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Wednesday, May 12, 2010

इधर की कथा में मृत्‍यु कभी भी आ सकती है


इन दिनों जी गईं और महसूस की गईं कविताओं से हम सम्पादकों का बहुत कम ही वास्ता पड़ता है। लेकिन मनोज कुमार झा की कविताओं में उनके आस-पास का सच उसी विद्रूपता के साथ दिखाई पड़ता है, जैसा वो होता है। अपनी ख़ास शैली में अपनी बात कहने वाले मनोज खाँटी देशज़ शब्दों का इस्तेमाल पसंद करते हैं। हमें भी लगता है कि शब्द सीधे अर्थो के अलावा अपने स्थान, अपने लोगों का जो सुख-दुःख , ऊँच-नीच, अच्छा-बुरा समेटे होते हैं, उतना सबकुछ शायद दूसरी भाषा का समानार्थी शब्द नहीं समेट सकता। वर्ष 2008 के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि मनोज कुमार झा की 3 ऐसी ही छोटी-छोटी कविताएँ हम प्रकाशित कर रहे हैं।

इस कथा में मृत्‍यु

मनोज कुमार झा
Manoj Kumar Jha
जन्म- 07 सितम्बर 1976 ई0। बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-माँऊबेहट गाँव में।
शिक्षा- विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित ।
चॉम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि बौद्धिकों के लेखों का अनुवाद प्रकाशित।
एजाज अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन ऑन ऑवर टाइम्स’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित।
सराय/सी. एस. डी. एस. के लिए ‘विक्षिप्तों की दिखन’ पर शोध।
वर्ष 2008 के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित।
पता- मनोज कुमार झा,
मार्फत- श्री सुरेश मिश्र
दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा-846004
मो॰- 099734-10548
E-mail: jhamanoj01@yahoo.com
(1)

इस कथा में मृत्‍यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है।
जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता
हाथों का स्‍पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता
ठाकुर-बाड़ी से ताम्रपात्र
- यह एक दुर्लभ दृश्‍य है
कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़
और फूट जाता है कुँए पर रखा घड़ा ।

गले में सफेद मफलर बाँधे क्‍यारियों के बीच मंद-मंद चलते वृद्ध
कितने सुन्‍दर लगते हैं
मगर इधर के वृद्ध इतना खाँसते क्‍यों हैं
एक ही खेत के ढ़ेले-सा सबका चेहरा
जितना भाप था चेहरे में सब सोख लिया सूखा ने
छप्‍पर से टपकते पानी में घुल गया देह का नमक
कागज जवानी की ही थी मगर बुढ़ापे ने लगा दिया अंगूठा
वक्‍त ने मल दिया बहुत ज्‍यादा परथन ।

तलुवे के नीचे कुछ हिलता है
और जब तक खोल पाए पंख
लुढ़क जाता है शरीर।

उस बुढ़िया को ही देखिए जो दिनभर खखोरती रही चौर में घोंघे
सुबह उसके आँचल में पाँच के नोट बंधे थे
सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे
बहुत दिनों बाद शायद पाँच रूपये का तेल लाती
भर इच्‍छा खाती मगर ठंड लग गई शायद
अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है
कि उसने राँधकर खा लिया
मरनी वाले घर का घोंघा ।


वह बच्‍चा आधी रात उठा और चाँद की तरफ दूध-कटोरा के लिए बढ़ा
रास्‍ते में था कुआँ और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे
एक बुजुर्ग ने बस इतना कहा-गया टोले का इकलौता कुआँ।

वह निर्भूमि स्‍त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती
एक दिन पीटकर मार डाली गई डायन बताकर ।

उस दिन घर में सब्‍जी भी बनी थी फिर भी
बहू ने थोड़ा अचार ले लिया
सास ने पेटही कहकर नैहर की बात चला दी
बहू सुबह पाई गई विवाहवाली साड़ी में झूलती
तड़फड़ जला दी गई चीनी और किरासन डालकर
जो सस्‍ते में दिया राशनवाले ने
- पुलिस आती तो दस हजार टानती ही
चार दिन बाद दिसावर से आया पति और अब
सारंगी लिए घूमता रहता है।

बम बनाते एक की हाथ उड़ गई थी
दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह
परीछन की बेटी पार साल बह गई बाढ़ में
छोटकी को भी बियाहा है उसी गाँव
उधर कोसी किनारे लड़का सस्‍ता मिलता है।

मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है
चौदह लड़कियाँ मारी गई पेट में फोटो खिंचवाकर
और तीन महिलाएँ मरी गर्भाशय के घाव से ।


(2)

कौन यहाँ है और कौन नहीं है, वह क्‍यों है
और क्‍यों नहीं- यह बस रहस्‍य है।
हम में से बहुतों ने इसलिए लिया जन्‍म कि कोई मर जाए तो
उसकी जगह रहे दूसरा।
हम में से बहुतों को जीवन मृत सहोदरों की छाया-प्रति है।
हो सकता है मैं भी उन्‍हीं में से होऊँ।
कई को तो लोग किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं।
मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियाँ साग खोंटने जाती हैं
तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोइछें में ।
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेता है इतनी तेजी से।
वह बच्‍चा माँ की कब्र की मिट्‌टी से हर शाम पुतली बनाता है
रात को पुतली उसे दूध पिलती है
और अब उसके पिता निश्‍चिन्‍त हो गए हैं।

