युवा कवि कृष्णकांत की कविताएं आप यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं। जमीन से जुड़े सरोकारों के लिये प्रतिबद्धता और विषमताओं के प्रति तल्खी और उन्हे बदलने की कोशिश इनकी रचनाओं का मूल आधार रही है। इनकी पिछली कविता जुलाई माह मे प्रकाशित हुई थी। कृष्णकांत फ़रवरी माह के यूनिकवि भी रह चुके हैं। यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता।
उसके नाम पर
हत्या जरूरी है
उस ईश्वर की जिसके नाम पर
बिगड़ता है
शहर का माहौल बार-बार
और वह देखता है चुपचाप
किसने गढ़ी ऐसी खतरनाक सत्ता
कौन देता है इसे खाद पानी
तलाशने होंगे वे स्रोत
निकलते हैं जहां से
ऐसे मानव विरोधी विचार
नहीं चाहिए हमें
कोई ईश्वर
मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारा
इंसानियत के बदले
हम और नहीं सींच सकते
मासूमों के खून से
मजहब की ये नागफनी
यह फिर-फिर चुभेगी
हमारे ही दामन में
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
इस कविता से गलत और नकारात्मक सन्देश निकलता है. “हत्या जरूरी है
उस ईश्वर की जिसके नाम पर
बिगड़ता है
शहर का माहौल बार-बार..... नहीं चाहिए हमें
कोई ईश्वर
मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारा....” के स्थान पर “उस छद्म ईश्वर की जिसके नाम पर
बिगड़ता है
शहर का माहौल बार-बार..... नहीं चाहिए हमें
ऐसा कोई ईश्वर
मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारा....” दिया जा सकता था. अश्विनी रॉय
मैं अश्विनी जी की बातों से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ। कृष्णकांत जी ने अपनी कविता में इस बात पर जोर दिया है या यूँ कहिए कि पूरी की पूरी कविता यही कहने के लिए लिखी है कि ईश्वर गलत है.. धर्म हीं हर समस्या की जड़ है.. इसलिए हमें इस ईश्वर, इस धर्म का नाश कर देना चाहिए। ये विचार या तो एक नास्तिक के हो सकते हैं या एक खीझ खाए हुए आस्तिक के (अमिताभ के "खुश तो बहुत होगे तुम" टाईप)... इसलिए ये विचार कुछ हीं लोगों को पसंद आएँगे।
मेरे हिसाब से न ईश्वर गलत है और न हीं धर्म... गलत है तो हमारी समझ जो उस सार्वभौम सत्ता को सही तरीके से स्वीकार नहीं कर पाती या फिर अपनी बुराईयों का अमलीजामा पहनाकर उसे देखती है... अगर किसी को इन बुराईयों, शहर के इस बिगड़ते माहौल को सही करना है तो मंदिर-मस्जिद की हत्या करके बात नहीं बनेगी, बल्कि इसके लिए अपने मन में बैठे मंदिर-मस्जिद के इस भेद, इस नफ़रत को मारना होगा.. ईश्वर को मारकर तो आप अपने में बचे थोड़े बहुत अच्छाईयों का भी खात्मा कर देंगे।
मुझे आपके लिखने का तरीका भाया, लिखी बात नहीं भाई... इसलिए यह टिप्पणी करनी पड़ी मुझे..
आपसे आगे भी ऐसे हीं विचारोत्तेजक विषयों पर कविताओं की आशा रहेगी।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
कविता की मूल भावना सुन्दर है. ईश्वर अगर इस माहौल के लिये जिम्मेदार है और/या जिसके नाम पर माहौल बिगड़ रहा है उसकी आवश्यकता ही क्या है.
नकारात्मकता तो कहीं नज़र नही आ रही है
कृष्ण कान्त जी ,
आपकी भावनायों से मैं पुरी तरह सहमत हूँ . इसे नास्तिक समझने वाले लोग या तो धर्मभीरु अथवा धर्मांध हैं.
नई पीढी को धर्म और ईश्वर से अपने को पृथक करना होगा , तभी मानव समाज में आपसी प्रेम भाव और सामंजस्य बना रह सकता है. इस धरना को बनाए रखने में उन हस्तियों का हाथ है जो धर्म के नाम पर दुनिया में अपना सम्पूर्ण प्रभाव बनाये रखना चाहते हैं .ऐसी क्रांतिकारी और राचनाकारी कविता के लिए धन्यवाद और बधाई .
कमल किशोर सिंह ,MD
कृष्णकांत की कविता पढते हुए गीतांजलि श्री का उपन्यास हमारा शहर उस बरस याद आता है. ईश्वर के नाम पर अत्याचार और भ्रष्टाचार पूरी दुनिया में हुए हैं और होते रहेंगे. फिर भी एक जागरूक मनुष्य एवं रचनाकार भी दुसरे मोर्चे पर डटा रहेगा.
प्रासंगिक कविता.
