सीन एक--
जै कालीमाई
जै बरम बाबा
जै महबीर जी
जै शंकर जी
जै गाँव के कुल डीह डांगर की...
गाँव का सभत्तर भला हो....
और परधान जी पटकते हैं
स्कूल की चौखट पर नरियल
नरियल खच्च से दू टुकड़ा
गाँव में सरकारी स्कूल खुला है
बताते हैं परधान जी
एक्को पैसा नमलिखाई नहीं लगेगी
किताब डरेस फ्री मिलेगा
दुपहरिया में खाना भी
रोज .....
(छवो दिन अलग-अलग)
गाँव वाले खुश हैं
लेडिस टीचर आयेगी
गाँव के लड़के तो आऊर खुश हैं
मुरहुआ हिसाब लगाता है
बच्चा पीछे तीन सौ....
त... एक.. दू... तीन.. चार..
माने ...तीन कम डेढ़ हजार..
मुरहुआ की औरत जोड़ती है
तिलेसरी, फुलेसरी, सिऊआ,छोटुआ....
आज बड़का का मर जाना अखर गया उसे....
तिलेसरी को समझाती है
बड़की थाली ले के जाना
खाना बचा के लाना
तुम्हारे बाबू तो
छोटुआ को खिलाने के बहाने खा लेंगे
सब खुश हैं
गाँव खुश है
गाँव के लड़के खुश हैं
मुरहुआ खुश है
मुरहुआ का परिवार खुश है
सीन दो-
एक साल बीत गये हैं
गाँव की नई बात
गाँव के लिए वैसे ही पुरानी हो गयी है
जैसे, बड़का का मर जाना
जैसे परधान जी का
स्कूल की चौखट पर नरियल चढ़ाना
बाढ़ के बाद से ही
स्कूल,अब
मुरहुआ,चनेसर और चऊथी का घर है
कक्षा एक में मुरहुआ रहता है
दू में चनेसर
बरामदे में चऊथी....
और प्रिंसिपल ऑफिस में
मुरहुआ की बकरी
दिन-भर लेंड़ी करती है
स्कूल खुलने के
हफ्ता भर बाद
आयीं थीं, एगो लेडिस टीचर
झक सफेद....
8-10 लड़कन को गोलिया के
चली थी दो दिन क्लास
टीचर जी
नाक पर रूमाल धरे
लट्ठा भर दूर से ही पढ़ाती थी
बच्चों को A... B.. C.. D..
दो दिन बाद...
फिर-फिर नही आयीं...
सुना है, किसी बड़े घर की हैं
बाप जुगाड़ु है
उठा लेती हैं
ऊपरे-ऊपर तनखाह.....
तिलेसरी अब बकरी चरा लेती है
फुलेसरी अब खाना बना लेती है
सिऊआ दिन-भर इधर-उधर घुमता रहता है
छोटुआ अब साफ-साफ बोल लेता है
मुरहुआ की औरत फिर पेट से है
मुरहुआ हिसाब लगाता है
बच्चा पीछे तीन सौ....
त ...एक.. दू.. तीन.. चार.. और पाँच..
माने....
कवि- मनीष वंदेमातरम्
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
झकझोर देने वाली सच्चाई बयान करती कविता ...
इस कविता के लिए मेरी भी बधाई स्वीकार हो भाई मनीष..। तुम्हारी कलम ने आज बहुत दिनो बाद झकझोरा है।
..वाह!
Very very nice
प्रिय भाई मनीषजी,
मन प्रसन्न हो गया। आपकी कलम को सलाम। न केवल कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर पर भी जबरदस्त कविताएं हैं। लगातार लिखते रहिए। सही दिशा में जा रहे हैं। शैलेशजी संग्रह की तैयारी कीजिए, समीक्षा मैं लिखूंगा।
बहुत सुंदर रचना, बधाई स्वीकार कीजिए।
मन को चीर कर रख देती है ये कविता… पता नही कब तक मनुष्य इस दलदल से बाहर निकल पायेगा… बहुत बहुत बधाई… एक बहुत ही संवेदन शील रचना के लिये…
बस, निशब्द कर दिया आपकी इस अप्रतिम रचना ने...
क्या कहूँ ????
विद्रूप सत्य को जितने प्रभावशाली ढंग से आपने अभिव्यक्ति दी है....नमन आपकी लेखनी को...
shbon ka sanyojan aur bhav dono bahut sunder hain.
bahut bahut badhai
rachana
this poem not fit for all gov schools nowadays. maybe u never went to see real sarkari school. sirf suni sunai baato ke aadhar par aap sabko blame nahi kar sakte. agar sarkari schools na ho to aaj bhi lakho bacche apna naam tak likhna nahi seekh payenge.
सरकारी व्यवस्था सुन रहे है | अखबार में पढ़ भी रहे है| कुछ समझ नहीं आता की अब क्या कहा जाय| गाँव में ये सब तो होता ही है |शहर की ओर पलायन का यह भी एक कारण है |
a very powerful poem, showing the real face of the village life. another strong point is the language used in this poem. Thanks to the dear poet.
अत्यंत सुन्दर एवं मनमोहक पंक्तियाँ लिखी आपने बधाई हो
किशोरवा उठा जला के माचिस देखिस अपने
टाइमस्टार घडी माँ, बोल चार बजै माँ थोड़ टैम बाकि है
छेद्दु चाचा करवट बदलीन कबहू दाहिने कबहूँ बाएं
बड़े मुस्किल माँ फिर चार बजा, कुंजरा कै मुर्गा बांग दिहिस
औ सुरु होई गवा मेहरारुन का काम, लोटिया लैकै मैदान गईं
कुल्ला दातून शुरू भावा, कौनो चौउका कौउनो बर्तन औ बढ़नी झाड़ू फिरे लाग
दुआरे किशोरवा रजुआ के साथ गोरुअन का चारा पानी करै लाग
एतना सब करत भये माँ साढ़े पांच बजे का सुबेर भवा
बाल्टी लैके डब्बा लैके कौनो लोटिया लैके चला दुहै
रसरी लैके छान्दी बहुती बहुतिन गैया, भैसिन पर डंडा चलै लाग
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