
नहीं मिल पाया इस रंग को आज तक
कोई मुनासिब नाम

अपनी बेनामी में भी जैसे जी लेते हैं तमाम लोग
आँखों से ओझल रह कर भी अपने मौसम में
जैसे खिल उठते हैं तमाम फूल
गुमनाम रह कर भी
जैसे अपना वजूद बनाये रखते हैं तमाम जीव
पानी भी अपने समस्‍त तरल गुणों के साथ
बहता आ रहा है अलमस्‍त
निरन्‍तर इस दुनिया में
हरियाली की जोत जलाते हुए
जीवन की फुलवारी में लुकाछिपी खेलते हुए

अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्‍लसित होते हुए
दुःख में दुःख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता
पानी से रंग को
रंग से पानी को
कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया वह आपादमस्‍तक

क्‍योंकि पानी का अपना पक्‍का रंग हुआ करता है
इसलिए रंग छुड़ाने की सारी प्रविधियाँ भी
पड़ गयीं इसके सामने बेकार

किसी कारणवश
अगर जम कर बन गया बर्फ
या फिर किसी तपिश से उड़ गया
भाप बन कर हवा में
तब भी बदरंग नहीं पड़ा
बचा रहा हमेशा एक रंग
प्‍यास के संग-संग

अगर देखना हो पानी का रंग
तो चले जाओ
किसी बहती हुई नदी से बात करने
अगर पहचानना हो इसे
तो किसी मजदूर के पसीने में
पहचानने की कोशिश करो
तब भी अगर कामयाबी न मिल पाये
तो शरद की किसी अलसायी सुबह
पत्तियों से बात करती ओस की बूँदों को
ध्‍यान से सुनो

अगरचे बेनाम से इस पनीले रंग को
इसकी सारी रंगीनियत के साथ
बचाये रखना चाहते हो
तो बचा लो
अपनी आखों में थोड़ा-सा पानी
जहाँ से फूटते आये हैं
रंगों के तमाम सोते।