मुसहर
गाँव से लौटते हुए
इस बार पिता ने सारा सामान
लदवा दिया
ठकवा मुसहर की पीठ पर
कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं।
बच्चे- 1
बच्चे जो कि चोर नहीं थे
चोरी करते हुए पकड़े गए
चोरी करना बुरी बात है
इस एहसास से वे महरूम थे
दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थें
कि भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे।
बच्चे -2
सड़क पर चलते हुए एक बच्चे ने घुमाकर
एक घर की तरफ पत्थर फेंका
एक घर की खिड़की का शीशा टूट गया
पुलिस की बेरहम पिटाई के बाद बच्चे ने कबूल किया
वह बेहद शर्मिंदा है उसका निशाना चूक गया।
किसान
उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने ही बेच डाली थी
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फल और मूठ
हुआ करता था
उसके घर में जो
नमक की आखरी डली बची है
वह इसी हल की बदौलत है
उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना कि उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानों का देश
नींद में अक्सर उसके पिता
दादा के बखार की बात करते
बखार माने
पूछता है उसका बेटा
जो दस रुपये रोज पर खटता है
नंदू चाचा की साइकिल की दुकान पर
दरकती हुए ज़मीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालने का हुनर
नहीं सीख पायेगा वह
यह उन दिनों की बात है
जब भाषा इतनी बंजर नहीं हुई थी
दुनिया की हर भाषा में वह
अपने पेशे के साथ जीवित था
तब शायद डी.डी.टी का चलन
भाषा में और जीवन में
इतना आम नहीं हुआ था
वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी दिवस
वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचायेंगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन
कई सदी बाद
धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जायेगा
देखो यह किसान का माथा है
सूंघों इसे
इसमें अब तक बची है
फसल की गंध
यह मिट्टी के
भीतर से खिंच लेता था जीवन रस
डायनासोर की तरह
नष्ट नहीं हुई उनकी प्रजाति
उन्हें एक-एक कर
धीरे-धीरे नष्ट किया गया।
कवि- अच्युतानंद मिश्र
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27 कविताप्रेमियों का कहना है :
इस लेखनी ने निःशब्द और नतमस्तक कर दिया ... उदगार को शब्द नहीं मिल रहे...
KYA KHUN KUCHH SHABD NAHI MIL RAHE HAI... NIHSHABD HO GAYA HUN... MAN BHING GAYA HAI EK AJEEB SI UDAASI SE...
मार्मिक यथार्थ पर सजग लेखनी !
कवियों की भारी भीड् और कविताओं की उतनी ही विरलता के इस भावहीन/अभाव समय में ये पंक्तियां भरोसा देती हैं। कवि को हार्दिक बधाई। साथ ही भविष्य में और सुंदर रचनाओं की उम्मीदें भी।
प्रमोद
कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं।
कवि की संवेदनशीलता ह्रदय को छू जाती है, बच्चों की मासूमियत को दर्शाती पंक्तियाँ और किसान के माथे से आती फसल की गंध एकदम अछूती कल्पनाएँ है... आभार !
bahut sundar marmsparshi rachna ke liye aabhar!
bahut sunder hai sabhi lekhani
bacche waala aur kisaan waala sabse accha
bahut shashakt aur saarthak
मार्मिक यथार्थ रचना...आभार !
उसके घर में जो
नमक की आखरी डली बची है
वह इसी हल की बदौलत है
उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना कि उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानों का देश
kamal ka likha .sahi bat sunder bhav
दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थें
कि भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे।
ati sunder
rachana
nishabd......
ye h kavita...
jo bolne ka mauka hi na de..
badhai...abhaar..
वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी दिवस
वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचायेंगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन
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aane wale dino ki sahi aashanka hai is kavita me.....
kavita bahut kuchh sochne par mazboor kar deti hai...
ek kamyaab rachna.
bahut marmik rachna.
bahut sunder hai sabhi lekhani
गाँव से लौटते हुए
इस बार पिता ने सारा सामान
लदवा दिया
ठकवा मुसहर की पीठ पर
कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं। मार्मिक उदगार हार्दिक बधाई।
मार्मिक रचना..वाकई एक दिन डायनासोर के जीवाश्म की तरह पाए जायेंगे किसान.....बहुत बहुत बधाई...
कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं।
सच… कविता ने बहुत पहले की एक घटना याद दिला दी… रोम रोम सिहर गया…
पता नही कब ये सब कुछ खत्म होगा…
Bahut dil se likh gaye saahab. Namaskaar!
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