जगमगाते शहृ का हर इक मकाँ ऐवाँ लगा
गरचे दिल से हर बशर बे-इन्तहा वीराँ लगा
झूठ के रस्ते रवाँ था आज सारा काफिला
सच के रस्ते जा रहा इक आदमी नादाँ लगा
सच खड़ा था कटघरे में और मुन्सिफ झूठ था
डगमगाता किस कदर इन्साफ का मीज़ां लगा
जिन सवालों का पता था इम्तिहाँ से पेशतर
इम्तिहाँ में बस उन्हीं का हल मुझे आसाँ लगा
इक मुलम्मा ओढ़ कर अहबाब मिलते हैं यहाँ,
मुस्कराना भी किसी का जाने क्यों एहसाँ लगा
इक बड़ा बाज़ार दुनिया बन गई है दोस्तो
दहृ के बाज़ार में इन्सां बहुत अर्ज़ां लगा
ज़िन्दगी के क़र्ज़ से था डर रहा जो बेपनाह
मौत से बेखौफ सब को अब वही दहकाँ लगा
दोस्त के सीने में खंजर घोंपना आसान था
दर्द सा इक बेवजह दिल में फ़कत पिन्हाँ लगा
शब्दार्थ- एवां = महल, बेकराँ = असीम , रवां = अग्रसर, मुन्सिफ = जज, मीज़ां = तराजू, पेश्तर = पहले, मुलम्मा = मुखौटा, अहबाब = दोस्त (बहु.), दहृ = दुनिया, अर्ज़ां = सस्ता, दहकाँ = किसान, पिन्हाँ = छुपा हुआ।
--प्रेमचंद सहजवाला
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
दहृ के बाज़ार में इन्सां बहुत अर्ज़ां लगा
बहुत सटीक बात है कि आज मानव की कीमत कुछ भी नहीं है....सुंदर भाव के लिए बधाई!
नियंत्रक महोदय,
बस "टैग" में शायर का नाम है। मेरे अनुसार अगर पोस्ट में भी "प्रेमचंद सहजवाला" लिखते तो ज्यादा अच्छा होता।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
हिन्दी युग्म सुधर नहीं रहा हे .....,,,,,,,
शैलेश हिंदी सी दुर्दार्सा मत कर...,,,
सादर
अनाम
तन्हा जी,
गलती की तरफ ध्यान आकृष्ट कराने का शुक्रिया
Sahajwala ji dhanyawad,
itne saare naye shabdon se parichaya karene ke liye. Agar shabdarth nahi diya hua hota to samjhane mai bilkul asmarth rahta. Gazal ka bhav bhi umda hai.
Badhai
सच खड़ा था कटघरे में और मुन्सिफ झूठ था
डगमगाता किस कदर इन्साफ का मीज़ां लगा
क्या ग़ज़ल है। हर शे'र बस वाह-वाह करता रहा।
बिल्कुल सच के करीब से जाती कविता..अच्छी लगी..धन्यवाद!!!
Prem Sahab,
Bahut hi pyaari Gazhal likhi hai, Badhaai
AAP SABKO DIPAVALI AUR NAYE SAAL KI SHUBH KAAMNAYEIN.
Surinder
सच खड़ा था कटघरे में और मुन्सिफ झूठ था
डगमगाता किस कदर इन्साफ का मीज़ां लगा
जिन सवालों का पता था इम्तिहाँ से पेशतर
इम्तिहाँ में बस उन्हीं का हल मुझे आसाँ लगा
इक मुलम्मा ओढ़ कर अहबाब मिलते हैं यहाँ,
मुस्कराना भी किसी का जाने क्यों एहसाँ लगा
इक बड़ा बाज़ार दुनिया बन गई है दोस्तो
दहृ के बाज़ार में इन्सां बहुत अर्ज़ां लगा
शानदार गजल..
खूबसूरत मतले से लेकर आखिरी तक के शेर को बार बार पढने का मन करता है...
हिंद-युग्म के सभी लेखकों...पाठकों को दिवाली की शुभकामनायें...
बहुत खुबसूरत ग़ज़ल. लाजवाब शे'र.
झूठ के रस्ते रवाँ था आज सारा काफिला
सच के रस्ते जा रहा इक आदमी नादाँ लगा
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