चलो तारों को तोड़ें, और अपना घर सजाएँ,
नदी की हर लहर पे एक पगडंडी बनाएँ।
हवा को कस के भींचें आज अपनी बाजुओं में;
समंदर को सुखाएँ और फिर फ़सलें उगाएँ।
हथेली पर रखें सूरज, उछालें आसमाँ में,
चलो बादल उतारें शाम को इक बाँस ताने।
उजाले को करें हम कैद; अपनी मुठ्ठियों में;
अँधेरे को कहें अब जोर अपना आजमाने।
खुदा से पूछ आएँ रास्ता; ज़न्नत की गलियों का;
चलो मेला लगाएँ आज रेगिस्तां में कलियों का।
समेटें ओस की बूँदे; सहेजें कुछ रुमालों में ;
बसाएँ इक शहर तालाब में कमसिन मछलियों का ।
बुनें चेहरों पे अपने मकड़ियों के चंद जाले;
चलो फिर से लगाएँ हर जु़बां पे सात ताले ।
कोई तस्वीर जाकर खोल ना दे राज़ कोई ;
करें तजवीज़ हर इक पाँव में पड़ जाएँ छाले ।
चलो बालों की नोचें खा़ल, उसपे नाम लिख्खें;
उठा कर धूप के टुकड़े को उस पर शाम लिख्खें ।
कहीं कोई आईना; गुस्ताख़ ना हो जाए फिर से;
चलो हर आईने के नाम इक-इक जा़म लिख्खें।
कवि- सत्यप्रसन्न
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
satyaprashan sahib
kavita usi leek par lagti hai jinsme aap ne unikavita likhi thi.
par yeh kavita us jaisa pravah liye nahi nahi hai.kai sabdh khatak rahe hai.
waise mein app ki kavitao ka prasansak raha hoon par isme wah nyay nahi hai jo anay kavitao mein.
saader
सत्प्रसन्न जी आज मुझे आपकी कविता में कोई भी ऐसा stanza नहीं मिला जिसे अच्छा कहा जा सके. बल्कि पूरी कविता ही बहुत सुन्दर लगी. बहुत ही ज़बरदस्त imigination है आपकी, इससे पहले भी आपको पढ़ा है. यह कविता वाकई दिल में उतर गई. पूरी कविता ही लिख रहा हूँ क्योंकि कुछ भी समझ में नहीं आया की कोन सा पद्द सबसे अच्छा कहा जाये. बहुत खोबसूरत शब्द और सुन्दर सोच.
चलो तारों को तोड़ें, और अपना घर सजाएँ,
नदी की हर लहर पे एक पगडंडी बनाएँ।
हवा को कस के भींचें आज अपनी बाजुओं में;
समंदर को सुखाएँ और फिर फ़सलें उगाएँ।
हथेली पर रखें सूरज, उछालें आसमाँ में,
चलो बादल उतारें शाम को इक बाँस ताने।
उजाले को करें हम कैद; अपनी मुठ्ठियों में;
अँधेरे को कहें अब जोर अपना आजमाने।
खुदा से पूछ आएँ रास्ता; ज़न्नत की गलियों का;
चलो मेला लगाएँ आज रेगिस्तां में कलियों का।
समेटें ओस की बूँदे; सहेजें कुछ रुमालों में ;
बसाएँ इक शहर तालाब में कमसिन मछलियों का ।
बुनें चेहरों पे अपने मकड़ियों के चंद जाले;
चलो फिर से लगाएँ हर जु़बां पे सात ताले ।
कोई तस्वीर जाकर खोल ना दे राज़ कोई ;
करें तजवीज़ हर इक पाँव में पड़ जाएँ छाले ।
चलो बालों की नोचें खा़ल, उसपे नाम लिख्खें;
उठा कर धूप के टुकड़े को उस पर शाम लिख्खें ।
कहीं कोई आईना; गुस्ताख़ ना हो जाए फिर से;
चलो हर आईने के नाम इक-इक जा़म लिख्खें।
सकारामक प्रगतिवादी आधुनिक कविता है .
बधाई .
सत्यप्रसन्न जी,
मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है की कविता की किस तरह तारीफ़ करुँ. आपकी सभी कवितायें बहुत अच्छी लगती हैं. आपकी कल्पना बहुत ही strong और विस्तृत है. बधाई!
मांफी चाहूंगी! मुझे आपकी कविता अच्छी लगी पर कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे इनमे की कुछ पंक्तियाँ मैंने कही सुनी है ! शायद आपकी कविता इतनी अपनी लगी की मुझे सुनी-२ सी लग रही है!!!!
hameshaa ki tarah aapko padhnaa sukhad lagaa hai....
gulzaar jaisaa kuchh lag rahaa hai.
satya ji,
jst one word for this creation...
Awesome..!!
bahut sundar bahut hi sundar kavita hai,
उठा कर धूप के टुकड़े को उस पर शाम लिख्खें ।
aur yeh misra to qatl hai,
bahut pyaari kavita kahi hai, chura ke rakne layak, i mean worth stealing and keeping in safe. bahut khoobsurat.
तारों को तोडें ...घर सजाएँ ...समंदर सुखाएं ...फ़सलें उगायें ..बसाएँ इक शहर तालाब में कमसिन मछलियों का ..बहुत ही मनभावन कल्पनाएँ ...
बहुत सुन्दर कविता ..बधाई...!!
तारों को तोडें ...घर सजाएँ ...समंदर सुखाएं ...फ़सलें उगायें ..बसाएँ इक शहर तालाब में कमसिन मछलियों का ..बहुत ही मनभावन कल्पनाएँ ...
बहुत सुन्दर कविता ..बधाई...!!
क्या बात है सत्यप्रसन्न जी !
उजाले को करें हम कैद; अपनी मुठ्ठियों में;
अँधेरे को कहें अब जोर अपना आजमाने।
बहुत सुन्दर कविता ! बधाई
अद्भुत ................ बहुत ही सुन्दर एवं सुगठित रचना .......... बार बार पढने को मन कर रहा है............ सत्यप्रसन्न जी... मैं तो ऐसी ही कवितायेँ ढूंढता हूँ युग्म पर ........... मेरी और से ढेर सारी प्रशंसा ......... साधुवाद ..... स्नेह ..... बधाई.....
एक ऐसी रचना जिसे दिल से और दिमाग से दोनों से सचमुच कविता कहने का मन कर रहा है....
अरुण मित्तल अद्भुत
पढ़ कर बस एक ही बात मुह से निकली.. वाह!!!!
अतिउत्तम
सादर
शैलेश
pehli baar kisi kavita ne itna prabhvit kiya hai, bahut hi behatrin
saurabh
bahut hi shandar kavita hai shabdo ka achha prayog hai.
saurabh
चलो तारों को तोड़ें, और अपना घर सजाएँ,
नदी की हर लहर पे एक पगडंडी बनाएँ।
हवा को कस के भींचें आज अपनी बाजुओं में;
समंदर को सुखाएँ और फिर फ़सलें उगाएँ।
अति सुन्दर रचना, बहुत बहुत बधाई, धन्याद,
विमल कुमार हेडा
अद्भुत कल्पनाएँ!!!
बहुत सुन्दर कविता,
बधाई!!!
वाह!
हर लफ्ज, हर लाइन सीधे दिल में उत्तर गयी
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