अरसा हुआ
एक गम में जागते हुए,
आँख बंद न हो
तो जल्दी ही
जलने भी लगती है,
मेरी जलती हुई ऑंखें तो
पिघलने भी लगीं,
पिघल कर बहने भी लगीं
बहने का दायरा
पहले पहल तो
गालों तक ही था
अब यह बढ़ गया है
सर से ले के पाँव
कृष्ण की खीर ने तो
उनके तलवे छोड़ दिए थे,
मेरे आंसुओं ने तलवों
को भी ढँक लिया है ..
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया.....
कवि: स्वप्निल तिवारी ’आतिश’
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया.....
स्वप्निल !
तुम्हारी कविताओं में अक्सर शब्दों के नए अर्थ प्रतिबिंबित होते हैं.
उम्मीद है " ककून " से बाहर की नई दुनिया में आँखें ग़म से जलेंगी नहीं, उम्मीदों के दीयों में बदल जायेंगीं.
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति।
bahut sunder swapnil.....kam sabdo me gehri baat :) nye janm k baad fir se safal insaan banne or sambhalne k liye bhi hounsla chahiye :)
good luck
सुंदर, संक्षिप्त, सटीक रचना। बधाई स्वप्निल जी
bahut khoob...:)
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
बहुत ही सुन्दर कविता । बेहतरीन प्रस्तुति के लिये बधाई ।
मेरे आंसुओं ने तलवों
को भी ढँक लिया है ..
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया
prabhavi panktiyan
rachana
अच्छी कविता है ,स्वप्निल जी हार्दिक बधाई स्वीकारे
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