मनोज कुमार झा की कविताओं में शब्द-विन्यास और भाव-विन्यास बहुत अद्भुत तरीके से प्रकट होते है। हाँ, यह बात ज़रूर है कि एक बारगी तो कविता समझ में ही नहीं आती, लेकिन ध्यान से पंक्ति-दर-पंक्ति को जोड़ने से जो संसार बनता है, वो बिलकुल अलग तरह का होता है जो सिर्फ मनोज की कविताओं से ही बन सकता है। ऐसी ही दो कविताएँ आपके लिए--
शुभकामना
यह पार्क सुंदर है साँझ के रोओं में दिन की धूल समेटे
सुंदर है दाने चुग रहे कबूतर
बच्चों की मुट्ठियाँ खुलती सुंदर, सुंदर खुलती कबूतर की चोंच
मैं भी सुंदर लगता होऊँगा घास पर लेटा हुआ
छुपे होंगे चेहरे के चाकू के निशान
आँख की थकान ट्रक पर सटे डीजल
के इश्तिहार में सुंदरता ढ़ूँढ़ती है
जैसे घिस रहे मन भाग्यफल के
झलफल में ढ़ूँढ़ते हैं सुंदर क्षण
शुभ है कि फिर भी सुंदरता इतनी नहीं
सजी कि कोढ़ियों की त्वचा प्लास्टिक
की लगे
वहाँ कई जोड़े बैठे हुए और किसी ने नहीं देखी अभी तक घड़ी
उम्मीद है इनके प्रेम की कथा में नहीं शूर्पणखा के कान
अब वहाँ पक रहे जीवन का उजास है चेहरों को भिगोता
उम्मीद कि हवा लहरी तो सहज हहाए हैं बाँस
उम्मीद कि कोई भी चुंबन किसी की हत्या की सहमति का नहीं।
टूटे तारों की धूल के बीच
मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ
और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए
और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में
पितामह किस मृत्यु की बात करते हो
जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे
सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में
या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगली
सूअर पर फेंका था
या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुँए में भाँग में लथपथ
सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वे
नौनिहालों की
उन दोनों की रूलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक
वो मरे शायद पिता न जो फेंकी माँ की पीठ पर
लकड़ी की पुरानी कुर्सी
माँ ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज्यादा
या डॉक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के
बीमार बैल के लिए लाया था
विगत यह बार-बार उठता समुद्र
और मैं नमक की एक ढेला कभी फेन में घूमता
तो कभी लोटता तट पर
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2 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुन्दर , कोई मन की ऐसी व्यथा को भी नाम दे सकता है !
गहरे भाव लिये हुये, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
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