अरविन्द श्रीवास्तव ने लम्बा समय साहित्य को दिया है। पिछले माह से हिन्द-युग्म पर भी सक्रिय हैं। यूनिकवि प्रतियोगिता के जनवरी 2010 अंक में इनकी कविता ने चौथा स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता: समलैंगिक कार्यक्रम के प्रति
न्यूनतम साझे कार्यक्रम की प्रचलित परंपरा
अपनी जिम्मेदाराना चुप्पी तोड़ते हुए
हत्यारे के पक्ष में
क्षमा की याचना करते
निर्वस्त्र झुकी है
यह जानते हुए कि धरती
एक पौधे की अपेक्षा नहीं रख सकती
समलैंगिकों से
ऐसे समय में जब धरती पर
शूरवीर और पराक्रमी जनों की आवश्यकता
शिद्दत से महसूस की जा रही थी,
अभी कई-कई ग्रहों को भेदना शेष था
नैसर्गिकता के कथित दमघोंटू पचड़े के विरुद्ध
स्वर्ग के नये दरवाजे की चाभी
समलैंगिकों ने हथिया ली थी
सभ्य राष्ट्रों में उनकी लामबंदी और
लीगल राइट के खबरों पर
दुनिया के दूसरे हिस्से में ‘सभ्य’ बनने की
होड़ मची थी, जिसके तहत
टोले-नगर, महानगर बन रहे थे जंगल
जिसके लिए जीवन शैली की नयी परिभाषा
गढ़ी जा रही थी
जिसमें नैतिकता को रूढ़िवादी सोच के खाते में
डाला गया था
साझे कार्यक्रम की सफलता
चुप्पी पर आधारित थी
एचआईवी तरह की जोखिमों को देखते हुए
जुबान पर कंडोम की सिफारिश थी और
इसे लोकप्रिय बनाने की सहमति
आम होते जा रही थी
किसी बहसबाजी पर ह्यूमेन राइट अब
अधिक चौकन्ना दिख रहा था
कुछ और नस्लें लुप्त होने वाली थीं
कुछ वायरस अश्व गति से करीब आ रहे थे
साझे कार्यक्रम के मुख्य एजेंडे मे
निर्धारित था जिनका राज्याभिषेक
कूँ-कूँ करती कुछ आवाजें
दबोच ली गयी थीं
कुछ आँखें नाटक कर रही थीं
अंधा होने का।
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पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
लो एक कहानी को फिर कबिता कह रहे ही,,.,,,,,,,,,,,,,,
सुधर जाओ जनाब.,..........
कमेन्ट रहने ही देते हैं हम तो...
पर सही लिखा है आपने रचना में...
इस बार की प्रतियोगिता में कुछ अलग किस्म की रचनाएँ मिल रही है..विषय वस्तु गंभीर है पर कहीं से निरसता नही प्रतीत होती है..भावपूर्ण रचना..अरविंद की बधाई स्वीकारे
इन समलैंगिक लोगों का कसूर इतना है कि वे
बहुत ही अल्पमत है - वैज्ञानिक कहते हैं कि ये बिमार नहीं जिनका इलाज किया जाय, ये कोई अपराधी नहीं जिन्हें सज़ा दे कर सुधारा जाय।
व्यंग्य पढ़ कर ख्याल आया कि जब गाधींजी ने
हरिजनो के अधिकार की बात की थी तो इसी प्रकार
की व्यंग्य कविता निकल पड़ी थी ।
कुछ और नस्लें लुप्त होने वाली थीं
कुछ वायरस अश्व गति से करीब आ रहे थे
साझे कार्यक्रम के मुख्य एजेंडे मे
निर्धारित था जिनका राज्याभिषेक
विषय भाव गम्भीर हैं । बहुत अच्छा प्रयास है धन्यवाद
नया और अद्भुत प्रयोग... नयी कविता का चर्मोत्कर्ष, सहज व सामयिकता के साथ।
नये विषय पर लिखी गई रचना विचारणीय है। बधाई!
आपने जो विषय उठाया है, इसपर कोई कुछ बोलना या इसे गंभीर त्रासद अवस्था मानना नहीं चाहेगा,बल्कि आपको ही पिछड़ा साबित कर दिया जायेगा...
पर समय बताएगा,की यह सही है या गलत...
मेरा साधुवाद स्वीकार करें...
एक बिमारी को जब इतनी आत्मीयता से स्वीकार लिया गया है तो मेरी समझ में नहीं आता की क्यों सजायाफ्ता मुजरिमों , आतंकियों , गरीबों के लिए मत संग्रह किये जाते ...अभिजात्य और सामंती विष्ठा को उठाने की इतनी आतुरता किसी युग में नहीं देखी गयी !
एक घ्रणित , असामाजिक , मानसिक विकृति को सटीक ढंग से उठाया है आपने ...सादर धन्यवाद !
एक कवि घाव का मवाद निकाल सकता है शेष तो तथाकथित बुध्धिजीवियों व समाज सुधारकों को वास्तविक धरातल पर संगठित करने से ही होगा ...
साहसिक , सामयिक व जवाबदार सृजन के लिए साधूवाद !
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