सुबह-
एक खरगोश की तरह है.
मैं यह खरगोश
आरामकुर्सी पर बैठे
दादाजी को देना चाहता हूँ
ताकि वे इसे
दुलारते-पुचकारते रहें.
और उन्हें अपना बचपन
याद आता रहे कि
वे भी ऐसे ही,
खरगोश की तरह
घर-आँगन में
दौड़ते-फिरते थे...
जब वे बच्चे थे.
मैं यह खरगोश
उस बच्चे को भी
देना चाहता हूँ, जो
अभी दौड़ तो नहीं सकता.
पर खुश होता रहेगा
उछल-कूद करते
खरगोश को देख कर..
लेकिन मैं यह खरगोश
उस नौजवान को दूंगा
जो रोटी कमाने की जुगत में
बेतहाशा दौड़ रहा है..
दुपहर में सूरज ठीक
आँगन के ऊपर चमकेगा और
चिड़ियों की चहचहाहट
बाहर पेड़ पर नहीं,
आँगन के इस पार बने
रोशनदान से सुनाई देगी.
जब सूरज आँगन से
जा चुका होगा, तब
दादाजी और बच्चा
फिर चाहेंगे
खरगोश पाना और
मन बहलाना.
मैंने तय कर लिया था कि
मैं यह खरगोश
नौजवान को ही दूंगा जो
उदास आँखों से
कभी दादाजी और
कभी बच्चे को देख रहा है.
और सोच रहा है कि...
दादाजी बहुत दौड़ लिए
अब उनके
आराम करने के दिन है.
और बच्चा!
अभी से ही दौड़ कर
क्या करेगा...
उसके दौड़ने में तो
अभी बहुत बरस बाकी हैं.
'दौड़ना तो मुझे है'
सोचता है नौजवान.
और ठीक उसी पल
कर दिया, मैंने
उसके हवाले खरगोश.
दादाजी और बच्चा-
नौजवान और खरगोश को
दौड़ते हुए देख कर
बेहद खुश हैं.
पर मैं उदास हूँ
यह देख कर कि
दौड़ में नौजवान
पिछड़ रहा है...
और शाम तेजी से
घिरती जा रही है!
--सुधीर सक्सेना 'सुधि'
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
ek sundar bhav liye kavita ..
achchi lagi...badhayi sudhir ji
वाकई बहुत सुन्दर लाजवाब कविता है आज बुजुर्ग लोगों की जो हालत हो रही है उसे बडी संवेदना से उकेरा है शुभकामनायें
सुन्दर रचना सुन्दर भावों के साथ
सुधि जी नौजवानों को सुस्ती से जगाना चाहते हैं .खरगोश के माध्यम से उन्हें क्रियाशील होने का संदेश दे रहें हैं .बधाई
teeno pidhi ki bhavnao ko bahut achhe se vykt karti sundar rachna
badhai
तीनो को एक-एक खरगोश दे दो या दादा जी ही दे दो बेचारे अकेले मायूस हो जायेंगे.. नौजवान को नौकरी खोजने दो ....
वैसे भाव लाजवाब हैं
सच है आज का नौजवान नौकरी के लिए तो भाग दौड कर रहा है लेकिन भ्रश्टाचार के चलते वह हार चुका है..उसकी बडी-बडी डिग्रियां किसी काम की नहीं..संवेदन्शील भाव के लिये बधाई।
कविता ना तो बुजुर्गों की हालत पर है और ना सुधी जी नौजवानों को सुस्ती से जगाना चाहते हैं, ना ही बच्चा, नौजवान और दादाजी को एक एक खरगोश मिल सकता है। सुधी जी का खरगोश एक सुबह की तरह है, वह सुबह जिसकी आस सभी को है, दुख यही है कि बच्चे और दादाजी के हाथ में खरगोश आया नहीं और खरगोश के साथ नौजवान दौड में पिछड़ रहा है, वह रात अभी गई नहीं और वह सुबह अभी हाथ आई नहीं।
-अमित
पूरी कविता में खरगोश को केंद्र मानकर जो बात कही गई है वहढंग बढ़िया लगा.
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