आकांक्षा पारे कविता की युवा-उम्मीद हैं। आकांक्षा की संवेदक खोजबीन बहुत सूक्ष्म है। और सबसे बड़ी बात यह है कि कोमल भावनाओं का सिरा पकड़ कर पुरूषवादी व्यवस्था को तमाचा लगा देती हैं, पता भी नहीं चलता है। प्रस्तुत हैं इन्हीं की 2 कविताएँ-
पहचान
हम चलेंगे वहाँ
जहाँ गिरी होगी ताज़ा बर्फ़
धुनकी हुई रुई की तरह।
वहाँ चलने की तुम्हारी इच्छा भी
करेंगे पूरी
जहाँ
चिनार खाली हो जाते हैं
पत्ते गिरा कर
समुद्र के रेतीले किनारे पर
घुटनों तक उठाए
अपने कपड़े
हम चलेंगे साथ-साथ।
कच्चे पोखर के किसी किनारे पर बैठ कर
चखेंगे खट्टी अमिया
खाएँगे नमक में उबले बेर।
घने किसी जंगल में
सुनेंगे
धड़कनों के साथ नीरवता
और जहाँ भी इच्छा हो तुम्हारी
मैं चलूँगी तुम्हारे साथ।
बस इसके बदले
तुम मुझे ले चलना
सिर्फ एक जगह
जिसे तुम कहते हो घर
जहाँ रहती है तुम्हारी जननी और पिता।
उपन्यास का पात्र छोटू
अलसुबह छोटू उठ कर
भूख से जलती अतड़ियों से
जलाता है चूल्हा।
डाँट के साथ खाता है पाव
पैरों में बाँधता है चक्के
दौड़ता है पूरा दिन
उन लोगों की ज़रूरतों के लिए
जो
अड्डे पर बैठ साबित करते हैं अपनी बुद्धिजीविता
सुनाते हैं अपनी कविताएँ
सपना देखते हैं शब्दों से
आने वाली क्रांति का
चिंता करते हैं देश की
देश में बिखरे अनेक छोटुओं की
फिर सुनाते हैं गर्व से
किसी छोटू पर लिखी अपनी कविता
और प्रमाण देते हैं अपनी संवेदनशीलता का
सभा विसर्जीत करते हुए
बताना नहीं भूलते
'मेरा अगला उपन्यास इन्हीं बच्चों पर है'
बेचारे!
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कविताप्रेमी का कहना है :
“घने किसी जंगल में
सुनेंगे
धड़कनों के साथ नीरवता
और जहाँ भी इच्छा हो तुम्हारी
मैं चलूँगी तुम्हारे साथ।
बस इसके बदले
तुम मुझे ले चलना
सिर्फ एक जगह
जिसे तुम कहते हो घर
जहाँ रहती है तुम्हारी जननी और पिता।“ आपकी “आकांक्षा” वास्तव में विचित्र है. एक घर की चाहत में वह कहीं भी चलने को तैयार है. बड़ी मधुर कविता है. दूसरी कविता में आपने छोटू कि कथा व्यथा का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है जो काबिले तारीफ़ है. आशा करता हूँ कि इससे उन लोगों को कुछ सीख मिलेगी जो जान बूझ कर मासूम बचपन को बर्बादी की और धकेल रहे हैं. आपको बहुत बहुत साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय
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