जुलाई माह की प्रतियोगिता की दूसरी कविता शेखर मल्लिक की है। यूनिकवि अनिल कार्की की तरह शेखर भी इस प्रतियोगिता में पहली दफा हिस्सा ले रहे हैं। 18 सितम्बर 1978 को हाबड़ा (पं॰ बंगाल) में जन्मे शेखर चन्द्र मल्लिक मुख्यतः कथाकार हैं। ‘हंस’ में ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ में इनकी एक कहानी पहले स्थान पर चयनित। एक कहानी (कोख बनाम पेट) का तेलगू भाषा में अनुवाद हुआ। ‘गुलमोहर का पेड़’ नाम से एक कहानी संकलन प्रकाशित। इनकी एक कहानी 'मिट्टी का प्रेमी' कहानी-कलश पर प्रकाशित है। संप्रति- प्रलेसं की जमशेदपुर ईकाई से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन।
संपर्क- बी डी एस एल महिला महाविद्यालय, काशिदा, घाटशिला, पूर्वी सिंहभूम- 832303, झारखण्ड
मोबाइल- 09852715924
ई-मेल- shekhar.mallick.18@gmail.com
पुरस्कृत कविता- बचा हुआ है कुछ
तिलमिलाए हुए
(जंतुओं जैसे)
मनुष्यों के पास
यदि बचा हुआ है कुछ,
तो कौड़ी भर वफ़ादारी,
हर सुबह असलियत की गर्मी में भाप
होने से पहले
उम्मीद की ओस
और
बेतरतीब टूटे हुए नाखून...
झड़ते हुए बालों से
उम्र गिनते हुए
बचे हैं धुँधले होते हुए
अभी, बाबूजी जैसे लोग...
और चौराहे पर रोज 'नगर-बस'
की प्रतीक्षा करती प्रेमिकाओं
के पास बची हुई है
सड़क के परले तरफ
खड़े प्रेमियों पर
एक नज़र उछाल देने की फुर्सत...
तमाम चीजें, दूसरी चीजों में
कुछ-कुछ बच जाने की उम्मीद में
बची हुई हैं...
और आदमी भी...इसी तरह...
लगातार एक ही जगह
खा-खाकर चोट
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है
और भूख, महँगाई, घोषणाएँ, वायदे,
तानें, उनींदी रातें... उन नासूरों में उँगली
घुसेड़ रही हैं
तो उनके पास बची हुई है,
बीस डेसिबल से कम हर्ट्ज की मातमी रुदालियाँ...
बदहवास आदमी का
बदरंग चित्र हवा में टंगा है
और बराबर पीछा करता है
राजपथ की चौड़ी सड़क के किनारे...
गुहार लगता हुआ, कि उसे बचा लिया जाय
शोर अब भी बचा हुआ है
सिर्फ़ संसद ही नहीं, साप्ताहिक हाटों में भी
अमूमन देश के सभी शहरों में...
बुद्धिजीवियों की कनफोडू-कलात्मक बहसें
प्रेक्षागृहों की दीवारें जज्ब कर रही हैं
इधर बचे हुए लोग
नारों और लाठियों के बीच खप रहे हैं...
पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
लगातार एक ही जगह
खा-खाकर चोट
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है
और फिर यह नमकीन हवा आती कहाँ से है हर कोई जानता है पर जीजिविषा कुहराम नहीं करती शायद हत्या कर दी गयी है इस जीजिविषा की भी.
सुन्दर रचना
अगर मैं गलत नहीं हूं तो हंस में आपकी कहानी कुछ साल पहले पढ़ी थी...तब जमशेदपुर में था...अब कविता पढ़ने को मिली.....और निखर गई है कलम आपकी...ये पैनापन बरकरार रहे...
इस माह की प्रतियोगिता ने भी हिंद-युग्म को कुछ नये नगीने सौंपे हैं..शेखर जी उनमे से एक हैं..ऐसी अच्छी कविताओँ के साथ साहित्याकाश मे दमकते रहें..यही कामना है..आभार..
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है ।
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
महोदय, खेद है... एवं विनम्रतापूर्वक कहना है कि समयांतर की कोई प्रति आज तक नहीं प्राप्त हुई है. कृपया, कम से कम वह प्रति जरूर भिजवाएं जिसमें मेरी यह पुरस्कृत कविता प्रकाशित हुआ है. आभारी होऊँगा.
धन्यवाद के साथ.
- शेखर मल्लिक
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