सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा ये किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
ज़बाँ तक आते आते सच, निकलता झूठ है आखिर
ख़याल ऐसे समय इखलाक के झिंझोड़ जाते हैं
मरासिम तोड़ना तो दोस्त फितरत है हसीनों की
मगर फिर किसलिए आ कर दिलों को जोड़ जाते हैं
सियासत के परिंदे हैं ये दहशतगर्द दीवाने
इशारे पर किसी के शह्र में बम फोड़ जाते हैं
ए कान्हां जी बिगाड़ा आप का मैंने है आखिर क्या
जो आकर रोज़ मेरी आप मटकी फोड़ जाते हैं.
(सराब= रेगिस्तान में जहाँ पानी का भ्रम होता है, शजर= पेड़, इखलाक= नैतिकता, मरासिम= रिश्ता, फितरत= स्वभाव, सियासत= राजनीति, दहशतगर्द= आतंकवादी)
----प्रेमचंद सहजवाला
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
अति सुन्दर , बहुत बहुत बधाई, धन्याद
विमल कुमार हेडा
मरासिम तोड़ना तो दोस्त फितरत है हसीनों की
मगर फिर किसलिए आ कर दिलों को जोड़ जाते हैं
बहुत सुन्दर आभार
regards
दो शे'र अच्छे लगे.
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा ये किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
सुन्दर शेर!!!
बहुत बहुत बधाई!!!
bahut achchhi gazal.
kuchh shabdon ke neeche bila wajeh bindi, aur jahaan honi chaahiye wahaan na hona.... se aabhaas hota hai ki aap ki bhaasha par pakad hai kintu uchchaaran par nahi.
शजर काँटों से रहता है भरा ये किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
kisaliye ya isliye aksar
romesh singh
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा ये किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
मुझे ये २ शेर बहुत अच्छे लगे...बधाई!
बहुसराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैंत बढिया शेर हैं ग़ज़ल में .
ahsan sahab aapko kafi time bad hindyugm par dekh raha hun. bahut achcha laga. aapki comment to bahut hi lajawab lagi. kafi gahrai se inspection kiya aapne.
प्रिय अहसान जी, शमीख जी. आदाब. आप की बात सही है, जहाँ बिंदी होनी चाहिए वहां नहीं है. जैसे 'ख़याल' में, 'इखलाक़' में ख के नीचे बिंदी होनी चाहिए क्यों कि उर्दू में ये शब्द ऐसे लिखे जाते हैं: اخلاق خیال मेरी ग़ज़ल में ख की नीचे बिंदी है पर शायद ठीक से द्रष्टव्य नहीं है. इखलाक में क के नीचे भी बिंदी होनी चाहिए. इसी प्रकार अक्सर ठीक है, अक़्सर गलत है क्यों कि अक़्सर ऐसे लिखा जाता है - اکثر
यकीं में की के नीचे बिंदी होनी चाहिए. क्यों कि यकीं ऐसे लिखा जाता है یقین
मैं उर्दू भी पढ़ लेता हूँ तथा शब्दों के हिज्जे भी बखूबी मालूम हैं. पर प्रिय दोस्त, मुझे बाक़ायदा हिंदी टाइप करनी नहीं आती. मैं गूगल की मदद से टाइप करता हूँ जिस में कई बार वांछित option नहीं मिल पाते. कमी मेरे टाइप करने के तरीके में है, न कि जानकारी में. उर्दू शब्कोष भी है, कभी संदेह होने पर देख लेता हूँ. पर आप की नज़र की बारीक़ी की दाद देता हूँ. शुक्रिया.
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा ये किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं..
बहुत अच्छे शेर..सब कुछ कहने के बाद कान्हाजी से मासूम सी शिकायत लाजवाब है ...
पूरी गजल खूबसूरत बन पड़ी है..
पर मतला..बेहद शानदार....
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
अहसन जी और शामिख जी की बारीकियों की वाकई दाद देनी चाहिए...
इतनी सुन्दर रचना और इतने कम लफ्ज
...दिल को जरा और चैन लेने दिया करो...
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