दे जाता है इन शामों को सागर कौन...
चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?
भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?
उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,
कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?
संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,
होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?
रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,
कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...
सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,
मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?
मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,
ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..
जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,
‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?
निखिल आनंद गिरि
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
कभी तलब ही न किया 'मजाल' उन्होंने हमसे,
खुद ही कर लिया फैसला, हमसे बढकर कौन!
भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?
qamyaab sher hai nikhil bhai ....
रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,
कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन..
zabardast ...zabardast ... kitne hee tareekon se sochne ko mazbor karta sher hai ...wah wah
maqta bhi behtareen ban padaa hai shandar ghazal kahi hai aapne.....
संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,
होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?
बहुत खूब, खूबसूरत अन्दाज
सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,
मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?
bahut bahut pyaraa she'r...
umda..:)
जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,
‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?
...बधाई निखिल...अब तो भय लगता है कि कहीं तुम्हारा लिखा पढ़ने से छूट न जाय.
अच्छी रचना है, बहुत खूब।
सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,
मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?
मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,
ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..
umda gazal hui hai nikhil bhayi...
shubkhamnayen
सुंदर प्रस्तुति...सुंदर पोस्ट ..
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
अब बचा क्या है कहने के लिए
सब कुछ तो है बस सहने के लिए
यूं तो थक जाते हैं हर रोज
थामकर खुद को
फिर भी हैं
जन्तर कुछ
मन्तर कुछ
जाने इनको रोज ब रोज
छिड़क जाता कौन...
जूनून को किनारा मिल जाता कभी
तो जिंदगी को सहारा बनाता कौन ?????????
....
..
.
.
इससे बढ़कर क्या तारीफ होगी कि आपकी गजल ने हमसे भी शायरी करवा ली।।।।
बहुत खूब।।।
kya baat hai. aapki har nazm, har kavita mein - ek 'maa' ka hamesha mention hota hai...khub achcha laga...
deri se aane ke liye muaaf kijiyega.
दे जाता है इन शामों को सागर कौन...
चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?
waah, accha matla hua hai..
भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?
sach kaha, bahut sateek aur behtareen sher
उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,
कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?
waah, pyaara sher raha ye bhi
संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,
होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?
waah, kya baat hai..shaandar sher
रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,
कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...
badhiya
सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,
मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?
hmm..
मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,
ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..
waah
जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,
‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?
sach hai
all in all ek karaari gazal..badhai
भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?
जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,
‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?
इन दो अशआरों से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ...ये मेरे मन की कही आपने.
बहुत बढ़िया ग़ज़ल.
रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,
कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...
दिल को छूने वाली पंक्तियां...लंबे समय बाद पढ़ी..
खूब...बहुत खूब
बहुत उम्दा गज़ल है. व्यंग्य का जो पुट इस गज़ल में है वह अन्यत्र मीणा कम है भाई. निखिल ज़िन्दाबाद. इस गज़ल का हर शेर नायाब.
(corrected) बहुत उम्दा गज़ल है. व्यंग्य का जो पुट इस गज़ल में है वह अन्यत्र मिलना मुश्किल है भाई. निखिल ज़िन्दाबाद. इस गज़ल का हर शेर नायाब.
बहुत सटीक लिखा आपने...कभी मेरे ब्लॉग पर आयें..कुछ मार्गदर्शन दें...ranjanathepoet.blogspot.com
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