देखेंगे घर फूँक तमाशा
दास कबीर
हमें हैरत है
करके प्रेम बचे तुम कैसे....?
आकर देखो इस धरती पर
प्रेम में रहना, प्रेम बरतना
प्रेम सोचना, प्रेम निभाना
सारा कुछ कितना मुश्किल है
मूँछों वाले, पगड़ी वाले
ठेकेदार तब नहीं थे क्या,
तुम जैसे बिगड़े लोगों से
उनकी इज्जत लुटी नहीं क्या,
मूँछें उनकी झुकीं नहीं क्या?
अपनी चदरी जस की तस
रक्खा तो कैसे
इस दुनिया में ढाई आखर
बाँचा कैसे
इसकी कीमत हमसे पूछो
मनोज से बबली से पूछो
शारून से गुडिय़ा से पूछो
पूजा से मुनिया से पूछो
हम सबको तरकीब सुझाओ
बचने की कुछ जुगत बताओ
बहुत बड़े शातिर बनते हो
हिम्मत है, इस युग में आओ!
वैसे हमने ठान लिया है
गर्दन उड़े जले तन चाहे
प्रेम तो तब भी करना होगा
कत्ल करें वे प्रेम करें हम
लेकर कफन उतरना होगा
अपना घर फूँकने की खातिर
लिए लुकाठा खड़े हुए हम
आओ हम तुम साथ चलेंगे
देखेंगे घर फूँक तमाशा....।
यूनिकवि-कृष्णकांत
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
outstanding, bahut shaandar kavita kahi hai, hatz off to this one.
हाँ अब यही तो बचा है ......
आओ हम तुम साथ चलेंगे
देखेंगे घर फूँक तमाशा....।
बहुत बढ़ियाँ
बधाई !! बहुत ही अच्छी बात रखी है अपनी कविता के जरिये...
sundar rachana....apni baat ko achchhe se prastut kiya hai aapne
अपना घर फूँकने की खातिर
लिए लुकाठा खड़े हुए हम
आओ हम तुम साथ चलेंगे
देखेंगे घर फूँक तमाशा....।
बहुत अच्छी कविता ...
आखिरी लाईने तो बहुत जोरदार हैं...
कविता का प्रवाह बहुत बढिया है.....
सुन्दर शब्द रचना ।
aakhiri panktiyaan bahut achhi hain ....flow shandar hai nazm ka...
अच्छी कविता है , दिल को छू गयी ।
aaj ke jamane me himmat nahi kaam karegi,
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