नहीं चाहिए हमें
कोई ईश्वर
मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारा
इंसानियत के बदले
हम और नहीं सींच सकते
मासूमों के खून से
मजहब की ये नागफनी
यह फिर-फिर चुभेगी
हमारे ही दामन में
सुंदर प्रस्तुति, बधाई
स्पष्ट कर दूं कि कविता में ईश्वर को नाकारा नहीं गया है और न ही ईश्वर विरोध है. हत्या ज़रूरी है उस ईश्वर कि जिसके नाम पर .... लाइन पर कृपया ध्यान दें. उस ईश्वर कि जिसके नाम पर हम सारे धतकरम करने की छोट ले लेते हैं. महान हिंदुत्व और शांति का पर्याय इस्लाम, दोनों के पास एक फ़िज़ूल के झगरे का हल नहीं है. कविता उस छद्म ईश्वरवाद के विरोध में ही लिखी गयी है. इस पर उन्हें ज़रूर चिढ़ना चाहिए जो धर्मं के नाम पर दुकाने चलाते हैं. मेरा अहम् सवाल है की धर्म को सिर्फ उद्देशेओं में शांतिपूर्ण नहीं, बल्कि, व्यव्हार में भी शांतिकारक होना चाहिए. हमें उन चीजों को नकारना ही होगा, जो मानवता को नुकसान पहुंचती हैं. धर्म गलत नहीं है, यह ठीक है, पर अगर वह गलत रोक नहीं सकता, तो उसकी अच्छाई का कोई अर्थ नहीं, ठीक वैसे, जैसे मनमोहन सिंह इमानदार हैं, भ्रष्ट मंत्रियों के मुखिया हैं. ऐसे में उनकी इमानदारी का क्या अर्थ, जिनके संरक्षण में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला देश झेल रहा है. - कृष्णकांत
बड़ी विचित्र बात है कि न तो आपने ईश्वर का विरोध किया है और न ही उसे नकारा है तो फिर आप उसकी हत्या क्यों करना चाहते हैं? अगर इस दुनिया में कुछ लोग बुरे हैं तो क्या इसके लिए ईश्वर दोषी है ? यह कैसी सोच है? अगर आप मेरे नाम पर किसी का खून बहाते हैं तो क्या मेरा क़त्ल होना चाहिए? ज़रा दानिशमंदी और ठन्डे दिमाग से सोचिए कि आप उसका खून करना चाहते हैं जो किसी भी तरह अपराधी नहीं कहा जा सकता. वैसे साहित्य लेखन में तो इस प्रकार की भाषा सर्वथा वर्जित होनी चाहिए. मैं श्री विश्व दीपक जी के विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ कि वर्तमान स्वरुप में यह कविता नकारात्मक सन्देश देती है. आजकल हिंद युग्म पर प्रकाशित किसी भी कविता की अंधाधुंध तारीफ़ करने का कुछ चलन सा बनता जा रहा है. हालांकि मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यहाँ पर प्रकाशित अधिकतर रचनाएं बहुत ऊंचे स्तर की होती हैं. परन्तु जहां आवश्यक हो वहाँ आलोचना करने से भी परहेज नहीं करना चाहिए. अश्विनी रॉय
बेहतरीन ।
हर आलोचना का तहे दिल से स्वागत है. देखिये अश्वनी जी, इश्वर, हमारे बीच एक खौफनाक स्वरुप में मौजूद है, जो हमेशा हमें दहशत में रखता है. हमारा विरोध उससे है. विश्वदीपक जी का कहना है की न इश्वर गलत है न ही धर्म. गलत हमारी समझ है. क्या हमारी समझ पर उसका कोई दखल नहीं? यदि हमारी समझ पर पूरा नियंत्रण हमारा है तो वह नियंता कैसा? और अगर उसके नियंत्रण के बाद भी हम हिंसक हो सकते हैं तो वह इश्वर बहुत ही बेचारा है. जिसकी हमें ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. जिसके मंदिर या मस्जिद इंसानों की कीमत पर बनते हों, उसकी हत्या निश्चित होनी चाहिए. बीती सदियों में तथाकथित धर्मो ने ही मानवता का सबसे ज्यादा नुकसान किया है. हमें अब इन्हें नकारना ही चाहिए. धर्म बहुत सुन्दर अवधारणा है परन्तु अभी कुछ दिन पहले हमारे मोहल्ले के लोग ही हमारे नहीं रह गए थे, एक मंदिर के नाम पर. अब आप कहेंगे कि यह सब हमने किया. लेकिन साथ हम यह भी मानते हैं कि हम उसकी प्रेरणा के बिना कुछ नहीं करते. - कृष्णकांत
हर रचना कि आलोचना ज़रूर होनी चाहिए क्योकि पता तो चले कि जिसके लिए रचना हुई वह क्या समझता है? आखिर कोई रचनाकार सिर्फ अपने लिए ही तो नहीं लिखता.
कृष्ण कान्त जी मुझे आपसे पूर्ण सहानुभूति है कि ईश्वर आपके बीच बड़े खौफनाक स्वरुप में मौजूद है और आप बहुत दहशत में हैं. ऐसी परिस्थितियों में कोई भी आप जैसी कविता लिख सकता है. परन्तु हमारे धर्म और धर्म स्थल सदा आपस में सहिष्णुता से रहने का पाठ पढ़ाते हैं. हमारे संस्कारों में हिंसा तथा हत्या जैसे शब्दों का कोई चलन नहीं है. अतः ये हमारा कर्तव्य भी है कि हम ऐसी भाषा का साहित्य में भी यथासंभव परहेज करें. खैर हमारे साथ ऐसा नहीं है. हमारा ईश्वर तो करूणा निधान है ...वह हम सब के अवगुणों पर ध्यान नहीं देता और हमारी गल्तियों को भी माफ कर देता है. मैं अवश्य ही आपकी भयमुक्ति के लिए प्रार्थना करूँगा. अश्विनी रॉय
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