मनोज कुमार झा एक बेहद अलग वाक्य-विन्यास की कविताएँ लिखते हैं। इनकी कुछ कविताओं से हमने आपके पिछले सप्ताह परिचय करवाया था। आज हम इनकी कुछ और कविताओं को प्रकाशित कर रहे हैं-
इस तरफ से जीना
यहाँ तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
और साँस-साँस भविष्य
वह भी जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
देवताओं, हथेली पर थोड़ी जगह
खुजलानी हैं वहाँ लालसाओं की पाँखें
शेष रखो चाहे पाँव से दबा अपने बुरे दिनों के लिए
घर को क्यों धाँग रहे इच्छाओं के लँगड़े प्रेत
हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन
सुना है आसमान ने खोल दिये हैं दरवाजे
पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा सकते हैं किसे तारे से अपनी बीड़ी
इतनी दूर पहुँच पाने पर सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बाँध सकें इस क्षण के छोर ।
निर्णय
स्वयं ही चुनने प्रश्न
और उत्तरों को थाहते धँसते चले जाना स्वप्नों के अथाह में
कहीं कोई यक्ष नहीं
कि सौंपकर यात्रा की धूल उतर जाएँ प्यास की सीढ़ियाँ
समय के विशाल कपाट पर अँगुलियों की खटखट
लौट-लौट गूँजती है अपने ही कानों में
ये घायल अँगुलियाँ अन्तिम सहयात्री शरशैय्या-सी
जितना भींग सका पानी में
बदन में जितना घुला शहद
जितना नसीब हुआ नमक
कौन कहेगा-कम है या ज्यादा
खुद ही तौलना
तौलते जाना
जरा-सा भी अवकाश नहीं रफवर्क का
और कोई सप्लीमेंट्री कॉपी भी नहीं ।
यात्रा
मैं कहीं और जाना चाहता था
मगर मेरे होने के कपास में
साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल ।
इतनी लपट तो हो साँस में
कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा
कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल
मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था
नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना
बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ ।
उम्मीद
कभी तो सोऊँ बच्चों को खेलाते-खेलाते सुलाकर
हो तो मेरे आगे नींद में बच्चों का छप-छप
कई दिन से सोच रहा कॉल करूँ कि यार
क्या तूने लगवा लिए वे दाँत जो अमरूद तोड़ने में
टूट गए थे
बहुत देर तब बजता रहा फोन
नहीं हुई हिम्मत कि जैसे छाती में नहीं कोई बात अब कहने की
कौन खोंट लेता है मन पर उगी हरी दूब
नोनही हुई जा रही पूरी की पूरी जमीन
यह कौन छुपा रहा है मेरी इच्छाओं में तीर
टिन के डब्बे हो जाएँगे एक दिन मेरे बच्चे !
क्या ऐसे ही ठुका रहूँगा दीवार में ताउम्र
फूटे घड़े की तरह कुँए से बहुत दूर
नहीं, किसी दूरबीन के शीशे में घुल जाऊँगा
और कूद जाऊँगा चाँद के पार किसी नदी में।
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
सभी रचनाओ के तेवर धारदार
सुन्दर
मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था
नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना
बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ ।
" वाह......"
regards
outstanding.. Main fir aaungi dobara padhne ..aur acche se review dene..
एक से बढ़कर एक सुन्दर रचनायें ।
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