आज महात्मा गाँधी जी की जयंती है। इस अवसर पर हिंद-युग्म सभी पाठकों को शुभकामनाएँ देता है। गाँधी जी को याद करते हुए हमारे अगस्त माह के यूनिकवि सुभाष राय की एक कविता प्रस्त्तुत है।
उसने कहा
बुरा मत देखो
और हमने आंखें
बंद कर लीं
धृतराष्ट्र तो अंधा था
हमने साबुत आंखों
के बावजूद पसंद किया
अंधे की तरह जीना
हम कुछ नहीं देखते
पता नहीं क्या
बुरा दिख जाये
हमारी आंखें बंद हैं
तो मन भला-चंगा है
हमारी कठौती में गंगा है
उसने कहा
बुरा मत सुनो
और हमने सुनना
बंद कर दिया
बहरे हो गय हमे
नहीं पहुंचतीं हम तक
अब किसी की चीखें
किसी पीड़ित की
व्याकुल पुकार
अत्याचार से दम
तोड़ते आदमी का
करुण आर्तनाद
विचलित नहीं करता हमें
उसने कहा
बुरा मत बोलो
मसीहे की बात
कैसे नहीं मानते हम
हम जो भी बोलते हैं
भला बोलते हैं
लोग न समझें तो
हमारा क्या दोष
गूंगे नहीं बन सकते हम
उसकी विरासत
संभालनी है हमें
आजादी बचानी है
लोकतंत्र जमाना है
बहुत भार है हमारे
नाजुक कंधों पर
निभाना तो पड़ेगा
बेजुबान होकर
कैसे रह सकेंगे
कभी अक्षरधाम
कभी कारगिल
कभी दांतेवाड़ा
बहादुरों के जनाजों पर
राष्ट्रगान गाना तो पड़ेगा
वह मसीहा था
बहुत समझदार
नेक और ईमानदार
उसका चौथा बंदर
कभी आया ही नहीं
हमसे यह कहने
कि कुछ करो भी
जनता के लिए
देश के लिए
फिर भी हम नहीं भूले
अपना करणीय
कर्म पथ से नहीं हटे
आइए कभी हमारे
गांव, हमारे शहर
कोई दिक्कत नहीं होगी
जहाज उतर सकता है
ट्रेन भी जाती है वहां से
जगमग, जगमग
जहां दिखे, समझना
हमारा घर आ गया
होटल हैं, स्कूल हैं
अस्पताल हैं
गांव में अब कहां
किस चीज का अकाल है
कर्मयोगी रहे हम
गांधी के सच्चे अनुयायी
सुख-संपदा तो यूं ही
बिन बुलाये चली आयी
सब बापू का है
सब बापू के नाम
उस महात्मा को प्रणाम|
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
badhiya rachna..achha kataksh kiya hai har para me ...ahinsa divas ki shubhkamnayen ... :)
बापू! मै भारत का वासी, तेरी निशानी ढूंढ रहा हूँ.
बापू! मै तेरे सिद्धान्त, दर्शन,सद्विचार को ढूंढ रहा हूँ.
सत्य अहिंसा अपरिग्रह, यम नियम सब ढूंढ रहा हूँ.
बापू! तुझको तेरे देश में, दीपक लेकर ढूंढ रहा हूँ.
कहने को तुम कार्यालय में हो, न्यायालय में हो,
जेब में हो, तुम वस्तु में हो, सभा में मंचस्थ भी हो,
कंठस्थ भी हो, हो तुम इतने ..निकट - सन्निकट...,
परन्तु बापू! सच बताना आचरण में तुम क्यों नहीं हो?
4rth waale bandar ko sunanaa aapne kam jo kar diyaa...
sateek aur dhardaar kataksh..
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
“कर्मयोगी रहे हम
गांधी के सच्चे अनुयायी
सुख-संपदा तो यूं ही
बिन बुलाये चली आयी
सब बापू का है
सब बापू के नाम
उस महात्मा को प्रणाम|” कभी कभी सोचता हूँ कि क्या गाँधी जी आज भी उतने प्रासंगिक हैं? आपने इस सुन्दर विद्रोह शब्द चित्रण के माध्यम से शायद सटीक जवाब देने की कोशिश की है. आपका प्रयास वास्तव में सराहनीय है. कविता में एक धारा प्रवाह है...मालूम ही नहीं पड़ता कि कब खत्म हो गई. सचमुच आपने इस कविता के माध्यम से सुप्त अवस्था में पडी हमारी सोच को एक रास्ता दिखाने की कोशिश की है ...शायद आप की इस नई पहल से कोई सकारात्मक परिणाम भी निकले. मेरी शुभकामनाएं और विशेष साधुवाद इस अनूठे प्रयास के लिए!
अश्विनी कुमार रॉय
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