प्रतियोगिता की दूसरी कविता के रचनाकार डॉ॰ अनिल चड्डा पहली बार कवि के तौर पर प्रकाशित हो रहे हैं (काव्य-पल्लवन को छोड़कर)। दिल्ली में जन्मे और पला-बढ़े, 57 वर्षीय अनिल इस समय सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं। कविता बचपन से ही करते आ रहे हैं, शायद 14-15 वर्ष की उम्र से ही। दिल्ली से विज्ञान में स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद अपने कविता-लेखन में निखार लाने के लिये इन्होंने हिन्दी-साहित्य में एम. ए. एवं पी. एच. डी. किया। इनकी कविताएँ सरिता, मुक्ता इत्यादि में प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में दिल्ली से प्रकाशित श्रेष्ठ काव्यमाला(खंड-3) में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। अब ये केवल ब्लागिंग करते हैं और इनकी कविताएँ मुख्यत: इनके ब्लागों पर पढ़ी जा सकती हैं।
पुरस्कृत कविता- एक नन्ही-मुन्नी के प्रश्न
मैं जब पैदा हूई थी मम्मी,
तब क्या लड्डू बाँटे थे?
मेरे पापा खुश हो कर,
क्या झूम-झूम कर नाचे थे?
दादी-नानी ने क्या मुझको,
प्यार से गोद खिलाया था,
भैया के बदले क्या तुमने,
मुझको साथ सुलाया था?
प्यार अग़र था मुझसे माँ,
तो क्यों न मुझे पढ़ाया था?
मनता बर्थ-डे भैय्या का है,
मेरा क्यों न मनाया था?
था करना मुझसे भेदभाव,
तो दुनिया में क्यों बुलाया था?
क्या मैं तुम पर भार हूँ माँ?
फिर तुमने क्यों ये जताया था?
तुम भी तो एक नारी हो,
क्या तुमने भी यही पाया था?
ग़र तुमने भी यही पाया था?
तो क्यों न प्रश्न उठाया था?
अपने वजूद की खातिर माँ,
क्यों मेरा वजूद झुठलाया था?
तुमने अपने दिल का दर्द,
कहो किसकी खातिर छुपाया था?
मैं तो आज की बच्ची हूँ,
मुझको ये सब न सुहाता है,
इस दुनिया का ऊँच-नीच,
सब मुझे समझ में आता है ।
इसीलिये तो अब मुझको,
आँधी में चलना भाता है,
मेरी तुम चिंता मत करना,
मुझे खुद ही संभलना आता है।
प्रथम चरण मिला स्थान- चौथा
द्वितीय चरण मिला स्थान- दूसरा
पुरस्कार और सम्मान- मुहम्मद अहसन की ओर से इनके कविता-संग्रह 'नीम का पेड़' की एक प्रति।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
24 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं जब पैदा हूई थी मम्मी,
तब क्या लड्डू बाँटे थे?
मेरे पापा खुश हो कर,
क्या झूम-झूम कर नाचे थे?
Aaj ke Samaj jahan ladake aur ladkiyon me bhed hota hai uspar prahaar karati behad bhavuk aur sundar kavita..
bahut badhayi anil ji..bahut badhayi..
तो क्यों न प्रश्न उठाया था?
अपने वजूद की खातिर माँ,
क्यों मेरा वजूद झुठलाया था?
तुमने अपने दिल का दर्द,
कहो किसकी खातिर छुपाया था?
बहुत सुन्दर रचना है। सच मे आज भी लडकी पैदा हो कोई नहीं चाहता । मार्मिक अभिव्यक्ति आभार अनिल जी को बधाई
अनिलजी आंख भर आयीं..यह कविता हर उस लड्की की पीडा है जो मध्यमवगीर्र्य हो या फ़िर गरीब परिवार की...लड्की के लिए तुलनात्मक व्यवहार तो घर से ही शुरु हो जाता है। जिसे वह ताउम्र सहती रहती है... बधाई आपको।
बहुत ही मार्मिक एवम दिल को छू लेने वाली कविता, बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
अनिल जी,
आपकी कविता बहुत ही अधिक दिल को छू गयी. बधाई!
अभी भी हमारे देश में कन्या लिंग भेदभाव है .
अंतिम पक्तियों में समाधान ,संदेश की सोच काबिले तारीफ़ है .
चड्डा जी आपको इस मंच पर देखकर अच्छा लगा. आपको दुसरे स्थान पर आने के ली बधाई. कविता में आपने जो मुद्दा उठाया है बहुत बढ़िया लगा.
मैं कहना चाहूँगा कि आपकी कविता कुछ कुछ बालउद्यान पर प्रकाशित होने वाली जैसी लगे. इसे गलत मत समझियेगा मेरे कहने का मतलब है कि कविता में बहुत ही आसान शब्दों में आपने इस बात को कहा है. कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जो समझ से बाहर हो.
मैं जब पैदा हूई थी मम्मी,
तब क्या लड्डू बाँटे थे?
मेरे पापा खुश हो कर,
क्या झूम-झूम कर नाचे थे?
दादी-नानी ने क्या मुझको,
प्यार से गोद खिलाया था,
भैया के बदले क्या तुमने,
मुझको साथ सुलाया था?
प्यार अग़र था मुझसे माँ,
तो क्यों न मुझे पढ़ाया था?
मनता बर्थ-डे भैय्या का है,
मेरा क्यों न मनाया था?
