कल से विपुल शुक्ला ने बैठक पर आस्तिकता-नास्तिकता की बहस छेड़ी है। जब लोग विषमताओं और विडम्बनाओं की फसल को भगवान के बहाने काटते हैं और इसे ईश्वरनिर्मित ही बताते हैं तो संवेदना से लबालब व्यक्ति तिलमिला जाता है। कुछ इसी तरह की स्थिति युवाकवि प्रमोद कुमार तिवारी सामने आती है, ऐसे में वे ढेरों ज़रूरी सवाल भगवान से ही कर डालते हैं। गौरव सोलंकी ने इसी मंच पर जब अपनी क्षणिकाओं के माध्यम से भगवान से कुछ मासूम सवाल खड़े किये थे तो आस्था-अनास्था का अखाड़ा बन गया था। फिलहाल तो प्रमोद की कविता से मुखातिब होते हैं-
एक बात बताओ बाप
एक बात बताओ हम सब के बाप
तुम्हारा कभी मरने का मूड नहीं होता
सच-सच बताना गुरु!
प्रकाशवर्ष सी लंबी उम्र खरचते-खरचते
कभी बोर नहीं होते?
अच्छा चलो, माना, कि मर नहीं सकते
पर आत्महत्या की तो सोच सकते हो
बामियान से बगदाद तक तुम्हारी रचनाओं ने
क्या-क्या गुल नहीं खिलाए
अमां यार!
नैतिक ज़िम्मेदारी भी तो कोई चीज होती है?
कहीं ऐसा तो नहीं प्रियवर!
ज्यों-ज्यों मरना चाहते हो
तुम्हारी उम्र बढ़ाते चले जाते हैं, तुम्हारे दुश्मन
अंधास्था और अफवाहों के भुक्खड़ भगवान
कितना इफरात है इन दिनों तुम्हारा ये भोजन ?
क्या गजब का ‘पी आर’ बनाया है
तुम्हारे दुश्मनों ने चैनल वालों से
मेरे थुलथुल भगवान!
इस बुढ़ौती में
इतना अंट-संट खाकर भी
क्यों नहीं ख़राब होता तुम्हारा हाजमा ?
अच्छा मान लो, मेरे परम आत्म,
मरने का मन हो ही गया तुम्हारा,
तो?
फाँसी लगा नहीं सकते!
चाकू, सल्फास और सायनाइड भी
तुम्हारे किसी काम का नहीं,
क्या करोगे आख़िर?
किसी ब्लैक होल में कूदोगे?
या अपना बड़ा अंश दे दोगे
चिरक्लांत किसानों को?
या फिर शर्म बचाने के लिए
लिपट जाओगे रस्सी बन कर
आत्मघाती बमों के चारों ओर
श्राद्धेय भगवान,
कितनी भयानक है इसकी कल्पना भी
कि हम मर नहीं सकते
कितने बेचारे हो दोस्त!
बताओ क्या मदद कर सकता हूँ तुम्हारी?
यार! सुना है कुछ मात्रा में
मेरे भीतर भी हो तुम,
अब तुम ही बताओ प्यारे!
क्या करूँ मैं इसका?
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
भगवान को जन्म देने वाले उसे मरने नहीं देंगे, क्योंकि भगवान का मरना उनका खुद का मरना है.
भगवान भी तो हमारे कानून की तरह है जो अन्धा की श्रेणी में आता है जो मारता तो है पर मरता नहीं है.
चन्द लोगों के हित में वह मरेगा नहीं
बहस करने वाले इस कविता पर भी बहस करेंगे और भगवान के गुड बुक्स में आने का प्रयास करेंगे.
हा हा हा नई पीढी ने फिर नई सोच दी है। इस बार कोई शिकायत नहीं।
kavita, kavita ki nazar se acchi hai, nayapan bhi hai.. , ishwar ko agar aap sambodhit karte hain to plz dhyaan rakhein ki aise shadb istemaal na ho jo dusron ki bhavnaon ko chhot kare, Vishay par baat ki jaye to kafi behas ho sakti hai
main sirf itna kahungi, ki maano to ishwar hai warna patthar, uske baare mein kuch accha keh kar uski good books mein aane ki mantrna galat hai, agar uski good books mein aana hai, to humein bas ek hi kaam karna hai, kisi ka dil na dukhayein. Kisi ke chehre par khushi lana sabse badi pooja hai.
