अब यक़ीं आया उन्हें इस बात में
जल गया सारा शहर उस रात में
बोरियां भर-भर के ले आये ज़हर
बांटता था अमरिका ख़ैरात में...
जब कभी रोना हुआ चुपचाप से,
हो गए आकर खड़े, बरसात में
भीड़ में, दफ्तर में, मुर्दे हर जगह
जी रहे हैं, मौत के हालात में....
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
धूप में भी प्यास की मजबूरियां,
प्यार की ये शर्त भी थी साथ में...
था वो पत्थरदिल, खुदा मैं कह गया
कुछ समझ आता नहीं जज़्बात में
निखिल आनंद गिरि
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
19 कविताप्रेमियों का कहना है :
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
बहुत खूब
शानदार गज़ल
ise kehte hain
crisp..
Karari gazal baithak babu. :)
हालात का जैसा दर्दिला चित्रण किया है उससे इंसान सोचने को मजबूर हो जाता है कि किन हालात मे इंसान हर पल मर - मर के जी रहा है…
कल (2/8/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
जब कभी रोना हुआ चुपचाप से,
हो गए आकर खड़े, बरसात में
बहुत ही Intelligent शेर. शेष गज़ल अच्छी.
सिर्फ़ तारीफ़ करना ही काफ़ी नही होगा निखिल भाई..याद रखना होगा इसे..बार-बार पढ़ना होगा..आपकी रचनाओं मे संवेदनशील जीवन-दृष्टि सामने आती है..कवि सिर्फ़ आत्मलीन नही रहता..बल्कि वैयक्तिक दुखों को समाज की वृहद विसंगतियों के साथ जोड़ के देखता है..फिर कोई भावना, कोई पीड़ा निजी नही रह जाती..कविता का दर्द भी सामाजिक होता है..
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
Thaliyon me rotiyaan aur murde wala sher..kamal lage.. :-)
Ye gazal padhke dushyant kumar yaad aa gaye
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
धूप में भी प्यास की मजबूरियां,
प्यार की ये शर्त भी थी साथ में...
गहरे भावों के साथ बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
आनंद जी,
सभी शे'र उम्दा लगे...पढ़ा तो दुबारा पढने का मन(कई बार पढ़ गया) किया...सच्चे हालातों और छटपटातें एहसासों को आपके शेरो में पढ़कर अच्छा लगा...
-sunny
था वो पत्थरदिल, खुदा मैं कह गया
कुछ समझ आता नहीं जज़्बात में
बधाई!. ..हर एक शेर नए खयालातो से बुना गया है..सुन्दर अति सुन्दर....
भीड़ में, दफ्तर में, मुर्दे हर जगह
जी रहे हैं, मौत के हालात में....
.......किन परिस्थियों मे जी रहे है लोग!..कितनी मजबूरियां है!.... दर्दनाक चित्रण आपने इस कविता में उतारा है, जो महसूस किया जा सकता है!
भाई वाह ....
निखिल भाई!
क्या कहूँ... कुछ हीं ग़ज़लें ऐसी होती हैं जो दिल और दिमाग को दोनों को छूती हैं। कहीं ग़ज़लगो भावनाओं की बहाव में बहते-बहते रदीफ़-काफ़िया-बहर को भूल चुका होता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ शायर इन्हीं नियमों का पालन करने को ग़ज़ल लिखना समझतें हैं।
मैं आपकी यह ग़ज़ल एक साँस में पढ गया और कहीं भी कोई रूकावट आड़े नहीं आई। मेरे हिसाब से आपने ग़ज़ल के सारे नियमों का पालन किया है (मैं यह कह तो रहा हूँ यद्यपि मुझे खुद नियमों का पूरा ज्ञान नहीं)... और साथ हीं साथ भावनाओं को जरा भी कमजोर नहीं होने दिया है।
आप निस्संदेह हीं बधाई के पात्र हैं। ऐसे हीं दिल और दिमाग लगाकर लिखते रहिए :)
-विश्व दीपक
ikhil Ji,
Waah Bahut Badhiya
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
surinder Ratti - Mumbai
जब कभी रोना हुआ चुपचाप से,
हो गए आकर खड़े, बरसात में
यह वाला सबसे अच्छा लगा!
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
हमेशा की तरह बेहतरीन
जब कभी रोना हुआ....
बहुत शानदार शे'र ..
और...
था वो पत्थरदिल, खुदा मैं कह गया
कुछ समझ आता नहीं जज़्बात में
कमाल..कमाल...कमाल.....!!!
जब कभी रोना हुआ चुपचाप से,
हो गए आकर खड़े, बरसात में
bahut sunder bhav
थालियों में रोटियां थी, ख्वाब थे,
बेड़ियां जकड़ी हुई थीं हाथ में....
bebasi ka achchha chitran hai
badhai
rachana
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