इधर सुना है कि वो स्‍त्री जो मर गई थी सौरी में
अब रात को फोटो खिंचवाकर बच्‍ची मारने वालों
को डराती है, इसको लेकर इलाके में बड़ी दहशत है
और पढ़े-लिखे लोगों से मदद ली जा रही है जो कह
रहे हैं कि यह सब बकवास है और वे भी सहमत हैं
जो अमूमन पढ़े-लिखों की बातों में ढूँढ़ते हैं सियार का मल।

इस इलाके का सबसे बड़ा गुंडा मात्र मरे हुओं से डरता है।
एक बार उसके दारू के बोतल में जिन्‍न घुस गया था
फिर ऐसी चढ़ी कि नहीं उतरी पार्टी-मीटिंग में भी
मंत्री जी ले गए हवाई जहाज में बिठा ओझाई करवाने।

इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्‍सा रखता है।
एक स्‍त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े
पति गए पंजाब फिर लौटकर नहीं आए
भुना चना फांकते बहुत अच्‍छा गाते थे चैतावर ।

(3)

संयोगों की लकड़ी पर इधर पालिश नहीं चढ़ी है
किसी भी खरका से उलझकर टूट सकता है सूता ।
यह इधर की कथा है
इसमें मृत्‍यु के आगे पीछे कुछ भी तै नहीं है।

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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

M VERMA का कहना है कि -

इसमें मृत्‍यु के आगे पीछे कुछ भी तै नहीं है।
माना तय नहीं है .. दिख भी रहा है.
पर कथावाचक कौन है?
बहुत सुन्दर रचना

Anonymous का कहना है कि -

वह निर्भूमि स्‍त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती
एक दिन पीटकर मार डाली गई डायन बताकर ।
बहुत मार्मिक रचनाओं के लिए बधाई. आज भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है.अंधविश्वास के चलते औरतें डायन कहकर मार दी जाती हैं.एक भयंकर त्रासदी है भारत के लिए जहां नारियों की पूजा को देवता की पूजा कहा गया है.

दिपाली "आब" का कहना है कि -

पहली कविता
यहाँ मृत्यु कभी भी आ सकती है,
काफी सारे भाव एक साथ समेटे हैं, या यूँ कहें की कई चित्र एक साथ चलते हैं..
अच्छी रचना.

दिपाली "आब" का कहना है कि -

@ dusri kavita

एक स्‍त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े
पति गए पंजाब फिर लौटकर नहीं आए
भुना चना फांकते बहुत अच्‍छा गाते थे चैतावर ।

येः कविता काम और कोई किस्सा ज्यादा लग रही है.
भाव काफी अच्छे लगे, पसंद आये

दिपाली "आब" का कहना है कि -

संयोगों की लकड़ी पर इधर पालिश नहीं चढ़ी है
किसी भी खरका से उलझकर टूट सकता है सूता ।
यह इधर की कथा है


वाह.. क्या बात है.

कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹 का कहना है कि -

WAH..!! SATYTA KO JITI .. RCHNA KOI KALPNA NHI ..BILKUL BEDAG RCHNA ..BADHAYEE

KESHVENDRA IAS का कहना है कि -

मनोज जी, भारत भूषन अग्रवाल सम्मान मिलने की बधाई. इससे पहले आपकी कविता पढ़ी है या नही, याद नही, पर इस कविता को पढ़कर लगा की वाकई, दम है आपकी कविता में.
"मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है" यह कहकर आपने उस पूरी जड़ता को उजागर किया है जो मिथिलांचल को घेरे हुए है, एक समृद्ध समाज कैसे अपने गौरवमय अतीत का करुण उपहास बन कर रह गया है, एक प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्र कैसे आज अनपढ़ों की भूमि बना हुआ है, एक समृद्ध भाषा मैथिली कैसे धीमी मौत की और अग्रसर है, मिथिला संस्कृति कैसे दिन-पर-दिन नष्ट होती जा रही है, भारत के सबसे प्रगतिशील समाजों में एक रहा मैथिल समुदाय कैसे कुरीतियों की चपेट में ऐसा फंसा है की निकलने की कोशिश करने वाले तक हताश हो रहे है...इन सब बातों को आपने सांकेतिक रूप में अपनी कविता में पाठकों के सामने रखा है.

आप ही जैसे लोगों से आशा है की अपने विचारों से इस सुप्त्प्राय समाज को झकझोर कर जगायेंगे और फिर से इसे इसके गौरव शिखर तक पहुचने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. आपकी काव्य कथा आंचलिक होते हुए भी भारत के हर उस प्रांतर का प्रतिनिधितत्व करती है जो अशिक्षा, बेरोजगारी, कुरीतियों और सबसे बढ़कर भविष्य के बारे में विश्वास हीन होकर निराशा और अवसाद के अंधेरों में डूबा हुआ है. इस सुंदर कविता से अगर कुछ लोगों को भी इन अंचलों में सकारात्मक बदलाव लाने की प्रेरणा मिल सकी तो वही इस कविता की सार्थकता होगी.

विजयशंकर चतुर्वेदी का कहना है कि -

Adbhut!

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