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Saturday, April 16, 2011

ककून



अरसा हुआ
एक गम में जागते हुए,
आँख बंद न हो
तो जल्दी ही
जलने भी लगती है,
मेरी जलती हुई ऑंखें तो
पिघलने भी लगीं,
पिघल कर बहने भी लगीं
बहने का दायरा
पहले पहल तो
गालों तक ही था
अब यह बढ़ गया है
सर से ले के पाँव
कृष्ण की खीर ने तो
उनके तलवे छोड़ दिए थे,
मेरे आंसुओं ने तलवों
को भी ढँक लिया है ..
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया.....

कवि: स्वप्निल तिवारी ’आतिश’


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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

RAKESH JAJVALYA राकेश जाज्वल्य का कहना है कि -

एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया.....

स्वप्निल !
तुम्हारी कविताओं में अक्सर शब्दों के नए अर्थ प्रतिबिंबित होते हैं.
उम्मीद है " ककून " से बाहर की नई दुनिया में आँखें ग़म से जलेंगी नहीं, उम्मीदों के दीयों में बदल जायेंगीं.

प्रवीण पाण्डेय का कहना है कि -

बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति।

Vandana Singh का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
Vandana Singh का कहना है कि -

bahut sunder swapnil.....kam sabdo me gehri baat :) nye janm k baad fir se safal insaan banne or sambhalne k liye bhi hounsla chahiye :)

good luck

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

सुंदर, संक्षिप्त, सटीक रचना। बधाई स्वप्निल जी

ranjana का कहना है कि -

bahut khoob...:)

www.puravai.blogspot.com का कहना है कि -

एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
बहुत ही सुन्दर कविता । बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये बधाई ।

rachana का कहना है कि -

मेरे आंसुओं ने तलवों
को भी ढँक लिया है ..
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया
prabhavi panktiyan
rachana

punita singh का कहना है कि -

अच्छी कविता है ,स्वप्निल जी हार्दिक बधाई स्वीकारे

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