बनाने वाले पर शक ...शक तब तक अच्छा है जब तक सच्चाई जान न लो ...स्वयं पर भी शक करो कि तुम कौन हो ? परमात्मा तो बहुत दूर की चीज़ है ।
जब किसी का इन्सान पर वश नही चलता तो भगवान से सवाल करने का मन हो ही आता है।दुनिया की बुराई को देख कर सवाल वाजिब हैं धन्यवाद।
शीर्षक पढ़कर लगा था कि कवि अपने पिता से मुखातिब है...
शायद ठीक ही लगा था...
बस, ज़रा संबोधन पिता जैसा सम्मानजनक नहीं था...
कोई मूरत कहीं देखी, वहीँ सर झुक गया अपना
मुझे काफिर कहो बेशक, यही है पर चलन मेरा
भगवान हमारा परमपिता है!... उसे संबोधित करके लिखि हुई कविता सुन्दरतम है....बधाई!
सुन्दर अभिव्यक्ति ।
मित्रो, कविता को बहस की बजाय कविता की नजर से देखें तो शायद बेहतर हो, वैसे भी दर्शन और तर्कशास्त्र से इतर एक काव्य-न्याय की बात हमारे शास्त्रों में की गई है जिसमें कल्पना, भावना और मौलिकता को तवज्जो दी जाती है। ये ईश्वर को अपनी नजर से बिलकुल अनौपचारिक ढंग से वर्तमान संदर्भों में देखने की कोशिश भर है। नास्तिक-आस्तिक की फेरे में बगैर पड़े उससे हमने कुछ सवाल पूछे हैं ठीक वैसे ही जैसे किसी आत्मीय दोस्त से नाराज होने पर शायद आप भी पूछते। एक बात और, इसकी रचना करीब 2 साल पहले एक साप्ताहिक अखबार के लिए आंध्र के किसानों की आत्महत्या पर केंद्रित कवर स्टोरी बनाने के दौरान हुई थी।
- प्रमोद
मित्रो, कविता को बहस की बजाय कविता की नजर से देखें तो शायद बेहतर हो, वैसे भी दर्शन और तर्कशास्त्र से इतर एक काव्य-न्याय की बात हमारे शास्त्रों में की गई है जिसमें कल्पना, भावना और मौलिकता को तवज्जो दी जाती है। ये ईश्वर को अपनी नजर से बिलकुल अनौपचारिक ढंग से वर्तमान संदर्भों में देखने की कोशिश भर है। नास्तिक-आस्तिक की फेरे में बगैर पड़े उससे हमने कुछ सवाल पूछे हैं ठीक वैसे ही जैसे किसी आत्मीय दोस्त से नाराज होने पर शायद आप भी पूछते। एक बात और, इसकी रचना करीब 2 साल पहले एक साप्ताहिक अखबार के लिए आंध्र के किसानों की आत्महत्या पर केंद्रित कवर स्टोरी बनाने के दौरान हुई थी।
- प्रमोद
प्रमोद कुमार तिवारी की यह कविता बहुत ही सार्थक, सशक्त और प्रासंगिक है. एक प्रबुद्ध, जागरुक और सम्वेदंशील व्यक्ति के तमाम प्रश्न बडे ही दिलचस्प तरीके से रखे गये है.
प्रमोद जी बहुत-बहुत बधाई..मुझे तो अबतक की कविताओं मे सबसे अच्छी कविता लगी..जो सही मायने मे सार्थक है. सच्चाई है इस रचना में भगवान भी उतना ही दोषी है जितना कि एक इंसान...भगवान को कट्घरे मे खड़ा करने की बेबाक और जबदरस्त पहल!
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