कई जगह पर आपने character से बहुत गज़ब कि बातें कहलवा दीं जो लाजवाब लगीं.
प्यार अग़र था मुझसे माँ,
तो क्यों न मुझे पढ़ाया था?
मनता बर्थ-डे भैय्या का है,
मेरा क्यों न मनाया था?
था करना मुझसे भेदभाव,
तो दुनिया में क्यों बुलाया था?
तो दुनिया में क्यों बुलाया था? बहुत ही खुबसूरत पंक्ति लगी मुझे तो.
इन पंक्तियों में कुछ सवाल छुपे हैं जिन्हें आपने बहुत आसान शब्दों में कहलवा दिया.
तुम भी तो एक नारी हो,
क्या तुमने भी यही पाया था?
ग़र तुमने भी यही पाया था?
तो क्यों न प्रश्न उठाया था?
अपने वजूद की खातिर माँ,
क्यों मेरा वजूद झुठलाया था?
चड्डा जी एक बात कहना चाहूँगा कि इन पन्तियों में
मैं तो आज की बच्ची हूँ,
मुझको ये सब न सुहाता है,
इस दुनिया का ऊँच-नीच,
सब मुझे समझ में आता है ।
इसीलिये तो अब मुझको,
आँधी में चलना भाता है,
मेरी तुम चिंता मत करना,
मुझे खुद ही संभलना आता है।
अओने काफिया सुहाता आता आदि लिया है इस कि जगह वही लेते जो उपर था तो कुछ और ही मज़ा आता
(मेरे हिसाब से.)
आप सबको मेरी रचना पसन्द आई, मन बहुत हर्षित हुआ । प्रोत्साहन के लिये आभार । हिन्दी साहित्य की सेवा करने की कोशिश जारी रहेगी ।
फराजजी, वैसे ये कविता मैंने बाल-उद्यान के लिये ही लिखी थी । लेकिन कभी-कभी कविता लिखने के बाद ही उसका महत्व पता चलता है । मुझे स्वयँ को ये कविता इतनी अच्छी लगी कि मैंने इसे यूनिकवि प्रतियोगिता में भेजने का निर्णय लिया ।
see a child poem is awarded..,,,,
hindiyugm is hopeles.,..,,.
beto ki chahat waale logo par achuk prahaar karti kavita
Mr.Anonymousji,
Literature is literature, be it of any kind. Why cann't you think in a positive fashion, which is absolutely necessary for moving forward in one's life, in any field. And, why cann't you come out openely? You should have enough courage. One should not show cowardice like this.
बहुत मार्मिक कविता है दिल भर आया
आप को बहुत बहुत बधाई हो
सादर
रचना
aदादी-नानी ने क्या मुझको,
प्यार से गोद खिलाया था,
भैया के बदले क्या तुमने,
मुझको साथ सुलाया था?
antrman ko chuti marmik saval puchti
kvita .lekin akhiri panktiya ak thos dhratal de gai .
दादी-नानी ने क्या मुझको,
प्यार से गोद खिलाया था,
भैया के बदले क्या तुमने,
मुझको साथ सुलाया था?
badhai
आँखे नाम हो गयी
बहुत बढ़िया, मार्मिक अभिव्यक्ति ..
अनिल चड्डा जी,
आपकी कविताएँ बाल उद्यान पर पढ़ती रहती हूँ, आज दूसरे स्थान पर आपकी कविता देख ख़ुशी हुई, बहुत साधारण शब्दों में आपने एक महत्त्वपूर्ण बात कह दी है. अब समय बदल रहा है और कन्याएं ना सिर्फ स्वयं को बल्कि अपने परिवार को संभालने में भी सक्षम हो रही हैं.
तुम भी तो एक नारी हो,
क्या तुमने भी यही पाया था?
ग़र तुमने भी यही पाया था?
तो क्यों न प्रश्न उठाया था?
मैं तो आज की बच्ची हूँ,
मुझको ये सब न सुहाता है,
इस दुनिया का ऊँच-नीच,
सब मुझे समझ में आता है ।
इसीलिये तो अब मुझको,
आँधी में चलना भाता है,
मेरी तुम चिंता मत करना,
मुझे खुद ही संभलना आता है।
द्वितीय स्थान के लिये बहुत बहुत बधाई.
Bahut achi..... dil ko chhu lene wali kavita.... Badhai.....!
Kavita padh kar aankhon me aanshu aa gaye. Congrats !!
वो दिन बस आने को है..जब लड़की होने पर भी लड्डू बांटे जायेंगे,खुशियाँ मनाई जायेगी...!अच्छी कविता के लिए बधाई!!!!
“मैं जब पैदा हूई थी मम्मी,
तब क्या लड्डू बाँटे थे?
मेरे पापा खुश हो कर,
क्या झूम-झूम कर नाचे थे?
दादी-नानी ने क्या मुझको,
प्यार से गोद खिलाया था,
भैया के बदले क्या तुमने,
मुझको साथ सुलाया था?” इतने सारे अनुत्तरित प्रश्नों के लिए ढेर सारी प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक ही हैं. फिर भी उत्तर किसी के पास नहीं. इस कविता का यही सारांश है. हमें अपने जीवन मूल्यों एवं आदर्शों पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है. वरना ये सभी प्रश्न केवल प्रश्न ही रह जाएँगे. इतनी सुन्दर कृति के लिए अनिल जी आप बधाई के पात्र हैं. अश्विनी कुमार रॉय
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)